Saturday, August 18, 2012

आयुर्वेद का मूलाधार - 2


वातवर्धक
- पंचतारा होटल संस्कृति (जिसमें अनावश्यक रूप में स्वस्थवृत विरुद्ध खान-पान, कामोत्तेजक नाच-गाने, मदिरापान, रात्रि जागरण की विशेष परिपाटी का अपनाना।
- उपरोक्त कारणों से वात प्रकुपित होती है अत: इन वातजनक कारणों से यथासंभव बचना चाहिए। इसके अतिरिक्त कुछ अवस्थाओं में वायु का स्वाभाविक प्रकोप भी होता है।
वायु की कुदरती प्रकोप या बढ़ना
वायु प्रकोप का समय
-    दोपहर (2 से 6 बजे तक) और पिछली रात में (2 से 6 बजे तक)
-    भोजन पच जाने के बाद।
-    ऋतु - वर्षा ऋतु में वायु का प्रकोप होता है। (वात ग्रीष्म ऋतु में संचित और शरद ऋतु में शान्त रहता है।)
-     इसके अतिरिक्त बादल होने पर, आंधी या पूर्वी हवा चलने पर, ऋतु सन्धिकाल में तथा ठंडा-सूखा वातावरण में वायु की वृद्धि होती है।
-       अवस्था - वृद्धावस्था में वात की अधिकता रहती है।
पित्त प्रकोप
पित्त गर्म, पतला, पीला, तनिक चिकना, दस्त कराने वाला, स्वाद में चरपरा, कड़वा, पाक होने पर खट्टा तथा सत्तोगुण प्रधान होता है। पित्त पांच प्रकार का माना गया है - पाचक, रंजक, साधक, आलोचक, भ्राजक पित्त ।
पित्त-प्रकोप के लक्षण
- शरीर में दाह (जलन)/आंखों में लालिमा और जलन। हृदय, पेट, अन्नतालिका, गले में जलन प्रतीत होना।
- गर्मी का ज्यादा अनुभव होना।
- त्वचा का गर्म रहना, त्वचा पर फोड़े-फुंसियों का निकालना और पकना।
- त्वचा, मूल, मूत्र, नेत्र, आदि का पीला होना।
- कंठ सूखना, कंठ में जलन, प्यास का अधिक लगना।
- मुंह का स्वाद कड़वा होना, कभी-कभी खट्टा होना।
- अम्लता का बढ़ना, खट्टी डकारें, गले में खट्टा-चरपरा पानी आना।
- उल्टी जैसा अनुभव होना या जी मिचलाना, उल्टी के साथ सिरदर्द होना।
- पतले दस्त होना।                         
पित्त प्रकोप
- थोड़े ही परिश्रम से अधिक पसीना होना
- निद्रानाश या नींद का कम आना।
- फुदकती नाड़ी (मेंढक के समान गतिवाली)।
- पित्तप्रकोपजनित रोगों का होना, जैसे - अम्लता बढ़ना, पतले दस्त होना, अंगों में जलन होना, नेत्र-विकार, पित्ती, उछलना, पीलिया, पित्त-ज्वर, रक्तस्त्राव होना आदि।
- इसके विपरीत, पित्त की कमी या पित्त क्षय होने पर शरीर की गर्मी कम होना, मंदाग्नि, शीतलता का अनुभव, शरीर का तेज-नाश या कांतिहीनता जैसी व्याधियां उत्पन्न होती है और प्राय: वायुप्रकोप तथा कफप्रकोप दोनों से मिलते-जुलते लक्षण उत्पन्न होते हैं।
अ. पित्तवर्धक
- हाथी, घोड़े आदि की अधिक सवारी करना
- मल, मूत्र, आदि वेगों को रोकना ।
- मानसिक विकार यथा क्रोध, ईर्षा , डर, शोक, चिन्ता की अधिकता।
- ब्रह्मचर्य का नाश।
पित्त की कुदरती प्रकोप या बढ़ना
पित्त प्रकोप का समय
- दोपहर (मध्यान्ह काल) और मध्य रात्रि में।
- गर्मी का समय ।
- भोजन पचते समय अर्थात खाना खाने के दो घंटे बाद।
- शरद ऋतु में पित्त का प्रकोप होता है। (पित्त वर्षा ऋतु में संचित और हेमन्त ऋतु में शान्त रहता है।)
- अन्य - गर्मी में उष्ण पदार्थो के सेवन से ।
पित्तनाशक/पित्तशामक
का पानी या मुनक्का-सौंफ का काढ़ा, नारियल (डाभ) का पानी, सब्जियों के सूप, धनिये का शरबत, फलों के रस जैसे अनार-मौसमी का रस, उषापान आदि।
औषधियां: धनियां (खुश्क दाना), सौंफ, लौंग, जीरा, हल्दी, इलायची, कपूर।
आंवला, कुटकी, पित्तपड़ा, चन्दन, चिरायता, गिलोय, गोखरू, घृतकुमारी, शतावरी, गुलाब के फूल, इसबगोल की भूसी, मिश्री मिला त्रिफला चूर्ण। शांतिदायक व शीतलता प्रदायक सुगन्ध जैसे-चन्दन, चमेली, गुलाब, हिना, खस की खुशबू। झरनों का पानी।
