Saturday, August 18, 2012

शानदार अध्यात्म का पुनर्जागरण


मित्रों! इस शानदार अध्यात्म और मजेदार अध्यात्म से क्या मतलब हैं? और हमें क्या करना चाहिए? हमको उस अध्यात्म को पुन: जागृत करना चाहिए। हमको यह तलाश करना चाहिए कि हम वे ऋषि कहां से लाएँ? हम ज्ञानी कहाँ से लाएँ? पंडित कहां से लाएं? वे व्यक्ति जिनके भीतर आध्यात्मिकता का प्रकाश आ गया है, वो व्यक्ति हम कहां से लाएं? हमें बड़ी कठिनाई होती है कि हम ऐसे व्यक्ति कहाँ से लाएँ, जो अपनी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा लगा सकें। हमको बड़ी निराशा होती है, खासतौर से उन लोगों से जिनके उपर जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। जिनके घर में बच्चे बड़े हो गए हैं और जो कमाने खाने लायक हो गए हैं, वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। जिनके पास घर में पैसा है, वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। लोभ और मोह ने इनको कसकर जकड़ रखा है और इनको हिलने नहीं देता। इसलिए हम उनको कहां से लाएं, जो वानप्रस्थ परम्परा की अध्यात्म की रीढ़ हैं, जिन्होंने अध्यात्म को जिंदा रखा था और जिंदा रखेंगे, उन्हें हम कहां से लाएं?
संतों की नई पीढ़ी का निर्माण
इसलिए मित्रो! हमने यह निश्चय किया है कि अब हम ब्राह्मणों की नई पीढ़ी पैदा करेंगे और संतों की नई पीढ़ी पैदा करेंगे। किस तरीके से पैदा करेंगे? हम एक-एक बूँद घड़े में इकट्ठा करके एक नई सीता बनाएँगे। जिस प्रकार से ऋषियों ने एक-एक बूंद रक्त देकर के एक घड़े में एकत्र किया था और उस घड़े को संभाल करके जमीन में गाड़ दिया था। फिर उस घड़े में से सीता पैदा हो गई थी। आध्यात्मिकता को पैदा करने के लिए हम उन लोगों के भीतर, जिनके भीतर पीड़ा है, जिनके अंदर दरद हैं, लेकिन घर की मजबूरियाँ जिनको चलने नहीं देती। घर की मजबूरियों की वजह से जो एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकते, अब हमने उनकी खुशामद करनी शुरू कर दी है।
नौकरी क्यों करेगा? जिस आदमी के हाथों नुस्खा लग गया है कि हमारे पाप तो गंगाजी में डुबकी मारने के बाद दूर हो ही जाना है और सवा रूपये की सत्यनारायण की कथा सुनने के बाद वैकुंठ मिल जाने वाला है। इतने सस्ते नुस्खे जिसके हाथ लग गए हैं, भला वो त्याग का जीवन जिएगा क्यों? कष्टमय जीवन जिएगा क्यों? त्याग करने के लिए तैयार होगा क्यों? संयम और सदाचार का जीवन व्यतीत करने के लिए अपने आपसे जद्दोजहद करनी पड़ती है। उसके लिए तैयार होगा क्यों? उसको तो किसी ने ऐसा नुस्खा बता दिया है कि तुमको समाज के लिए कोई त्याग करने की जरूरत नहीं है। अपने आपको संयमी और सदाचारी बनाने के लिए और तपस्वी बनाने के लिए कोई जरूरत नहीं है। आप तो सवा रुपये की कथा कहलवा लिया करिए और आपके लिए वैकुंठ का दरवाजा खुला हुआ पड़ा है।
मित्रो! यह झूठा और बेबुनियादी अध्यात्म जिनके दिमाग पर हावी हो गया है, उनको मैं अब कैसे बता सकता हूं कि आपको त्याग करना चाहिए और सेवा करनी चाहिए और कष्ट  उठाने चाहिए। उनके लिए यह नामुमकिन है, जो इतना सस्ता नुस्खा लिए बैठे हैं। वे शायद कभी भी तैयार नहीं होंगे। उनको मैं कैसे कह सकता हूं। हमारा अध्यात्म कैसा घृणित हो गया है। मुझे दु:खा होता है, बड़ा क्लेश होता है, मुझे रोना आता है, मुझे बड़ी पीड़ा होती है और मुझे बड़ा दरद होता है, जब मैं अध्यात्म की ओर देखता हूं।
मित्रों! कहीं अखंड कीर्तन हो रहे हैं, कहीं अखंड रामायण पाठ हो रहा हैं, कहीं क्या हो रहा है, कहीं क्या हो रहा हैं? यह सारे के सारे कर्मकांड बड़े जोरों से चल रहे हैं। लेकिन जब हम वही अखंड पाठ करने वालों और अखंड रामायण पढ़ने वालों के जीवनों को देखते हैं कि क्या उनके भीतर वह मादा है, जो अध्यात्मवादी के भीतर होना चाहिए? क्या इनके जीवन के क्रियाकलाप वह हैं, जो अध्यात्मवादी के होने चाहिए? हमको बड़ी निराशा होती है, जब यह मालूम पड़ता है कि सब कुछ उल्टा-पल्टा हो रहा है। अध्यात्म की दिशाएं अच्छी हैं, पर हो बिल्कुल उल्टा रहा है।

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