हिमालय में
रहकर वर्षों की अखंड तपस्या सम्पन्न कर संत शांतिदेव सविकल्प समाधि की अवस्था से
अभी-अभी बाहर निकले थे। समाधि की चरम व गहन अवस्था में पहुँचकर उनकी आत्मा
ब्रह्मज्ञान की ज्योति से जगमगा चुकी थी। उनकी आत्मा में परमात्मा का प्रकाश,
उतर आया था और उनके हृदयसागर में करुणा, प्रेम,
क्षमा सत्य आदि ईश्वरीय गुणों की ऊँची-ऊँची लहरे उठ रही थीं और उन
ऊँची-ऊँची लहरों के बीच बैठे संत शांतिदेव मानो सम्पूर्ण सृष्टि, सम्पूर्ण ब्रह्मांड कर आलिंगन कर रहे थे।
वे अपने
शरीररूपी पिंड में ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड का दिग्दर्शन कर रहे थे और उससे निस्सृत
दिव्य एवं ईश्वरीय आनंद का आत्मिक अनुभूति कर रहे थे। अपने खुले हुए नेत्रों से वे
ऊँचे नीले गगन को निहार रहे थे और उसी नीले गगन में चमकते, जगमगाते
सूर्य, चंद्र, तारे आदि सबको अपने
अंतस् के आकाश में चमकने, दमकने की प्रत्यक्ष अनुभूति कर रहे
थे। उनके रोम-रोम में आनंद भरी पुलकन की एक दिव्य सिहरन हुए जा रही थी।
इसी आत्मिक
भावदशा में घंटों बैठे-बैठे वे इस जगत को साक्षीभाव से, द्रष्टाभाव
से निहार रहे थे। इस जगत के सम्पूर्ण प्राणियों को स्नेह व करुणाभरी दृष्टि से देख
रहे थे। जगत के कल्याण हेतु उनके मन में दिव्य प्रेरणायें कहीं ऊँचे लोक से उतर
रही थीं। वे सोच रहे थ कि जगत के लोगों के कल्याण हेतु उन्हें अवश्य ही कुछ करना
चाहिए। शायद उनके लिए यह ईश्वरीय संदेश भी था और प्रेरणा भी।
इसी दिव्य
संदेश व प्रेरणा को हृदय में धारण किए हुए वे हिमालय से नीचे उतरे और अगले ही दिन
जन-जन के बीच जाकर ज्ञान का अलख जगाने को निकल पड़े। कई तीर्थों की यात्रायें करते
हुए, भ्रमण करते हुए वे जन-जन के बीच जाकर उन पर परमात्मा के
अमृततुल्य ज्ञान का अभिसिंचन करने लगे। चलते-चलते वे गंगा तट पर पहुँचे और फिर
वहीं एक छोटी-सी कुटिया बनाकर रहने लगे। अपनी नियमित तप साधना से निवृत्त होकर वे
अपना शेष समय प्रायः लोगों को ईश्वर का अमृतमय उपदेश, संदेश
देने में ही बिताया करते थे।
उस समय
सोमवती अमावस्या होने के कारण गंगा तट पर लोगों की बड़ी भारी भीड़ उमड़ आयी थी। लोग
गंगा स्नान के बाद स्वतः ही संतप्रवर की कुटिया के पास एकत्रित होने लगे थे।
देखते-ही-देखते वहाँ हजारों लोग जमा हो गए। सबने संतप्रवर का अभिवादन किया एवं
वहीं स्थान ग्रहण किया। वे अभी भी मौन थे, कि तभी उस भीड़ में
बैठे एक श्रद्धालु व्यक्ति ने संतप्रवर के चरणों में अपना प्रणाम निवेदित करते हुए
कहा- ‘‘भगवन्! हम सब अज्ञानी हैं, हमें
शास्त्रों का ज्ञान नहीं है। हम गृहस्थ हैं और गृहस्थी के कार्यों में ही संलग्न
रहते हैं। क्या कोई ऐसा मार्ग है, उपाय है, जिसे अपनाकर हम जैसे सामान्य लोग भी ईश्वरप्राप्ति जैसे परम लक्ष्य को पा
सकें? भगवन्! अज्ञान पड़े हुए हम जैसे लोगों के संशय का
निवारण आप जैसे सर्वगुणसम्पन्न संत व दुर्लभ महात्मा ही कर सकते हैं। इसलिए हे
भगवन्! आप हम सब का मार्गदर्शन करें।
संप्रवर
बोले- ‘‘वत्स! यह सम्पूर्ण सृष्टि साक्षात् ईश्वर की ही
अभिव्यक्ति है। इस सृष्टि के रूप में, संसार के रूप में
परमपिता परमेश्वर स्वयं को ही अभिव्यक्त कर रहे हैं। इसलिए इस जगत को ईश्वर का रूप
