संतुलन और
सामंजस्य एकांगी नहीं होता अर्थात् एकाकी प्रयत्न से सामंजस्य का प्रयास प्रायः
निरर्थक रखने के लिए समतुल्य भार की वस्तुएॅं रखनी पड़ती हैं, नाव के दोनों
सिरों पर बैठे दो लोग यदि संतुलन खो दें तो नाव डूबने का खतरा रहता है, इसी प्रकार
परिवाररूपी नाव को संतुलित रखने अर्थात् डूबने से बचाए रखने में दोनों व्यक्तियों
अर्थात दंपती का पारस्परिक सहयोग एवं सहकार आवश्यक है, अन्यथा एक दूसरे
किनारे पर ले जाना चाहता है और दूसरा दूसरे किनारे पर तो फिर कशमकश की स्थिति का
निर्माण हो जाएगा। ऐसी परिस्थिति में सांमजस्य द्वारा संतुलन बनाया जा सकता है।
कार में बैठने वाले अनेक लोग होते हैं, किन्तु चालक एक ही। इसी प्रकार मोटर, ट्रेन, वायुयान को एक ही
चालक द्वारा नियंत्रित किया जाता है, किन्तु चालक यदि संतुलन खो देता है तो भीषण दुर्घटनाएॅं
होती देखी गईं हैं। इस कसौटी में पत्नी ही खरी उतरती है, क्योंकि वह
अहर्निश परिवार के सम्पर्क एवं सान्निधय में रहती है, पति तो बाहर रहकर, नौकरी अथवा
काम-धंधे द्वारा परिवार की आवश्यकताओं की संपूर्ति हेतु प्रयत्नशील रहता है।
प्रश्न यह उठता है कि संचालक यदि प्रशिक्षित नहीं तो दुर्घटना की सम्भावना से
इंकार नहीं किया जा सकता।
परिवार को हम एक गाड़ी ही मानें और उस गाड़ी की
आवश्यकताएॅं जुटाने वाला अर्थात् ईंधन, पानी की व्यवस्था करने वाले व्यवस्थापक पति को मान सकते हैं, तो परिवार को
संचालित एवं संपादित करने के लिए एक संयोजक की भी आवश्यकता रहती है। चालक की थोड़ी
सी असावधानी ही गाड़ी को क्षतिग्रस्त कर सकती, अर्थात् परिवार संस्था चैपट हो सकती है। बनाना सरल है, किन्तु चलाना
कठिन है, कमाना जितना सरल
है खर्च करना उतना ही कठिन है। आदमी की समझदारी इस बात में नहीं निहित है कि वह
कितना और कैसे कमाता है? वरन् कैसे और
कितना खर्च करता है? इस दृष्टि से भी
पत्नी का दायित्व पति से अधिक माना जा सकता है। पत्नी ही परिवार की वास्तविक
कत्र्ता-धत्र्ता होती है,
उसी के विवेक से
परिवार सुखी एवं समुन्नत होता चला जाता है और अविवेक से दुखी एवं अवनत होता जाता
है। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने ‘गबन’
उपन्यास में
पत्नी की उस कमजोरी का चित्रण किया है, जिसमें पति को गबन करना पड़ा और सजा भी काटनी पड़ी।
इसके विपरीत
पत्नी द्वारा पतियों को जीवन-दृष्टि देने वाले ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जिससे वे अपने
जीवन में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह कर सकें, अन्यथा उनका जीवन आरम्भ में घिनौना ही था। इस संदर्भ में
रत्नावली, विद्योत्तमा एवं
वाल्मीकि की पत्नी का स्मरण यहाॅं समीचीन ही है। पति को प्रत्येक दृष्टि से पत्नी
सहायक सिद्ध हो सकती है, साहित्य साधना
में भामती का उदाहरण, रणभूमि में
कैकेयी एवं हाड़ारानी अविस्मरणीय हैं। अभिप्रायः स्पष्ट है कि ये पत्नियाॅं स्वय।
संतुलन खो देतीं तो हम ऐसे महापुरूषों से वंचित रह जाते। नैतिक, सांस्कृतिक
दृष्टि से इनकी संतुलन क्षमता अद्वितीय मानी जा सकती है, क्योंकि दांपत्य
जीवन की आधारशिला में दोनों की उपादेयता अप्रतिम ही मानी जाती है। दांपत्य
