एकनाथ जी महाराज श्राद्धकर्म कर
रहे थे। उनके यहाॅं स्वादिष्ट व्यंजन बन रहे थे। भिखमंगे लोक उनके द्वार से गुजरे।
उन्हें बड़ी लिज्जतदार खुशबू आई। वे आपस में चर्चा करने लगेः ”आज तो श्राद्ध है... खूब माल उड़ेगा।“
दूसरे ने कहाः ”यह भोजन तो पहले ब्राह्मणों को खिलाएॅंगे। अपने को तो बचे-खुचे जूठे टुकड़े ही
मिलेंगे।“
एकनाथ जी ने सुन लिया। उन्होंने
अपनी धर्मपत्नी गिरजाबाई से कहाः ”ब्राह्मणों को तो भरपेट बहुत लोग खिलाते हैं। इन लोगों में भी तो
ब्रह्म-परमात्मा विराज रहा है। इन्होंने कभी खानदानी ढंग से भरपेट स्वादिष्ट भोजन
नहीं किया होगा। इन्हींको आज खिला दें। ब्राह्मणों के लिए दूसरा बना दोगी न? अभी तो समय है।“
गिरजाबाई बोलीः”हाॅं हाॅं पतिदेव! इसमें संकोच से क्यों पूछते
हैं?“
गिरजाबाई सोचती हैं किः ‘मेरी सेवा में जरूर कोई कमी होगी, तभी स्वामी को मुझे सेवा सौंपने में संकोच हो
रहा है।’
अगर स्वामी सेवक से संकुचित होकर
कोई काम करवा रहे हैं तो यह सेवक के समर्पण की कमी है। जैसे कोई अपने हाथ-पैर से
निश्चिन्त होकर काम लेने लग जाए तो सेवक का परम कल्याण हो गया समझना।
एकनाथ जी ने कहाः ”...तो इनको खिला दें।
उन भिखमंगों में परमात्मा को देखने
वाले दम्पती ने उन्हें खिला दिया। इसके बाद नहा-धोकर गिरजाबाई ने फिर से भोजन
बनाना प्रारम्भ कर दिया। अभी दस ही तो बजे थे मगर सारे गाॅंव में खबर फेल गई किः
जो भोजन ब्राह्मणों के लिए बना था वह भिखमंगों को खिला दिया गया। गिरजाबाई फिर से
भोजन बना रही है।’
सब लोग अपने-अपने विचार के होते
हैं। जो उद्दंड ब्राह्मण थे उन्होंने लोगों को भड़काया किः ”यह ब्राह्मणों का घोर अपमान है। श्राद्ध के लिए बनाया
गया भोजन म्लेच्छ लोगों को खिला दिया गया जो कि नहाते-धोते नहीं, मैले कपड़े पहनते हैं, शरीर से बदबू आती है... और हमारे लिए भोजन अब
बनेगा? हम जूठन खाएॅंगे? पहले वे खाएॅं और बाद में हम खाएॅंगे? हम अपने इस अपमान का बदला लेंगे।“
तत्काल ब्राह्मणों की आपातकालीन
बैठक बुलाई गई। पूरा गाॅंव एक तरफ हो गया। निर्णय लिया गया किः ”एकनाथ जी के यहाॅं श्राद्ध कर्म में कोई नहीं
जाएगा, भोजन करने कोई नहीं जाएगा ताकि इनके पितर नर्क
में पड़ें और इनका कुल बर्बाद हो।“
एकनाथ जी के घर के द्वार पर लट्ठधारी
दो ब्राह्मण युवक खड़े कर दिए गए।
इधर गिरजाबाई ने भोजन तैयार कर
दिया। एकनाथ जी ने देखा कि ये लोग किसी को आने देने वाले नहीं हैं।...तो क्या किया
जाए? जो ब्राह्मण नहीं आ रहे थे, उनकी एक-दो पीढ़ी में पिता, पितामह, दादा, परदादा आदि जो भी थे, एकनाथ जी महाराज ने अपनी संकल्पशक्ति, योगशक्ति का उपयोग करके सबका आवाहन किया। सब
प्रकट हो गए।
”क्या आज्ञा है, महाराज!“
एकनाथ जी बोलेः ”बैठिए ब्राह्मणदेव! आप इसी गाॅंव के ब्राह्मण
हैं। आज मेरे यहाॅं भोजन कीजिए।“
गाॅंव के ब्राह्मणों के पितरों की
पंक्ति बैठी भोजन करने। हस्तप्रक्षालन, आचमन आदि पर गाये जाने वाले श्लोकों से एकनाथ जी का आॅंगन गूॅंज उठा। जो दो
ब्राह्मण लट्ठ लेकर बाहर खड़े थे वे आवाज सुनकर चैंके! उन्होंने सोचाः ”हमने तो किसी ब्राह्मण को अंदर जाने नहीं दिया।“ दरवाजे की दरार से भीतर देखा तो वे दंग रह गए!
अंदर तो ब्राह्मणों की लम्बी पंक्ति लगी है... भोजन हो रहा है!
जब उन्होंने ध्यान से देखा तो पता
चला किः ”अरे! यह क्या? ये तो मेरे दादा हैं! वे मेरे नाना! ये तो उसके चाचा! वे उसके परदादा!“
दोनों भागे गाॅंव के ब्राह्मणों को
खबर करने। उन्होंने कहाः ”हमारे और तुम्हारे बाप-दादा, परदादा, नाना, चाचा इत्यादि सब पितरलोक से उधर आ गए हैं। एकनाथ
जी के आॅंगन में श्राद्धकर्म करवाकर अब भोजन पा रहे हैं।“
गाॅंव के सब लोग भागते हुए आए
एकनाथ जी के यहाॅं। तब तक तो सब पितर भोजन करके विदा हो रहे थे। एकनाथजी उन्हें
विदाई दे रहे थे। गाॅंव के ब्राह्मण देखते ही रह गए! आखिर उन्होंने एकनाथजी को हाथ
जोड़े और बोलेः ”महाराज! हमने आपको नहीं पहचाना। हमें माफ कर दो।“
इस प्रकार गाॅंव के ब्राह्मणों एवं
एकनाथ जी के बीच समझौता हो गया।
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