Sunday, September 7, 2014

जीवन का सत्य और सार्थकता

            युवराज भद्रबाहु अपने समय के सभी युवकों में सर्वश्रेष्ठ, सुन्दर और सुगठित काया का स्वामी था। उसे अपनी सुन्दर काया और अतुल रूप यौवन का गर्व भी था। इस गर्व के कारण वह अन्य राजकुमारों के सामने दर्पभरे वचन भी बोलता रहता था। एक दिन युवराज महामंत्री के पुत्र सुकेशी के साथ बजरा से बाहर सरिता के तट पर भ्रमण कर रहा था। भ्रमण करते हुए युवराज और मंत्री-पुत्र नगर से कुछ दूर चले गए।
            एक स्थान पर, जहाॅं सरिता के दूसरे तट पर श्मशान था, कुछ लोग शव दाह कर रहे थे। युवराज ने मंत्री-पुत्र से पूछा -‘‘वहाॅं क्या हो रहा है?’’
            ‘‘वहाॅं खड़े लोगों का कोई स्नेही जन मर गया है।’’ सुकेशी ने कहा- ‘‘वे लोग उसके मृतशरीर का दाह-संस्कार कर रहे हैं।’’
            ’’अवश्य ही वह कोई कुरूप व्यक्ति होगा।’’ भद्रबाहु यहाॅं भी दर्प भरी टिप्पणी किए बिना नहीं रह सका। ‘‘यदि वह सुन्दर होता तो कोई क्यों जलाना चाहता। अपने पास नहीं रखता।’’
            ‘‘नहीं! ऐसी बात नहीं है, शरीर सुन्दर हो या असुन्दर, मर जाने पर सभी शरीर सड़ने-गलने लगते हैं। अतः उन शरीरों को जला देना पड़ता है।’’ सुकेशी ने कहा।
            यह बात युवराज के जाने किस मर्मस्थल को स्पर्श कर गई कि उसे अपने रूप, सौन्दर्य और यौवन का दर्प टूटे हुए काॅंच के टुकड़ों की तरह बिखर गया प्रतीत होने लगा और वह उदास रहने लगा। उदासी ने उसे इस बुरी तरह आ घेरा कि उसका सुन्दर चेहरा म्लान दिखाई पड़ने लगा। राजा ने अनेक प्रकार युवराज की उदासी और म्लानता का कारण जानना तथा उसे दूर करना चाहा, पर कोई परिणाम नहीं निकला।
            युवराज को इस प्रकार चिंतित और उदास देखकर मंत्री-पुत्र सुकेशी भी व्यथित हुआ। वह भद्रबाहु को हर तरह से बहलाने का प्रयत्न करता, पर युवराज के मुख परछाई रहने वाली म्लानता मिटती ही नहीं थी। राजगुरु कालाचार्य को एक विधि सुझी और वे भद्रबाहु को अपने गुरु महाचार्य के पास ले गए।
            सिद्धयोगी महाचार्य ने अपनी अंतर्दृष्टि से भद्रबाहु की मनोव्यथा, खिन्नता का कारण जान लिया और कहा- ‘‘भद्र! तुम इस शरीर के अंतिम परिणाम की चिन्ता करते हो।’’
            लगा किसी ने दुःखती रग को पहचान लिया हो और भद्रबाहु ने अपनी सारी व्यथा उॅंड़ेल दी। महाचार्य ने कहा- ‘‘अच्छा बताओ! आज तुम भवन के स्वामी हो। उस भवन में निवास करते हो। कल को वह भवन रहने योग्य नहीं रह जाता तो उस भवन को छोड़कर अन्य भवन में जाओगे अथवा नहीं।’’
            ‘‘सो तो जाना ही पड़ेगा महात्मन!’’ भद्रबाहु ने कहा। कालाचार्य बोले- ‘‘इसके बाद वह भवन गिर जाता है या उसमें आग लग जाती है तो इससे तुम्हारा क्या बिगड़ा?’’
            ‘‘कुछ नहीं गुरुदेव।’’
            ‘‘वही नियम शरीर के लिए भी लागू होता है। इसमें निवास करने वाली आत्मा के लिए जब तक यह रहने योग्य है, तभी तक यह सुन्दर है। जराजीर्ण हो जाने पर आत्मा द्वारा इसका त्याग और इसका नाश स्वाभाविक ही है। शरीर नहीं, सुन्दर तो वह आत्मतत्त्व है, जिसके कारण इसकी प्रतिष्ठा है। इसलिए आत्मा के प्रीत्यर्थ, उसके हित व विकास के लिए शरीर को एक उपकरण मात्र समझो। उसके लिए चिंतित मत होओ।’’

            इन वचनों ने भद्रबाहु के ज्ञानचक्षु खोल दिए और उसने निश्चय किया कि वह शरीर के गर्व की अपेक्षा आत्मा की महिमा को समझकर जीवन सार्थकता की सिद्धि के लिए ही प्रयत्नशील रहेगा।

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