शरीर में जैसे ही किसी ऊतक, कोशिका, अंग या प्रणाली
पर किसी आन्तरिक रोग या बाहरी दुर्घटना से हमला होता है, तभी शरीर में
दर्द पैदा होता है। दर्द नहीं होता तो शरीर की आन्तरिक या बाह्य खतरों से रक्षा
सम्भव नहीं होती। शरीर की क्षति हो जाने पर या सम्भावित नुकसान के अनुमान से दर्द
उतरकर हमारा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है। दर्द शरीर की रक्षा प्रणाली की प्रबल
प्रक्रिया है। हाथ के कटने पर चमड़ी ऊपर से कटी, चमड़ी के नीचे ऊतकों और कोशिकाओं की क्षति हुई, रक्षा प्रणाली
हरकत में आई तथा उसने सूजन द्वारा कटे स्ािान को घेर लिया। कटे स्थान पर पूरी हलचल
मच गई ताकि शरीर की नुकसान से रक्षा की जा सके। रोग अन्दर ऊतकों, कोशिकाओं या
अंगोें पर हमला करता है जिससे बचने के लिए पूरी रक्षात्मक प्रणाली हरकत में आ जाती
है। शरीर में दो तरह के दर्द होते हैं। एक अकस्मात दर्द, जो कटने या चोट
लगने पर होता है। दूसरा दर्द लगातार रहने वाला दर्द, जो किसी रोग से शरीर में पैदा होता है। इन दोनों
ही अवस्थाओं में दर्द रीढ़ से होकर मस्तिष्क तक जाते हैं।
शरीर में अन्दर या बाहर से जब भी खतरा आएगा, तभी खतरे के
केन्द्र-बिन्दु पर मौजूद हमारी नाडि़यों के छोर अपने विद्युत संकेतों द्वारा रीढ़
में पहुॅंच कर न्यूराॅन को सूचना देंगे। रीढ़ तक पहुॅंचे दर्द के संकेत तीव्रतम
गति के साथ मस्तिष्क में थेलेमस (Thalamus) ग्रन्थि में पहुॅंच जाते हैं।
थेलेमस ग्रन्थि हरकत में आकर अपनी पूरी शक्ति को शरीर में आए खतरे से बचाने के लिए
झोंक देती है। इससे हमारा रक्तचाप और हृदय की धड़कन बढ़ जाएगी। हमारी श्वास गति
तेज हो जाएगी तथा शरीर में बेचैनी और पसीना आ जाएगा।
मस्तिष्क का विद्युत-परिपथ तन्त्र कुछ संकेत
हमारे ब्रह्मरन्ध (Medulla) की ओर पहुॅंचाकर हमारे भावनात्मक
शरीर को प्रभावित कर देता है। इससे दर्द का आवेग और बढ़कर हमारी माॅंसपेशियों को
भी मरोड़ देता है। शरीर दर्द से भर जाता है तथा दर्द का केन्द्र भी पता लगाना कठिन
हो जाता है। दुर्घटना से शरीर को बचाने के लिए जल्दी कदम नहीं उठाए जाएॅं या लम्बी
बीमारी, जिसका इलाज नहीं
हो पा रहा है - इन दोनों स्थितियों में दर्द अपना मार्ग निश्चित और प्रबल कर लेता
है। यही कारण होता है कि रोग ठीक हो जाने पर भी दर्द का भय ज्यों का त्यों बना
रहता है। शरीर में दर्द का हमारे विचारों और भावनाओं से गहरा सम्बन्ध बन जाता है।
उदाहरण के लिए, यदि आप गठिया, सन्धिवात या साईटिका के दर्द से पीडि़त हैं, तब हमारी
परिसरीय संवेदी तंत्रिकाएॅं (Periphery Nervous System) जो दर्द के
यातायात का माध्यम होती हैं, वे ऐंठ जाती हैं। दर्द का मार्ग पक्का बन जाता
है। इस स्थिति में दर्द दोनों दिशाओं में, यानि अपने केन्द्र बिन्दु से आरोही स्थिति में
मस्तिष्क की ओर जाता है तथा अवरोही स्थिति में मस्तिष्क से वापिस दर्द के बिन्दु
पर इस प्रकार आता और जाता रहता है। दर्द आरोही स्थिति में दैहिक व्यग्रता (Physiological) तथा अवरोही स्थिति में मनोंविकारों के अवसाद से भरा होता है। यही कारण होता है
जिससे हमारा सारा शरीर व्यग्रता, अवसाद और उदासी से भर जाता है। इस प्रकार दर्द
का मार्ग पक्का बनकर स्थाई बन जाता है जिसको तोड़ना व समाप्त करना रोग ठीक करने से
भी कठिन है।
हमारी नाडि़यों और माॅंसपेशियों की सहायता से
