बहुत पहले अमेरिका में जन्मे एक बालक
की बहुत चर्चा हुई इस बालक की आंखों में -’जे’ और ‘डी’ अक्षरों जैसी आकृतियॉं उभरी हुई थी ।
वैज्ञानिकों ने उसकी बहुत जांच की, पर
कारण न जान पाए । आखिर इस गुत्थी को एक मनोवैज्ञानिक ने सुनझाया । बालक की माता ने
उन्हें बताया - मैं अपने विद्याध्ययन काल से ही जीन डिक्सन की विद्वता से प्रभावित
रही हूँ । मेरी सदा से यह इच्छा रही है कि
मेरी जो संतान हो, वह जीन डिक्सन की तरह की विद्वान हो ।
मैंने अपनी यह इच्छा कभी किसी को बताई तो नहीं, पर
जब भी इस बात की याद आती तो मैं दीवार या कॉपी पर जे.डी. अक्षर लिखकर अपनी स्मृति
को गहरा किया करती थी ।’’
इसके साथ उन्होंने अपने अध्ययन काल की
कई कॉपियॉं और पुस्तकें भी दिखाई , जिनमें
जे.डी. लिखा मिला ।
हमारे पूर्वज इन सब बातों से भली भॉंति
परिचित थे इसलिए उन्होंने गर्भाधान संस्कार को हमारी भारतीय संस्कृति में कराए
जाने वाले षोडश संस्कारों में से एक संस्कार माना था और उसे पूर्ण पवित्रता के साथ
संपन्न करने की प्रथा और उसे पूर्ण पवित्रता के साथ संपन्न करने की प्रथा प्रचलित
की थी । उस समय बालक का निर्माण माता-पिता भावभरे वातावरण में किया करते थे और
जैसी आवश्यकता होती थी, उस तरह की संतान समाज को दिया करते थे
।
जीवात्मा के अवतरण और उसकी विकास
यात्रा में योदान देना माता-पिता की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है । पिता गर्भधारण में
केवल सहयोग प्रदान करता है,
किंतु बाद में उस गर्भ को पकाने का
कार्य माता के माध्यम से ही संपन्न होता हैं इसलिए पिता की अपेक्षा माता का
उत्तरदायित्व अधिक है । बिना उचित ज्ञान एवं स्थिति की जानकारी लिए माता इस
कर्तव्य का भली भॉति पालन कर सकेगी, यह
असंभव जैसा है । अतएव महिलाओं को यह जानकारी होना आवश्यक है कि संतान केवल
काम-वासना का परिणाम नहीं है, अपितु
परिवार व समाज के प्रति एक महती उत्तरदायित्व भी है ।
वर्तमान समय में सबसे ज्यादा ध्यान
देने की आवश्यकता बच्चों पर ही है । बच्चे हीसमाज एवं राष्ट्र का भविष्य हैं ।
बच्चे ही इस देश की प्राण-ऊर्जा हैं । यदि इन्हें सॅंवारा जा सकें, इन पर विशेष रूप से ध्यान दिया जा सके
तो निश्चित रूप से क्रमश: परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व का कल्याण हो सकता
है । आज पैदा होने वाले बच्चे कल भविष्य में युवा बनकर देश की बागडोर एवं अन्य
जिज्मेदारियॉं सॅंभालते हैं । यदि उन्हें ठीक प्रकार से गढ़ा नहीं गया, उनमें सही समझ पैदा नहीं हुई , तो उनका जीवन कुंठित एवं रूग्ण हो
जाएगा और फिर उनका जीवन इस देश पर एक भार होगा । एक सुसंस्कारित बच्चा ही अपने
माता-पिता के नाम को उज्जवल एवं प्रकाशित कर सकता है और अगर हर घर में सुसंस्कारित
बच्चे पैदा होने लेगं, तो निश्चित रूप से धरती के हर
घर-परिवार में स्वर्गीय वातावरण हो जाएगा ।
अपने बच्चे को संस्कारवान बनाने के लिए
एक महिला ने संत ईसा से एक बार प्रश्न किया - ‘‘आप
हमें बताइए कि बच्चे की शिक्षा-दिक्षा कब से प्रारंभ की जानी चाहिए ।’’ ईसा
मसीह ने उत्तर दिया - ‘‘गर्भ
में आने के 100 वर्ष पहले से ।’’ यह उत्तर सुनकार स्त्री को बहुत
आश्चर्य हुआ । तब ईसा मसीह ने इस बात को समझाया कि यद्यपि सौ वर्ष पूर्व बच्चे का
अस्तित्व नहीं होता, लेकिन उसकी जड़ उसके बाबा या परबाबा के
रूप में सुनिश्चित होती है । उसकी मन:स्थिति, उसके
आचार, उसके संस्कार पिता के माध्यम से बच्चे
के अंदर आते हैं, इसी तरह माता-पिता के विचार, उनके रहन-सहन, आहार-विहार से भी बच्चे का निर्माण
होता है । संत ईसा मसीह का यह कथन पूर्णतया सत्य है । इसके कई उदाहरण हैं- भगवान
राम जैसे महापुरूष का जन्म रघु, अज
और दिलीप आदि पितामहों के तप की परिणति थी एवं योगेश्वर कृष्ण का जन्म देवकी और
वसुदेव के कई जन्मों की तपश्चर्या का पुण्यफल था । ठीक इसी तरह अठारह पुराणों के
रचयिता भगवान व्यास का जन्म भी तभी हुआ, जब
उनकी पांच पितामह पीढ़ियों ने घोर तप किया था । मनुष्य द्वारा की गई भक्ति एवं तप
ही उसे इस योग्य बनाते हैं। जो अपने चित्त के कुसंस्कारों का शमन
