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त्र्यम्बकं
यजामहे संगन्धि पुष्टि वर्धनम्।
ऊर्वारूक मिव बन्धनानं
मृत्युर्मुक्षीय मामृतात्।।
हे तीन नेत्रों वाले
भगवान आप हमारे शरीर की सुगन्धि व पुष्टि को बढ़ाएॅं। हम खरबूजे के समान परिपक्व
होकर ही इस शरीर को छोड़कर मृत्यु को न पाकर अमरत्व को प्राप्त करें।
भावार्थः सर्वप्रथम
मन्त्र में भगवान की महिमा का बखान किया है अर्थात् जिनके तीन नेत्र हैं दो
नेत्रों से हम भौतिक संसार देख सकते हैं उनकी सीमाएॅं हैं परन्तु तीसर नेत्र आज्ञा
चक्र की जागृति का सूचक है। जिसका आज्ञा चक्र सिद्ध हो जाता है उसका संकल्प बहुत
शक्तिशाली हो जाता है। इसी कारण सर्वशक्तिमान कहलाता है। शरीर यदि रोगी होता है तो
दुर्गन्ध बनी रहती है। शुद्ध व निरोग शरीर में ही सुगन्ध रहती है। सुगन्धि को
बढ़ाने से तात्पर्य हे आरोग्य व शुद्धता का अभिवर्धन। शरीर निरोग ही न हो अपितु
हष्ट-पुष्ट भी हो अतः पुष्टतः को बढ़ाने की प्रार्थना भी की गई है। इस प्रकार
प्रथम चरण में भगवान से आरोग्य व बलशाली शरीर हेतु निवेदन किया गया है।
द्वितीय चरण में भगवान
से अकाल मृत्यु से बचाने के लिए प्रार्थना की गई है। जैसे खरबूजा जब पूरा पक जाता
है तो बेल को स्वतः छोड़ देता है उसी प्रकार हम भी जब यह शरीर पूर्ण परिपक्व
अवस्था में आ जाए तो बिना कष्ट के छोड़कर परमब्रह्म रूपी अमृतत्व को प्राप्त हों।
मृत्यु से अर्थ है कष्टदायक स्थिति में शरीर का छूटना। अमृत से अर्थ है आत्मज्ञान
की अवस्था में पूरे आनन्द व शान्ति के साथ इच्छा से शरीर का त्याग करना। हमारे ऋषि, मुनि,
योगी लोग
जिनको आत्मा की अमरता का ज्ञान हो जाता है वो बिना विचलित हुए स्वेच्छा से इस
नश्वर शरीर का त्याग कर ब्रह्मलोक को प्राप्त हो जाते हैं। यही इस मन्त्र का सार है। वैसे तो मृत्युंजय
व्यक्ति के लिए प्रत्येक परिस्थिति में लाभदायक रहता है परन्तु स्वाधिष्ठान चक्र
के साथ इसका विशेष सम्बन्ध है।
मृत्युंजय महामन्त्र का
स्वाधिष्ठान चक्र में जप शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उपयोगी रहता है।
इसके लिए पहले व्यक्ति को आज्ञा चक्र में गायत्री मन्त्र का जप करना होता है जिससे
आज्ञा चक्र सचेतन हो जाए। अन्यथा नीचे के चक्रों में ध्यान व्यक्ति को वासना व
अन्य कठिनाईयों में भी फंसा सकता है। ऊपर के चक्र ब्रह्म चेतना से सम्बन्धित हैं व
नीचे के चक्र शारीरिक विकास के लिए आवश्यक हैं।
चक्र जागरण करने वाले
व्यक्ति को सात्विक खान-पान व रहन-सहन का अभ्यास्त आवश्यक है अन्यथा दूषित चक्रों
में आसुरी शक्तियाॅं आसानी से अपना प्राण छोड़कर उस शरीर को अपना माध्यम बना लेती
हैं और उसको गलत कर्मों की प्रेरणा देकर आसुरी दिशा में भरमा देती हैं।
बड़े अच्छे-अच्छे साधक
छोटी-छोटी गलतियों के चलते पतित होते देखे जाते हैं। भगवान शिव का इतना ऊॅंचा भक्त
इतना बड़ा राक्षस बन सकता है यह देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है।
परन्तु इसका अर्थ यह
नहीं है कि इस मार्ग पर चलने का साहस ही न किया जाए। दुर्घटना के भय से सड़क पर
गाड़ी न चलाने से काम कैसे चलेगा। चक्र विज्ञान को समझना व प्रयोग करना व्यक्ति की
अनिवार्य आवश्यकता बनती जा रही है। जैसे मोबाइल जब प्रारम्भ हुआ तो गिने-चुने
लोगों के हाथ में देखने को मिलता था परन्तु अब सबके हाथ में रहता है। ऐसे ही चक्र
विज्ञान का प्रारम्भ 21वीं सदी के आगमन के साथ
ही हो गया था आने वाले दस-बारह वर्षों में यह विज्ञान जन-जन तक पहुॅंच जाएगा। ऐसी
देवताओं की योजना है।
तीन नेत्र का अर्थ गलत है
ReplyDeleteत्रिंबकम का ये अर्थ नहीं है