जीवनरूपी संस्था को संविधान की सफलता विशेष रूप से नारी की ही गुणवत्ता पर आधारित
है। पत्नी की व्यवहारकुशलता ही बिगड़े मिजाज पतियों की रामबाण औषधि सिद्ध हुई है, पति की साज-संभाल
के प्रति सतर्कता, उसकी आवश्यकताओं
का यथासम्भव ध्यान आयु के अनुरूप प्रेम और सम्मान का आदान-प्रदान, पति को संतुष्ट
बनाए रखने में पत्नी की सफलता, उसकी बुद्धि-कौशल एवं प्रत्युत्पन्नमति पर निर्भर करता है।
अतः दांपत्य जीवन के संतुलन की कुंजी पत्नी ही कही जा सकती है। जो पत्नी प्रेम, सम्मान, सौहार्द्र एवं
सद्भाव के गुणों से ओत-प्रोत है तथा जिसे अपने कत्र्तव्यों और उत्तरदायित्वों का
बोध है। वह पति के लिए वरदान ही कही जा सकती है। ऐसे दांपत्य ही सही अर्थों में
सुखी एवं सम्पन्न कहे जा सकते हैं। संपन्नता का अभिप्राय धन एवं वैभव से नहीं है।
बलिक दांपत्य जीवन के स्वर्ण सूत्रों को जीवन में सफलतापूर्वक चरितार्थ करने से है
अन्यथा अनेक धन की दृष्टि से संपन्न कहे जाने वाले दंपति नारकीय जीवन जीने के लिए
विवश हैं। वहीं दूसरी ओर सुमन के अर्थात् सुन्दर मन के विचारों की संपदा के धनी
दंपति गौरवशाली एवं गरिमामय जीवन जीते हैं जो अनुकरणीय एवं आदर्श कहे जाते हैं।
नारी भावना की
साक्षात् प्रतिमूर्ति एवं देवी होती है। सद्भावना ही मनुष्यों को जोड़ने एवं दुर्भावना
तोड़ने का कार्य करती है,
किंतु पति-पत्नी
में निर्मल प्रेम है तो दोनों में सदैव वैचारिक एवं भावनात्मक तादात्मय रहेगा और
घृणा एवं द्वेष है तो कटुता रहेगी। यह वैज्ञानिक सत्य है कि क्रिया की प्रतिक्रिया
समान रूप से होती है।
जिस प्रकार ध्वनि
की प्रतिध्वनि की प्रतिध्वनि एवं विंब का प्रतिविंब समानधर्मा होता है। उसकी
प्रकार प्रेम की प्रतिक्रिया प्रेम होती है और क्रोध एवं घृणा की क्रोध एवं घृणा।
गेंद की जितनी जोर से दीवार पर मारेंगे उतने ही जोर से लौटकर आएगी। प्रेम वह पारस
है, जिस किसी लौहगण
को संस्पर्श करता है, स्वर्ण में परिणत
कर देता है। पति-पत्नी में यदि परस्पर प्रेम हो तो वे एक-दूसरे को विश्व सुन्दर
एवं विश्वसुन्दरी से कम नहीं मानते, भले चर्मचक्षुओं से वे कुरूप प्रतियोगिता में प्रथम आने
वाले हैं। दंपति के लिए प्रेमचक्षुओं की महत्ता को रखना संतुलन के लिए अनिवार्य
आवश्यकता है।
प्रेम की
अभिव्यक्ति के लिए मात्र वाणी ही पर्याप्त नहीं है, वरन यह कहना अत्युक्ति न होगा कि प्रेम की भाषा
मौन होती है। मात्र सांकेतिक रूप से दूसरे के भावों को समझने में सक्षम हो जाते
हैं, जैसे सीताजी
रामचन्द्र जी की आंतरिक भावना को समझकर ही केवट को देने के लिए मुंदरी देने लगी
थीं- पत्नी अपने पति के हृदय से सुपरिचित रहती है तभी उसकी दांपत्य जीवन के सच्ची
सफलता मानी जा सकती है।
आत्मीयता की
अनुभूति के संबंध में भी यही नियम लागू होता है। आत्मीयता की अभिव्यक्ति भी वाणी
द्वारा संभव नहीं। यदि की भी जाती है तो कृत्रिमता परिलक्षित होती है। आत्मीयता
जिससे होती है, उसे दिया जाता
है- सम्मान, प्रेम, सद्भाव आदि पाने
के पूर्व देने ही पड़ते हैं। यदि पाने की इच्छा है और देना नहीं जानते, तो संतुलन