हेतु कोई तप नहीं करता एवं साधारण जीवन व्यतीत करते हुए परिवार की वृद्धि करता है, तो उसकी संतानों में भी कई कुसंस्कारों
का आगमन हो जाता है, जो उसके भावी जीवन के लिए बहुत घातक
सिद्ध होते हैं ।
हर माता-पिता अपने बच्चे के उज्जवल
भविष्य के लिए धन-संपदा को एकत्रित करते हैं, उसके
विकास के लिए बहुत चिंता करते हैं । लेकिन यदि माता-पिता अपने बच्चे को विरासत में
अच्छे संस्कार दे सकें, तो फिर उन्हें कुछ और खास चीज देने की
आवश्यकता नहीं पड़ेगी, क्योंकि ऐसी संताने न केवल अपना भविष्य
सुधार लेंगी, बल्कि औरों के लिए भी साधन-सुविधांए
जुटा लेंगी।
संतान उत्पति के संदर्भ में स्वामी
विवेकानंद का कथन है कि यदि माता-पिता बिना प्रार्थना किए संतानोत्पति करते हैं तो
ऐसे संतान ‘अनार्य’ है और समाज पर भारस्वरूप है । ‘आर्य’ संतानें वे ही हैं, जो माता-पिता द्वारा भगवान से की गई
निर्मल प्रार्थना के फलस्वरूप उत्पन्न होती हैं। वे ही परिवार, समाज का हितसाधन कर सकती है।
बच्चों का सुसंस्कारित बनाने का सबसे
उपयुक्त समय उसका गर्भकाल है। गर्भधारण काल में माता का चिंतन, चरित्र और व्यवहार तीनों ही उसके उदर
में पह रहे बच्चे को प्रभावित करते हैं। इस अवस्था में वह जिस तरह के बच्चे की
कल्पना करती है, जिस तरह का भोजन करती है जिस तरह का
वातावरण उसे मिलता है, वह सब बच्चे के अंदर सूक्ष्म रूप से
समाहित होता जाता है। माता की आदतें, इच्छाएं
आदि भी संस्कार के रूप में उसकी संतान के अंदर प्रवेश कर जाते हैं, जो समयानुसार परिलक्षित होते हैं। इस
अवस्था में माता का शारिरिक, मानसिक
व भावनात्मक स्वास्थ्य बच्चे के स्वास्थ्य को विनिर्मित करता है। यदि माता-पिता
अपने बच्चे के लिए किसी क्षेत्र में विशेष योग्यता की चाहत रखते हैं तो उन्हें
बच्चे के गर्भकाल में ही प्रशिक्षण देने का प्रयास करना चाहिए और प्रशिक्षण माता
को देना चाहिए, क्योंकि गर्भावस्था काल में बच्चे की
संवेदनशीलता अत्यंत विकसित होती हैं। इस अवस्था में माता जो भी देखती है, सीखती हे, महसूस करती हे, इच्छा करती है, कल्पना करती है, उसके अनुरूप ही उसके बच्चे के
व्यक्तित्व का निर्माण बीज रूप में हो जाता है, जो
समयानुसार विकसित होता है।
शोध अध्ययनों में ऐसा देखा गया हैं कि
गर्भकाल के दौरान जिन माताओं ने संगीत का प्रशिक्षण लिया, उनके बच्चे सुरीले, मधुर कंठ वाले पैदा हुए। जिन माताओं ने
अपनी रूचि के अनुसार चित्रकारी, लेखन, अच्छी पुस्तकों का अध्ययन आदि किया, उनके बच्चे आगे चलकर उसी तरह की
योग्यता में प्रवीण हुए। इससे यह स्पष्ट होता है कि गर्भकालीन माता को दिया गया
प्रशिक्षण उसके बच्चे में वही गुण विकसित करने का सबसे अच्छा माध्यम है।
इस संदर्भ में महाभारत की सुविख्यात
घटना है कि महाभारत युद्ध के समय तक दिन द्रोणाचार्य ने पांडवों का वध करने के लिए
चक्रव्यूह की रचना की। उस दिन चक्रव्यूह का रहस्य जानने वाले एकमात्र अर्जुन को
कौरव बहुत दूर तक भटका ले गए और इधर पांडवों के पास चक्रव्यूह भेदन का आमंत्रण भेज
दिया। यह जानकर सब सारी सभा सन्नाटे में थी, तब 23 वर्षीय राजकुमार अभिमन्यु खड़े हुए और
बोले - ‘‘मैं चक्रव्यूह भेदन करना जानता हूं।’’ युधिष्ठिर ने साश्चर्य प्रश्न किया - ‘‘पुत्र! मैंने तो तुम्हें कभी भी
चक्रव्यूह भेदन सीखते न देखा और न ही सुना।’’ तब
अभिमन्यु ने कहा - ‘‘तात् जब मैं अपनी मां सुभद्रा के पेट
में था और मां को प्रसव पीडा प्रारंभ हो गई थी, तब
मेरे पिता अर्जुन पास ही थे। मां का ध्यान दरद की ओर से बंटाने के लिए उन्होंने
चक्रव्यूह भेदन की क्रिया बतानी प्रारंभ की। छह द्वारों के भेदन की क्रिया बताने
तक मेरी मां ध्यान से सुनती रहीं और गर्भ में बैठा हुआ मैं उसे सीखता चला गया, पर सातवें और अंतिम द्वार भेदन को
सुनाने से पूर्व ही मां को निद्रा आ गर्इ एवं उन्हीं के साथ मैं भी विस्मृति में
चला गया। उसके बाद मेरा जन्म हो गया। छह द्वार तो मैं आसानी से तोड़ लूंगा। सातवें
में सहायतार्थ आप सब पहुंच जाएंगे तो उसे भी तोड़ लूंगा।’’
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