मूर्खस्य पंचचिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
हठी चैन विषादी च परोक्तं नैन मन्यते ।।
अर्थात मूर्ख के पाँच लक्षण हैं -
प्रथम गर्व करना, दूसरा दुर्वचन बोलना, तीसरा हठ करना, चौथा कलह करना एवं पाँचवाँ कहे हुए
वचनों का पालन न करना ।
महर्षि कणाद वेदों के प्रकांड विद्वान
व परम तेजस्वी एवं निरासक्त ऋषि थे। एक बार राजा उदावर्त उनसे ब्रह्म विद्या का
ज्ञान लेने पहुँचे और उनके समक्ष सहस्त्रों स्वर्ण मुद्राएँ रखकर उनसे ज्ञान देने
का आग्रह करने लगे। महर्षि बोले - ‘‘राजन्!
इन मुद्राओं का मूल्य मेरी निगाह में कूड़े के समान है। अध्यात्म का ज्ञान पाने के
लिए धनबल की नहीं, तपबल की आवश्यकता होती है। आप संयम, शील व सदाचार के व्रत का पालन करें और
उचित अवधि के बाद शिष्य के रूप में यहां
लौटें तो ज्ञान के अधिकारी बनेंगे।’’ यह
सुनकर राजा को क्रोध आ गया व आक्रोश में कुछ बोलने ही वाले थे कि उनके मंत्रियों
ने उन्हें समझाया- ‘‘ऋषि कणाद तपस्या, निरासक्ति व वैराग्य की साक्षात्
प्रतिमा हैं। उनके प्रति दुर्भाव रखकर आप पाप के भागी बनेंगे।’’ बात उदावर्त की समझ में आ गई ।
उन्होंने लंबे समय तक पंच महाव्रतों का पालन किया और फिर श्रद्धा भाव से महर्षि
कणाद के समक्ष प्रस्तुत किए। तब जाकर वे ब्रह्म विद्या के ज्ञान को पाने के लिए
सुपात्र बन सके ।
संत ज्ञानेश्वर एक बाग के पास से गुजर
रहे थे। माली को पौधों को पानी देते देखकर वे अपने शिष्यों से बोले - ‘‘क्या
तुम लोग इस पानी की विशेषता जानते हो?’’ शिष्यों ने अपनी अनभिज्ञता जाहिर करी। संत ज्ञानेश्वर
बोले-’’ये पानी अपनी इच्छा के बगैर काम करता
है। माली इसको जिस पौधे पर डाल देता है वहां जाता है। हमें अपना जीवन माली के पानी
की तरह बना लेना चाहिए। अपनी सब कामनाओं, आकांक्षाओं
व समस्याओं को माली रूपी भगवान के हाथों सौंप देने में अलग ही आनंद हैं।’’ शिष्यों को उनके कथन का गूढ़ मर्म समझ
में आ गया।
एक बार मगध नरेश ने कौशल प्रदेश पर
हमला कर दिया। युद्ध में कौशल नरेश की हार हुई । कौशल नरेश ने मगध के राजा के
समक्ष प्रस्ताव रखा कि उनके साथ के 15-20
व्यक्तियों को वे जाने दें,
शेष के साथ वे यथोचित व्यवहार करने को
स्वतंत्र हैं। मगध नरेश ने इस प्रस्ताव के लिए हामी भर दी। कुछ समय पश्चात कौशल
नरेश 20 व्यक्तियों को विदा कर सपरिवार युद्ध
बंदी के रूप में मगध के राजा के सामने आकर खड़े हो गए। मगध के राजा ने सोचा था कि
कौशल नरेश स्वयं भागेंगे,
पर उन्हें सामने खड़ा पाकर वे बड़े
आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने पूछा - ‘‘वे
कौन थे, जिनके जीवन की सुरक्षा के लिए आपने
स्वयं को बंदी बना लिया।’’
कौशल नरेश बोले - ‘‘राजन्! वे सभी हमारे राज्य के विद्वान
व संत थे। राज्य की पहचान उस राज्य के आदर्शो, मूल्यों, सत्कार्यो व संस्कारों से होती है। मैं
भले ही मारा जाऊँ, पर इन परंपराओं को जीवित रखने के लिए
उनका जीवित रहना आवश्यक था।’’ मगध
नरेश यह सुनकर हतप्रभ रह गए और बोले - ‘‘जिस
राज्य में धर्म, दया व परोपकार का इतना ऊँचा स्थान है, उस पर आधिपत्य का दुस्साहस मैं कैसे कर
सकता हूँ?’’ उन्होंने कौशल नरेश को ससम्मान मुक्त
कर दिया।
बेटे ने कहा- ‘‘पिताजी हम भगवान का भजन नहीं करेंगे।
भगवान पक्षपाती हैं, उन्होंने किसी को बहुत ध्न दिया, किसी को बहुत थोड़ा। ऐसे भेदभाव करने
वाले की याद हम क्यों करें?’’
