सन्यास का मार्ग मात्र बिरले साधक ही
चुन सकते हैं । जिनका मन निष्काम कर्म करते-करते पवित्र हो गया है संसार की
आसरिक्तयों गौण पड़ती जा रही है वही यह मार्ग अपनाने की सोचें । परन्तु जिनके मन
में द्वन्द्व है, संषष्ज्ञ्र हैं कभी मन इधर दौड़ता है
कभी उधर उनके लिए सन्यास एक सिरदर्द बन जाता है । ऐसे व्यक्ति के लिए भगवद्गीता
कहती हैं-
संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुम्
अयोगत: । 5/6
अनुकरण है महाबाहो यह सन्यास
दु:खप्राप्ति का मार्ग बनकर रह जाता है । जन सामान्य इस मार्ग के दु:ख, कष्ट , प्रचण्ड झंझावातें के उलझ सकते हैं वह मार्ग सुपात्र ही चुन सकते हैं। परन्तु सुपात्रों के लिए यह परम आनन्द
व मोक्ष का द्वारा खोल देता हैं । अत: पहले गृहस्थ आश्रम का मार्ग अपनाकर सन्यास
के नायक मनोभूमि का निर्माण करना उचित हैं ।
पुराणों में कथा है युवराज कालभीति एवं
महार्षि हरिद्रुम की। यह कथा बड़ी ही प्रेरक एवं मर्मसपर्शि है। युवराज कालभीति
बड़े ही विशाल साम्राज्य के उतराधिकारी थे। उनके पिता सम्राट वीरमर्दन का यश
चतुर्दिक फैला हुआ था। सम्राट ने युवराज कालभीति की शिक्षा व सस्कारों का उचित
प्रंबंध किया था। संभवत: उच्चकोटि की इसी स्थिति के कारण युवराज कालभीति को
वैराग्य हो गया। उन्होंने तप साधना करने की ठानी। शास्त्रों के अध्ययन व साधु संग
से उन्हें जगत की नश्वरता का ज्ञान हो गया था। अब उन्हें तलाश थी, केवल एक सुचोग्य मार्गदर्शक की।
उन्होंने जब अपने पिता सम्राट वीरमर्दन से अपनी मन:स्थिति की चर्चा की तो वह बोले-“ पुत्र! तुम्हारे शुभ विचारों से मैं
सहमत हूँ। मानव जीवन तो होता ही है भगवत्प्राप्ति के लिए, पर विचारों की श्रेष्ठता के साथ कुछ और
भी आवश्यक है।“
‘‘यह कुछ और क्या है पिताश्री?’’- कालभीति
ने पूछा। उतर में सम्राट वीरमर्दन ने कहा-’’ इस
कुछ और के बारे में तुम्हें महार्षि हरिद्रुम बताएँगे।’’ कालभीति ने कहा-’’ पिताजी मैंने सोचा है कि मैं उनसे
दीक्षा प्राप्त करके संन्यास लूँगा। ‘‘ सम्राट
वीरमर्दन ने इस कथन पर अपनी सहमति प्रदान की। पिता से सहमति प्राप्त कर युवराज
कालभीति ने अरण्य की ओर प्रस्थान किया। लंबी यात्रा करके वह महर्षि हरिद्रुम के
आश्रम पहूँच गए। प्रणाम-अभिवादन के बाद उन्होंने अपना आने का मंवव्य बताया। युवराज
कालभीति की सारी बातें सुनकर महर्षि हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स! तुम्हारे उद्देश्य से मैं
पूर्णतया सहमत हूँ, परंतु अभी तुम्हारा विवेक अपरिपक्व है, इसलिए संन्यास हेतु तुम्हें अभी समय की
प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।’’
हरिद्रुम की इस बात ने कालभीति को आहत
किया। उन्होंने कहा-’’ हे महर्षि! सांसारिक भोगों के प्रति
मेरी दोषदृष्टि है। मुझे उनकी चाहत नहीं है। ‘‘ इस
पर हरिद्रुम ने कहा-’’पुत्र! समय तुम्हारे सामने सत्य स्पष्ट
