सुनते हैं जब भगवान श्री
राम अपने अनुज के साथ विश्वामित्र आश्रम में गए तो उन्होंने बला व अतिबला विधाएं
सीखी| वास्तव में हमारी अध्यात्मिक विधा के दो बड़े पक्ष हैं एक है
गायत्री दूसरा है सावित्री| गायत्री के द्वारा हम सद्ज्ञान,
संवेदना, सत्कर्म की ओर बढ़ते हैं तथा सावित्री
के द्वारा हम शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त करते हैं| यदि हममे
संवेदना जग जाये परन्तु सामर्थ्य न हो तब भी हम इधर-उधर मारे-2 घूमते रहेंगे, हासिल कुछ भी नहीं होगा| यदि सामर्थ्य हो तथा
संवेदना न हो तो अंहकार को बढ़ते देर नहीं लगेगी व समाज में पीड़ा पतन, अन्याय अधर्म बढ़ जाएगा| एक बार की बात है मुझे
गोशालाओं की सेवा की इच्छा हुई| गायों के प्रति संवेदना के
चलते सड़क पर चलती फिरती चोट लगी गायों की सेवा करने का प्रयास करता| हम दो-तीन लोग जो यह कर्म कर रहे थे सभी दुबले-पतले कमजोर मासपेशियों के
इन्सान थे| कई बार हम हादसे के शिकार होने से बचे| तत्पश्चात हमने अपने साथ एक तगड़ा व्यक्ति रखना प्रारम्भ किया जिससे हमें
कोई चोट न पँहुचे| जो व्यक्ति अधिक संवेदनशील हो जाता है
परन्तु समर्थ नहीं होता वह कभी भी किसी भी संकट फंस सकता है| अंत: गायत्री के साथ सावित्री अर्थात सामर्थ्य का होना अतिअवश्यक है|
युग निर्माण अभियान की सफलता के लिए भी यह आवश्यक है कि सावित्री
साधना के विज्ञान पर पकड़ बनायीं जाये व इसका प्रयोग पहले कुछ चुने हुए लोगो के
समर्थ बनाने में किया जाए| बिना शक्ति के भक्ति मानवीय
व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकती|
पूज्य गुरुदेव श्री राम
आचार्य जी ने प्रचार अभियान को सन 2000 तक गायत्री परिवार के द्वारा समयदान लेकर
कराया| इसके बाद जो ब्रह्मकमल खिलने थे उनके खिलने पर युग निर्माण
अभियान में तेजी आनी थी| परन्तु मात्र एक पक्ष के चलते वो
ब्रह्मकमल नहीं खिल सके यह एक दुखद विषय है| गायत्री के साथ
सावित्री विधा को जोड़कर ही ब्रह्मकमल खिल सकता है| श्री
अरविन्द ने अपनी साधना से सावित्री विधा का श्री गणेश किया था व सावित्री नामक
महाकव्य लिखा भी| परन्तु दुर्भाग्यवश वह सावित्री विधा आज भी
लुप्तप्राय: है व समर्थ लोग उभर कर नहीं आ पा रहे हैं|
इस पुस्तक के लिखने का
उदेश्य है कि गायत्री और सावित्री का समन्वित स्वरूप जन सामान्य के सामने आए| इसके
गोपनीय पक्षों को छोड़कर इसको समाज के सम्मुख प्रकट किया जाए जिससे हमारे समाज सेवी
युग सैनिक समर्थ बन असुरी सन्ताओं से मोर्चा लेने में सक्षम हो सके|
एक बार कि बात है गोरखनाथ
जी ने अपने समय में दुष्ट तांत्रिको का सफाया करने का अभियान चलाया| तांत्रिको
ने गोरखनाथ जी का सामना किया परन्तु गोरखनाथ जी ने साधना के बल पर कठोर व मजबूत
शारीर बना लिया था| तांत्रिक शक्तियों का गोरखनाथ जी के ऊपर
कोई प्रभाव नहीं पड़ा व उनको अपनी रक्षा का संकट उत्पन्न हो गया| तांत्रिक भयभीत होकर अपनी प्राण रक्षा के लिए माँ चामुण्डा का आह्वान किया
अब माँ चामुण्डा प्रकट होकर गोरखनाथ पर प्रहार करने लगी| गोरखनाथ
जी ने माँ चामुण्डा से प्रार्थना की दुष्ट तांत्रिको ने समाज में पीड़ा, पतन व आतंक मचा रखा है| मांस, मदिरा,
मैथुन के दुरूपयोग से समाज मर्यादाहीन होता जा रहा है| सज्जन व संवेदनशील व्यक्ति बहुत दुखी हैं अंत: इन तांत्रिको को सबक सिखाने
दिया जाए| इस पर देवी चामुण्डा ने उत्तर दिया कि वह सृष्टि व
तन्त्र के नियमो से बंधी है जो उनका तन्त्रपूर्वक आहवान करेगा तो उसकी रक्षा का
भार उन पर आ जाएगा| ऐसा कहकर देवी चामुण्डा गोरखनाथ को युद्ध
के लिए ललकारने लगी| गोरखनाथ ने इसे नियति का विधान मान देवी