बिगड़ने की ही संभावना रहती है। प्रशंसा एक ऐसा अचूक ब्रह्मास्त्र है, जिस पर चलाया
जाता है, खाली नहीं जा
सकता है। इसे प्रशंसापाश भी कहा जा सकता है। जैसे प्रेमपाश में आबद्ध प्राणियों को
अलग नहीं किया जा सकता, वैसे प्रशंसा में
बंधकर सहज उन्मुक्ति संभव नहीं। मनोवैज्ञानिक सत्य है कि अपनी प्रशंसा सुनकर हर
व्यक्ति प्रसन्न होता है। फिर ऐसे अस्त्र का प्रयोग पति-पत्नी क्यों नहीं करते? पति की सहानुभूति
अर्जित करने एवं संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि प्रशंसा का सहारा लिया जाए।
परस्पर प्रशंसा से सद्भावना का संचार होता है।
प्रशंसा का
अभिप्रायः गुणों की, सत्कर्मों की ही
प्रशंसा की जाए। जिससे एक-दूसरे को प्रोत्साहन भी मिलता रहेगा और प्रेरणा भी।
असद्वृत्तियों और दुष्प्रवृत्तियों की प्रशंसा अहितकर होगी। असद्कार्यों की आलोचना
में दांपत्य का संतुलन वर्तमान में तो डगमगाता दीखे, किंतु दूरगामी परिणाम अनुकूल ही होंगे।
दुर्विचार की आलोचना से अवमानना भी हो सकती है, किंतु मंदोदरी इस भय से अपने पति रावण का न समझाए, ऐसा नहीं हो
सकता।
नवदंपति द्वारा
जब एक नूतन सदस्य परिवार में संतान के रूप में जुड़ जाता है, तब कुछ ऐसी
अनुभूति करने लगते है कि खास पति महोदय की पत्नी का प्रेम कुछ कम हो गया है।
वस्तुतः ऐसा है नहीं तथापि संतान स्वाभाविक रूप में प्रेम-विभाजन का कारण होती है।
माॅं का वात्सल्य
जब पराकाष्ठा पर पहुॅंचने लगता है तो पति की उपेक्षा की संभावना हो सकती है। ऐसे
अवसर पर भी पत्नी को विशेष सतर्कता से संतुलन स्ािापित करने की आवश्यकता होती है।
पति को यह आभास नहीं होना चाहिए कि उसके प्रति अब पत्नी के प्रेम में कुछ कमी आई
है। संतान के प्रति पिता का भी तो प्रेम होता है, उसकी भी संतति है। एक और महत्त्वपूर्ण बात
दांपत्य जीवन में संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है, जहाॅं कहीं
गत्यावरोध होता है, तो उसकी
प्रतिक्रिया होती है। बर्तन आपस में टकराने पर आवाज करते हैं। नीड़ों के समीप कलरव
होता है, इसी प्रकार
पति-पत्नी की स्वाभाविक रूप से कभी-कभी किसी भी विषय में मतभेद हो सकता है। ऐसी
स्थिति में जब कभी उत्तेजना अथवा आवेश का जन्म हो तो उसे एकांत में ही अभिव्यक्ति
करना श्रेयस्कर है। आपसी मतभेद के मनोमालिन्य को दूसरे के सामने प्रकट करने से अहं
को ठेस पहुॅंचती है। अकेले में डाॅंट-डपट, पुचकार-फटकार, प्रेम से और क्रोध विज्ञापित नहीं हो पाता, जिससे वह पड़ोस
में अथवा मोहल्ले में चर्चा का विषय नहीं बनता। आपसी मनोमालिन्य का विज्ञापन कटुता
एवं मनोगुत्थियों को बढ़ाता है। मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जो बात किसी व्यक्ति से
मनवाना चाहते हों, यदि दोस्तों अथवा
भीड़ के बीच है तो उसका अहं गलत बात की भी पैरवी करेगा अर्थात् आड़े आएगा, किन्तु उसी बात
को अकेले में समझा दो तो अहं की तुष्टि हो जाती है और संतुलन बिगड़ने से बच जाता
है। असंतुलन प्रत्येक स्थिति में अलाभकर है। विशेषकर दांपतय जीवन के लिए तो यह
अभिशाप कहा जा सकता है।
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