उस समय पिता ने कोर्इ उत्तर नहीं दिया।
दूसरे दिन पिता ने कहा- ‘‘बेटे आज घर के सामने बाग लगाएँगे।
पिता-पुत्रा दोनों उसमें जुट गए, पर
बेटा असमंजस में था कि पिताजी ने उत्तर क्यों नहीं दिया? एक पेड़ नीम का लगाया गया दूसरा आम का।
दो पफीट के पफासले पर दोनों पेड़ बढ़ने लगे। पेड़ बड़े हुए, कुछ दिन बाद पफल आए, एक का कड़वा दूसरे का मीठा। पिता ने
कहा- ‘‘बेटे एक ही ध्रती के दो बेटों ने एक ही
स्थान पर समान सुविधएँ पार्इ, पर
यह विषमता कहाँ से आ गर्इ?’’
बेटे ने समझ लिया कि यह प्राकृतिक गुण
है कि जो जैसा चाहता है, अपनी सृष्टि बना लेता है, परमात्मा उसके लिए दोषी नहीं।
एक धनी व्यक्ति के घर में आग लग गर्इ।
सेठ जी अपने अनुचरों के साथ दौड़-दौड़कर घर का किमती सामान निकालने लगे। देर होने
पर ज्ञात हुआ कि सामान तो सारा निकल आया, पर
सेठ जी का पुत्र अंदर ही रह गया। सब जानकर चीख-पुकार शुरू हुर्इ, पर तब तक देर हो चुकी थी। वस्तुओं के
आकर्षण में मनुष्य इतन अंधा हो जाता है कि वो भूल जाता है कि बहुमूल्य क्या है? उस धनी व्यक्ति की भाँति मनुष्य भी
अपना जीवन निरर्थक उद्देश्यों के पीछे
भागने में लगा देता है और जब होश आता है तो पता चलता है कि हम अपना जीवन सँवारना
ही भूल गए।
एक धनी राजकुमार भगवान बुद्ध के पास
पहुँचा। उसने तथागत से प्रश्न किया-’’ हे
प्रभु! ये बताएँ कि मनुष्य को साधनों का उपभोग कैसे करना चाहिए, जिससे उसमें संग्रह की प्रवृित्त्ा भी
न पनपे और आवश्यकताएँ भी पूर्ण होती रहे।’’
बुद्ध बोले-’’ पुत्र! मनुष्य को अल्प, सुलभ और निर्दौष, इन तीन व्रतों का पालन करते हुए भोग
करना चाहिए। अल्प का अर्थ है कि जितने कम में हमारी आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाएँ, उतना ही भोग किया जाए। दुसरा, उन वस्तुओं का उपभोग न करें, जो दुर्लभ या अत्याधिक मूल्यवान हों।
तीसरा, इस बात का सदैव ध्यान रखें कि उपयोग
में लार्इ जाने वाली वस्तु दोषों से रहित अर्थात र्इमानदारी से, परिश्रम से और सदाचार से प्राप्त की
गर्इ हो। जो व्यक्ति इन व्रतों का पालन निष्ठापूर्वक करता है, वो कर्मों को करता हुआ भी उनमें लिप्त
नहीं होता। ‘‘
एक धनी व्यक्ति मरणोपरांत स्वर्ग
पहुँचा। उसे अपेक्षा थी कि उसके साथ वहाँ बहुत आदरपूर्ण व्यवहार किया जाएगा, पर जब उसने देखा कि उसके महल के पीछे
रहने वाले निर्धन व्यक्ति को वहाँ सर्वोच्च सत्कार दिया जा रहा है तो उसके आश्चर्य
का ठिकाना न रहा। उसने चित्रगुप्त से प्रश्न किया- ‘‘ मैं इस व्यक्ति का अच्छे से जानता हूँ। ये जीवन भर फटेहाल रहा और इसे
आप इतना सम्मान दे रहे है,
जबकि मैंने जीवन भर दान-पुण्य किए और
मुझे अन्य व्यिक्यों की तरह ही समझा जा रहा है।’’ चित्रगुप्त बोले-’’ इस
व्यक्ति ने हर रात सरसों के तेल का एक दीया जलाकर सड़क के किनारे रखा है। ‘‘ अब धनपति और कुपित हो उठा और बोला-’’ तब तो आपका व्यवहार और भी पक्षपातपूर्ण