मानकर इसकी सेवा करना साक्षात् ईश्वर की ही सेवा है। इस सृष्टि में तुम्हारे
द्वारा किया गया हर कर्म ही ईश्वर के चरणों में अर्पित हो रही पूजन सामग्री है।
इसलिए तुम्हारे द्वारा किए गए प्रत्येक शुभ व पुण्यकर्म ही ईश्वर की सच्ची पूजा
है।
वे आगे
बोले- ‘‘ईश्वर ने मानव जीवन के रूप में हम सबको एक बहुमूल्य
उपहार दिया है। हमारे पास जो भी समय है, श्रम है, साधन है, प्रतिभा है वह स्वयं के पेट, परिवार प प्रजनन की संकीर्ण परिधि में रहकर, उसे
समाप्त कर देने के लिए नहीं है। ईश्वर द्वारा प्रदत्त ये सारे साधन हमें इस सृष्टि
की सेवा के लिए मिले हैं, जन-जन की सेवा के लिए मिले हैं। इस
संसार में सेवा के बीज बोकर हम औरों के साथ-साथ स्वयं अपना भी भला कर सकते हैं;
क्योंकि हमारे द्वारा किए गए सेवा के कार्यों से हमारे चित्त की
शुद्धि होती है, जिसमें हमारे लिए एक ओर तो हमारे द्वारा किए
गए शुभ कर्मों से जो हमें पुण्य प्राप्त होता है, उससे हमें
भौतिक सुख-समृद्धि भी प्राप्त होती है।’’
संत आगे
बोले- ‘‘द्वितीय सूत्र यह है कि तुम सब हमेशा अपनी मृत्यु का
स्मरण रखो। यह जीवन क्षणभंगुर है। मृत्यु का स्मरण रखने से तुम इस संसार के प्रति
होने वाली आसक्ति के बंधन से मुक्त रह सकोगे।’’ तृतीय
महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है- ‘‘तुम्हें इस बात का हमेशा स्मरण
रहना चाहिए कि ईश्वर सर्वत्र है, सर्वव्यापी है, न्यायकारी है। जो ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, न्यायकारी
है; हम हमारे द्वारा किए जाने वाले हर कर्म का साक्षी है। इस
बात का स्मरण रहने से तुम सदैव बुरे, अशुभ व पापकर्म करने से
बचे रहोगे और हमेशा शुभ कर्म करते रहने से तुम्हें हमेशा शुभ फल, मधुर फल ही प्राप्त होंगे।’’
संत ने आगे
कहा, ‘‘चतुर्थ महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है कि सम्पूर्ण
प्राणियों के प्रति कोमलता का व्यवहार करना, व्यवहार में सरल
व निश्छल होना, मीठे वचन बोलना, आलस्य-प्रमाद
व निंदा चुगली से दूर रहना, देवताओं, पितरों
और अतिथियों को उनका भाग देना, सात्त्विक आहार ग्रहण करना,
वीतराग पुरुषों का संग करना, उन्हें गुरु रूप
में वरण करना, उनकी आज्ञापालन करना एवं नित्य-निरंतर
पुण्यकर्मों में लगे रहना आदि निश्चित ही कल्याण के मार्ग हैं। इनसे उद्देश्य की
प्राप्ति होने के कुछ संशय नहीं है।’’ वत्स! पंचम सूत्र यह
है कि तुम सब हमेशा शास्त्रों का स्वाध्याय करना। शास्त्रों का स्वाध्याय करने से
तुममें सदा शुभ विचारों, प्रेरणाओं व संकल्पों का जागरण होगा;
जिसके प्रभाव में रहकर तुम सदा सच्चाई के मार्ग पर चल सकोगे और शुभ
कर्म कर सकोगे। तुम पर कभी बुरे व अशुभ विचार हावी नहीं हो सकेंगे।
संतप्रवर के इस अमृतमय संदेश को श्रवण कर वहाँ उपस्थित हजारों लोग स्वयं को धन्य-धन्य महसूस करने लगे। आज उन्हें लग रहा था कि आज जल स्नान के साथ-साथ ब्रह्मोपदेश पाकर सचमुच ही अमृत स्नान भी कर लिया है। संतप्रवर की दिव्य अमृतवाणी को हृदय में धारण किए हुए व उसे अपने जीवन में जीने की सत्प्रेरणा लिए हुए भी श्रद्धालु भक्तगण वहाँ से अपने-अपने गंतव्य को प्रस्थान हुए।
अखण्ड ज्योति जून-2020
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