बना दर्द का स्थाई मार्ग आसनों के अभ्यास से टूट जाता है। प्रत्येक आसन अपनी पूरी
क्षमता से करें तथा उसके साथ श्वास का भरना और निकालना धीरें-धीरें करें। अपना
ध्यान आसन के लिए की जाने वाली आकुचन-संकुचन की प्रक्रिया की ओर बनाए रखें। आसन का
आकुचन श्वास भर कर तथा संकुचन श्वास निकाल कर करें। आसन की स्थिति में श्वास
निकालते हुए शरीर में मौजूद किसी भी दर्द की चिन्ता और उत्तेजना को बाहर निकालें।
लगातार आसन के अभ्यास से आप दर्द से बनने वाली रासायनिक और भावनात्मक घबराहट को
शरीर से दूर कर पाएॅंगे। आसन की स्थिति में श्वास भर कर तथा आॅंखें बन्द किए हुए
शरीर को स्थिर करे और जिस अंग में दर्द है, वहाॅं ध्यान रखें। इस तरह शरीर और मस्तिष्क के
मध्य एक रिश्ता बना लेते हैं, जो हमें शारीरिक दर्द के संभालने में मददगार
होता है। योगासन का निरन्तर किया जाने वाला अभ्यास हमारे परिसरीय संवेदी तंत्रिका
के छोरों को शक्ति देता है। धीरे-धीरे हमारी हड्डियों, मांसपेशियों और
नस-नाडि़यों का ढाॅंचा सुदृढ़ बन जाता है और उनका आपसी तालमेल दर्दों को जड़ से
उखाड़ फेंकने में सहायता करता है।
प्राणायाम का अभ्यास रीढ़ के चेतना केन्द्रों पर
न्यूराॅन का मस्तिष्क तक पहुॅंचने से पहले ही दमन की देने की शक्ति प्रदान करता
है। नाडि़यों और न्यूराॅन के बीच चलने वाला दर्द का परिस्परिक प्रभाव यह निर्णय
करता है कि दर्द के संकेत को मस्तिष्क तक कब भेजना है। इस तरह हम प्राणायाम के
अभ्यास से अपने चेतना केन्द्रों को सक्रिय कर लेते हैं और दर्द का दरवाजा बन्द कर
देते हैं। वैज्ञानिक शोधों से सिद्ध हुआ है कि आसनों के बाद किया जाने वाला धीमी, लयबद्ध और लम्बी
श्वास का अभ्यास शरीर नाडि़यों के छोरों से आए दर्द के संकेतों को ग्रहण करके रीढ़
में मौजूद (Spinathalmic tract) को सक्रिय या निष्क्रिय कर सकता है। आसन और प्राणायाम
शरीर में आॅक्सीसटोसिन तथा इंडोर्फिन (Endorphin) हार्मोन पैदा करता है, जिससे दर्द शरीर
को प्रभावित नहीं कर पाता तथा इससे हमें उपचारात्मक शक्ति प्राप्त होने लगती है।
आसन-प्राणायाम के उपरान्त किया जाने वाला शवासन, योग निद्रा या ध्यान का अभ्यास हमारे मस्तिष्क
में ‘अल्फा’ किरणें उत्पादित
कर देता है। इससे मस्तिष्क के बाएॅं आवरण में ‘गामा’ तरंगें उठने लग जाती हैं। ये किरणें कोमल और
अनित्य होती हैं लेकिन दर्द के अवरोही रास्तों को प्रभावित कर मस्तिष्क से वापिस
शरीर में जाने वाले रास्तों को बन्द करने में मदद करती हैं। मस्तिष्क में उठने
वाली ‘थीटा’ तरंगें सम्मोहन
शक्ति देती हैं। साधक को जब यह शक्ति मिलती है, तब वह शरीर के प्रत्येक दर्द से दूर हो जाता है।
वह बिना किसी दर्दनाशक दवा के ही शल्य चिकित्सा करा सकता है और अंगारों पर चल सकता
है। लगातार किए जाने वाले योगाभ्यास से अन्त में अत्यन्त धीमी गति से मस्तिष्क में
‘डेल्टा’ तरंगें प्रवाहित
होने लगती हैं जो ‘दर्द कहीं नहीं’ का अहसास कराती हैं और आनन्द को प्रदान करती
हैं। साधक शरीर के विध्नों और व्यवधानों से ऊपर उठ जाता है। साधना की यह प्रबल
शक्ति बिना उकताए लगातार और आनन्दपूर्वक क्रमबद्ध तरीके से किए जाने वाले
योगाभ्यास से कुछ काल के उपरान्त ही प्राप्त हो जाती है।
साभारः योग मंजरी
लेखकः वेद प्रकाश राठी
डव्ठः 9312833729
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