है। मैंने हर दिन अपने मंदिर में घी के हजारों दीये जलवाए हैं और सरसों के तेल के
केवल एक दीये को नित्य जलाने पर इसका इतना मान क्यांें?’’ चित्रगुप्त गंभीर स्वर में बोले-’’ पुण्य धन से प्रदर्शन से नहीं, सार्थक कर्मों को करने से अर्जित होता
है। इसके दीये ने उस अँधेरी गली में अनेकों को पथ दिखाया और तुम्हारे दीये केवल
तुम्हारी समृद्धि और अहंकार के लिए जले। ‘‘ कर्मों
की महत्त्ाा मूल्य के आधार पर नहीं, वरन
कार्य की उपयोगिता के आधार होती है।
परिवर्तन मनुष्य की मन:स्थिति के
अनुरूप परिस्थितियाँ तैयार करता है। भयभीत के लिए परिवर्तन हमेशा डरावना होता है
और आशावादी के लिए सदा उत्साहवर्द्धक। आदमी केवल अपने मन की स्थिति के अनुसार
परिस्थितियों से प्रसन्न या परेशान होता है।
- किंग व्हिटनी जूनियर
अखण्ड ज्योति नवंबर 2012
रूस में एक छोटे से कसबे में 1839 में एक बच्ची जन्मी। हेलेना नामक इस
संवेदनशील बालिका को समाज में स्त्रियों की दुर्दशा देखकर रोना आ जाता था। उन्हें
एक प्रौढ़ से जबरदस्ती विवाह के बंधनों में बाँध दिया गया, पर उस वातावरण से निकल कर वे
विश्वयात्रा पर निकल पड़ीं। अपना नाम रखा मैडम ब्लावट्स्की। उन्होंने न केवल काफी
भ्रमण किया, स्वाध्याय भी किया। नियति उन्हें भारत
ले आर्इ। यहाँ के योगी-सिद्ध-संतों से वे मिलीं। अज्ञात की खोज को उन्होंने अपना
प्रिय विषय बना लिया, ताकि सभी अपना आत्मविकास कर सकें इसके
लिए उनने’ सीक्रेट डॉक्ट्रीन ‘ नामक ग्रंथ लिखां वे लोक से परे
पारलौकिक शक्तियों का अस्तित्व मानती थी। बाद में जब वे 1873 में अमेरिका में बस गर्इ तो उनने अपने
कार्य को विधिवत् संस्थागत रूप दिया। ‘‘ थियोसोफिकल
सोसाइटी ‘‘ की उन्होंने स्थापना की। बाद में
मद्रास में अडयार नदी के तट पर समुद्र किनारे उन्होंने इसके अंतर्राष्ट्रीय
कार्यालय की स्थापना की। वे सच्चे अर्थों में विश्व नागरिक थीं, विश्वबंधुत्व की साकार प्रतिमा थी।
जिस प्रकार एक ही मक्खी दूध में पहुँचकर उसे अभक्ष्य बना देती है, उसी प्रकार एक ही दुर्गुण मनुष्य की अनेक विशेषताओं को नष्ट कर देता है।
-भतर्ृहरि
अगर आपको लगता है कि दर्द बड़ी खराब चीज है। हमें कभी दर्द न हो, ऐसी भगवान से पार्थना है तो जराइन सज्जन के बारे में जान लें -मेपलबुडमोण्टाना(अमेरिका) के हेनरी स्माइथ के 148 बड़े ऑपरेशन हो चुके है। 39 वर्ष की उम्र में 49 वर्ष की उम्र तक अनवरत उन ने दर्द सहा। 200 घंटे से ज्यादा वे ऑपरेशन टेबल पर रहे और मजे की बात कि हमेशा मुस्कराते रहे। वे एक सफल शेयर मार्केट के दलाल थे और बड़ी प्रसन्नता पूर्वक अपनी पत्नी के साथ जिए। वे बहुत तेज चलते और खूब घूमते थे। नृत्य करना एवं घोड़े की सवारी उनके प्रिय शौक थे। जब वे मरे तो दर्द से नहीं, सोते हुए धीरे से मौत आर्इ और उन्हें ले गर्इ!
दर्द से भी क्या डरना!
अखण्ड ज्योति अक्टूबर 2011
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