अजय और समीर
पार्क में खेल रहे थे। अचानक अजय बोला - ‘दोस्त, एक बात बता! बड़े होकर अगर तेरे पास दो गाडि़याॅं होंगी, तो क्या तू मुझे
एक गाड़ी उपहार के रूप में दे देगा?’
समीर - ‘अरे बिल्कुल! भला
इसमें भी कोई पूछने वाली बात है? दोस्ती पहले आती है, बाद में संसार की चीजें।’
अजय - अच्छा, अगर तेरे पास
दो-दो आलीशान बंगले होंगे,
तो क्या तब भी तू
मुझे अपना एक बंगला उपहार में दे देगा?
समीर- हाॅं, हाॅं मित्र, पक्का दे दूॅंगा।
तेरे बिना कहे ही, मैं अपना एक
बंगला तेरे नाम कर दूॅंगा।
अजय - क्या बात
है मित्र! तेरे जैसे दोस्त हर किसी को मिलें... अच्छा, तेरे पास यदि दो
अच्छी पेन्सिलें हों, तो क्या तू मुझे
एक दे देगा?
समीर (एकदम से) -
बिल्कुल नहीं!
अजय (हैरानी से)
- पर क्यों? पेन्सिल तो गाड़ी
और बंगले के सामने बहुत छोटी चीज है।
समीर - बुद्धु, मेरे पास न अभी
दो गाडि़याॅं हैं, न बंगले। इसलिए
मैंने कह दिया कि मैं तुझे इनमें से एक-एक दे दूॅंगा। पर मेरे पास दो बहुत अच्छी
पेन्सिलें तो अभी ही हैं। अगर मैं ‘हाॅं’ कह दूॅंगा, तो मुझे तुझे वे अभी देनी पड़ेगी, जो मैं कतई नहीं
दूॅंगा। वे मेरी हैं। तुझे क्यों दूॅं?
आज हर इंसान समीर
की तरह अपने आप को बहुत आदर्शवादी दिखाता है। भाषण देने को, वायदे करने को
सपने दिखाने को, आदर्श झाड़ने को
तो बहुत होते हैं उसके पास! लेकिन जब वास्तविकता में कुछ करने की बात आती है, तो हो जाती है
उसकी टायॅं-टायॅं फिस्स!
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