करेगा, अभी मैं यही कह सकता हूँ।’’महर्षि के इस कथन से निराश कालभीति ने
उसी वन में तप करने की ठान ली। वह वहीं कुटी बनाकर तपक रने लगे। ऐसा करते हुए
उन्हें कुछ मास ही बीते थे कि वहाँ से एक दिन साँझ समय एक राजकुमारी की काफिला
निकला। राजकुमारी ने देखा कि एक युवा व्यक्ति पास में कुटिया बनाए तपस्या में लीन
है। वह युवा और कोई नहीं,
युवराज कालभीति ही थे। वह राजकुमारी
सौम्यदर्शना एक बड़े साम्राज्य की इकलौती वारिस थी। राजकुमारी सौम्यदर्शना पहली ही
नजर में युवराज कालभीति से अतिशय प्रभावित हो गई ।
राजकुमारी ने अपने पिता को अपनी मनोदशा
के बारे में बताया। पुत्री के प्रेम में विवश उसके पिता ने कालभीति के सामने
सौम्यदर्शना के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव सुनकर कालभीति ने कहा-’’राजन्! यह संभव नहीं है। मेरे जीवन का
उद्देश्य तप है। इसमें विवाह जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है।’’ यह सुनकर सौम्यदर्शना के पिता ने कहा-’’वत्स! तुम्हारे कथन का तुम्हारे लिए
औचित्य हो सकता है, पर मैं तो एक पुत्री का पिता हूँ। तुम
मुझे पिता-तुल्य मानकर हो सके तो मेरा एक निवेदन स्वीकार कर लो।’’ कालभीति ने कहा-’’ आप संकोच त्यागकर अपना मंतव्य कहें। ‘‘उतर में सौम्यदर्शना के पिता ने कहा-’’ तुम अपनी सारी बातें मेरी पुत्री को
समझा दो।’’ कालभीति ने इस पर हामी भर दी।
इसके बाद कालभीति और सौम्यदर्शना
परस्पर मिलने लगे। प्रारंभ में कालभीति ने सौम्यदर्शना को वैराग्य की बातें कहीं।
जीवन के सुखों की नश्वरता समझाई , लेकिन
जैसे-जैसे समय बीता उसके मन में सौम्यदर्शना के प्रति आसक्ति बड़ने लगी। उसके
द्वारा अर्जित किया हुआ ज्ञान संस्कारबल के सामने क्षीण होने लगा। कुछ समय बाद उन
दोनों का विवाह हो गया और कालभीति सौम्यदर्शना के राज्य का राजा बन गया। विवाह के
एक वर्ष बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई । यह सब होने के बाद भी कालभीति का मन
यदा-कदा तप के लिए छटपटाने लगता। सौम्यदर्शना भी अब उस पर विशेष ध्यान नहीं देती
थी। उसका मन अपने पुत्र में रम गया था। समय बीतता गया। उसका पुत्र अब किशोर से
युवा होने लगा।
तभी एक दिन महर्षि हरिद्रुम ने उसके
महल के द्वार पर आकर आवाज दी। वह जब दौड़कर बाहर पहुँचा, तब उसने हरिद्रुम को देखकर प्रणाम
किया। इस पर उसे आशीष देते हुए हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स! अब तुम साधना के योग्य बन चुके हो। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हे
दीक्षा दे सकता हुँ। ‘‘ महर्षि हरिद्रुम की बात सुनकर उसकी
आँखों में आँसू आ गए। हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स
अब तुम्हारे कर्म, संस्कार क्षीण हो चुके है। तुमने इस
अवधि में जो अनुभव पाए है,वही तुम्हारा यथार्थ ज्ञान है। जो
ज्ञान तुम्हें इसके पूर्व था, वह