चामुण्डा से युद्ध करना प्रारम्भ कर दिया| यह युद्ध तीन
वर्षो तक चलता रहा| तत्पश्चात उन्होंने चामुण्डा को कीलित कर
दिया व तांत्रिको को शक्तिहीन व श्री हीन कर दिया|
युग निर्माण के इस
महाअभियान में तन्त्र व शक्ति का समर्थ स्वरूप फिर से उभरकर युग निर्माणयों को
सम्मुख आना चाहिए है जिससे वो समर्थ बन सके व धरती पर सतयुगी वातावरण निर्मित करने
में सफल हो सके|
शास्त्रो में एक रोचक
प्रंसग आता है। सत्यवान नामक एक सज्जन व्यक्ति राजदरबार में बडे़ पद पर आसीन थे।
राजा उन्हें पुत्रवत स्नेह करते थे जिससे दूसरे दरबारी उनकी प्रतिष्ठा से जलते थे।
उन्होंने सत्यवान के विरुद्ध षडयन्त्र रचा व उनको कुछ गम्भीर आरोपो में फंसा दिया
। राजा ने उनको देश निकाला दे दिया। बेचारे अपने माता पिता के साथ जंगल में बड़ी
दयनीय अवस्था में जी रहे थे। कोई भी दूसरे लोग भय के मारे सच्चाई व अच्छाई का साथ
देने के लिए तैयार नही थे। जंगल में पीड़ा व उपहास का जीवन जीते-जीते वो गम्भीर
रोग से पीडित हो गए तथा उनके पिता द्युमत्सेन अन्धे हो गए।
दूसरी ओर मद्र देश के राजा
अश्वपति की कन्या सावित्री विवाह योग्य हो गयी थी। राजा के पास सभी सुख थे परन्तु
लम्बे समय तक सन्तानहीन रहे। उन्होंने सूर्य के साधना की जिसके प्रयन्न होकर भगवान
सविता ने उनको एक कन्या का वरदान दिया । कन्या का जन्म इसी आधार पर सावित्री रखा
गया। यह कन्या दिव्यता व सुन्दरता की मूर्ति थी। साथ-साथ उच्च कोटि की साधक व
तेजस्विनी थी। अनेक राजकुमारो से विवाह के प्रस्ताव आए परन्तु सावित्री के भोग
विलास व झूठ कपट से भरा राक्षसी वैभवन पसन्द नहीं था। उसको अपने लिए कोई उपयुक्त राजकुमार
न मिला। फलस्वरूप उसने अपना वर चुनने आसपास के आश्रमों, वनो में
घूमना प्रारम्भ किया। तभी उसकी दृृष्टि एक ऐसे युवा पर पड़ी जो कुल्हाडी से लकड़ी
कटकर ला रहा था। परन्तु उसका चेहरा बहुत दिव्य था। सावित्री ने उसका परिचय पूछा व
उसकी दुर्दशा पर उसको बहुत दुःख हुआ। सावित्री ने सच्चाई से पूर्ण सत्यवान को पति
के रूप में चुना व व विवाह का प्रस्ताव रखा। इधर राजमहल में जब इसकी चर्चा हुई तो
नारद जी ने सत्यवान के गम्भीर रोग से पीडि़त जानकर विवाह से मना किया। परन्तु
सावित्री तो सविता की शक्ति का कम है। उसके आगे रोग कहाँ टिक सकते है? जब सत्यवान सावित्री के साथ जुडे तो उनके जीन में परिस्थितियाँ अनुकुल
होने लगी। धीरे-धीरे उनके स्वास्थय सुधरने लगा व उनको सामथ्र्य उपलब्ध होती गयी।
उन्होंने अपनी सूझ बूझ व वीरता से राजा के भी परास्त कर राजपद हासिल कर लिया।
कहानी बहुत ही सन्देशप्रद
है। समाज में अक्सर सीधे-सीधे सज्जन लोगो को निर्वासित तरह का जीवन जीना पड़ता है।
अनेक प्रकार की समस्याओं से उनके जूझना पड़ता है। इस कारण वो अक्सर रोगी व दयनीय
जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं। परन्तु यदि वो सावित्री साधना को पकड़े तो
शक्तिशाली समाज में कीर्ति व वैभव प्राप्त कर सकते है।
परमपूज्य गुरुदेव श्री राम
आचार्य जी ने ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना इसलिए की थी कि सावित्री
कुण्डलिनी तन्त्र पर प्रयोग किए जा सकें। इसके लिए लगभग एक दर्जन उच्च स्तरीय
साधको को भी वहाँ छोड़ा गया था। लेकिन सफलता का वो मापदण्ड हम पा नहीं सके जिसकी
महाकाल को चाह थी। मात्र वहाँ 24 अक्षरों के 24 मन्दिर
बनकर रह गए। आज समय की पुकार हे पुनः उच्च स्तरीय साधना की चाह रखने वालो की एक
गोष्ठी हो व एक लुप्त विद्या के पुनः जीवन्त बनाया जा सके।
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