केवल रटा हुआ था। उसमें अनुभव का अमृत नहीं था।’’ कालभीति को यथार्थ बात समझ आ गई ।
महर्षि हरिद्रुम ने उसे प्रबोध कराते
हुए कहा-’’ वत्स! पढ़े हुए अथवा सोचे हुए विचार
प्रेरित तो करते है, परंतु संस्कारों से मुक्ति के लिए कठिन
तप के साथ कर्म-मार्ग आवश्यक है। तुमने कर्ममार्ग पर चलकर धर्माचरण करते हुए स्वंय
को शुद्ध कर लिया है। अब तुम तप की उच्च कक्षा में प्रवेश क अधिकरी हो।’’ हरिद्रुम की सभी बातें कालभीति की समझ
में आ चुकीं थी। उसे यह बोध हो गया, केवल
विचार पर्याप्त नहीं है, विचारों के साथ संस्कारों को भी क्षीण
करना पड़ता है, तभी ज्ञान सार्थक हो पाता है।
इनके बीच के एक ओर कड़ी है जो आज के
युग के लिए बहुत ही उपयुक्ता है वह है गृहस्थ सन्यासी की तरह रहना । लाहिडी महाश्य
गृहस्थ थे सामान्य धोती कुर्त्ता व पहनते थे नौकरी करते थे । एक बार वो एक बहुत
बड़े फिट पुरूष त्रेलंग स्वामी को मिलने गए । स्वामी जी अपने हजारों शिष्यों के
साथ बैठे थे । उनको आना देखकर स्वामी जी जो उठ खड़े हुए व सम्मान पूर्वक लोहड़ी जी
को बैढ़ाया । शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गृहस्थ के इतना सम्मान क्यों ।
स्वामी जी ने बताया कि जिसके पाने के लिए मुझ वर्षो तक कठिन साधना करनी पड़ी व
रोटी का भी त्याग करना पड़ा, जी
गृहस्थ में रहते हुए भी उसी परम पद पर प्रतिष्ठित हैं मुझमें व इनमें कोई भेद नहीं
आज के युग में जहां खान-पान व पहनावा इतना अधिक प्रदूषित हो गया है गृहस्थ सन्यासी
की भूमिका सर्वोत्तम जान पड़ती है ।
युग ऋषि श्री राम आचर्य जी के उनके
गुरू महायोगी सर्वेश्वरा नन्द जी ने गृहस्थ सन्यासी की तरह रहने का आदेश दिया ।
आचार्य जी का जीवन एक गृहस्थ के लिए की अनुकरणायं है व एक सन्यासी के लिए इतना
सुन्दर गृहस्थ जिससे आश्रय परम्परा की हजारों शिष्य उस परम्परा के लाभान्वित हुए ।
दूसरी ओर इतना प्रचण्ड तप,
इतना बड़ा पुरूषार्थ लोक कल्याण के
विभिन्न इतिहास में ऐसा उदाहरण कठिनता से ही देखेन को मिलता है । यह किसी भी
सन्यासी का आदर्श हो सकता है । युग के अनुकूल धर्म व परम्पराओं का निर्वाह
सर्वोत्तम होता है । ब्रहमचारी को नगें पेर रहना चाहिए यह सोचकर बिनोबा जी ने
चप्पल जूता त्याग दिया । शीघ्र ही उनके पता चला कि यह युग के अनुकूल नहीं है इसमें
दुख अधिक है व लाभ कम ।
इसी प्रकार भावावेष में आकर सन्यास
लेना युगानुकूल नहीं हैं अत: सोच समझकर मात्र परिपक्व मानसिकता वाल श्रेष्ठ साधक
ही सन्यास ग्रहण करें ।
महायोगी सर्वेश्वरा नन्द जी हजारों वर्षो
से हिमालय में साधनारत है व सन्त कबीर के भी गुरू रह चुके हैं ऐसे प्रमाण मिलते
हैं ।
(अधिक जानकारी के लिए पढ़ें book- हमारी
वसीयत और विरासत पुस्तक http://www.awgp.org)
This book is also available on this blog.
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