पित्तजनक कारणों (कालम में दिए हुए) से बचे।
विशेष पित्तनाशक उपाय
- नारियल तेल या घी की मालिश।
- चांदनी रात में विश्राम।
- चंदन का माथे, गले और शरीर पर लेप।
- शीतल हवा तथा शीतल जल का सेवन।
- क्षमा, सन्तोष धारण करना व मधुर बोलना।
कफ प्रकोप
         कफ भारी, चिकना, गिलगिला, शीतल, स्वाद में मधुर, लवण, विपाक वाला और तमोगुण प्रधान होता है। कफ के पांच प्रकार है - क्लेदन कफ, अवलम्बन कफ, रसन कफ, स्नेहन कफ, श्लेष्मा कफ।
कफ प्रयोग के लक्षण-
- शरीर भारी, शीतल, चिकना और सफेद होना।
- अंगों में शिथिलता व थकावट का अनुभव होना। आलस्य का बना रहना ।
- ठंड अधिक लगना ।
- त्वचा चिकनी व पानी में भिगी हुई सी रहना।
- मुंह का स्वाद मीठा और चिकना होना। मुंह से लार गिरना।
- भूख का कम लगना। अरुचि व मंदाग्नि।
- मल, मूत्र, नेत्र ओर सारे शरीर का सफेद पड़ जाना। मल में चिकनापन और आंव का आना।
कफवर्धक-
कफ प्रकोप के कारण
- मीठे, खट्टे, नमकीन पदार्थो का अति सेवन।
- शीतल, चिकने भारी गाढ़े और गरिष्ठ पदार्थो का सेवन।
- अधिक मीठा, चिकना व ठंडा-बासी खाना।
- विरुद्ध आहार करना।
- भोजन के उपर भोजन करने या अजीर्ण में भोजन करना।
- घी, दूध, शक्कर और भारी पदार्थो का सेवन।
- दिन में ज्यादा सोना।
- परिश्रम या व्यायाम न करना। बैठे-बैठे सुविधापूर्ण व आरामतलब जीवन जीना।
- नमी वाले, दलदली, जलाशय और समुद्र के समीप वाले स्थानों में रहना।
कफवर्धक आहार का सेवन
जैसे - नए गेहूं की रोटी, चावल, जड़द, तिल, जैतून तेल, बादाम तेल । घी, मक्खन, पनीर, अधिक दही, दही की।
कफनाशक/कफनाशक
कफनाशक उपाय
-         कड़वे, चरपरे, कसैले रसयुक्त भोजन।
-         रूक्ष, हल्के, उष्ण पदार्थो का सेवन।
-         मेदोहर (मोटापा घटाने वाले) तथा कफनाशक औषधियों का सेवन जैसे त्रिफला-सेवन।
कफनाशक खाद्य-वस्तुएं:
पुराना गेहूं, जौ की रोटी, जौ, मूंग, मोठ, मसूर, चना, कुलथी, अलसी, तेल, सरसों तेल। बकरी का दूध, छाछ। नया शहद। बथुआ, टिण्डे, करेला, गाजर, खीरा, लहसुन, प्याज, अदरख, मूली का तेल में भुना शाक, सरसों के पतों का शाक। अनार, सेब, तरबूज, बेल, सूखे मेवे।
औषधियां - सौंठ, पीपर, काली मिर्च, हल्दी, लौंग, दालचीनी, मैथीदाना, अजवायन, सौंफ, जायफल, हींग।
बहेड़ा, हरड़, मुलेठी, वासा (अडूसा), तुलसी, अमलतास, नीम।
कफ प्रकोप
- नींद का अधिक आना ।
- नाड़ी मंदगति (कबूतर की चाल के समान) होना।
- कफ प्रकोपजनित रोगों का होना, जैसे बार-बार जुकाम होना, कंठ में कफ बढ जाना और बलराम का अधिक निकलना, मंदाग्नि/अतिसार जैसे उदर संबंधी रोग होना, बार-बार आंव (कच्चा मल) का निकलना, आदि।
इसके विपरित कफ कम होने या कफ-क्षय होने पर शरीर का रूखा होना, सिर में खालीपन, अधिक प्यास, दुर्बलता, जोड़ों की शिथिलता, निद्रानाश आदि लक्षण आदि लक्षण उत्पन्न होकर कफ के स्वाभाविक कार्यो में बाधा उत्पन्न होती है। कफ कम होने पर प्राय: वात प्रकोप से मिलते-जुलते लक्षण उत्पन्न होते हैं।
कफवर्धक- मलाई, भैंस का दूध, दूध से बनी सभी मिठार्इयां, खीर, केक, आइसक्रीम । चीनी, गन्ने का रस, गन्ने के रससे बने सभी पदार्थ जैसे गुड़, बूरा, बताशा, मिश्री। आलू, अरबी, बैंगन, घीया, तुरई, मटर, पालक, चने का शाक। केला, सिंघाड़ा, अमरूद, सेव, मीठे फल, बादाम, खिचडी।
- मांस, मछली, शराब का सेवन
- ठंडा और बर्फ का पानी पीना।
कफ का कुदरती प्रकोप या बढ़ना
कफ-प्रकोप का समय
- दिन के पहले भाग (प्रात: 6 से 10 बजे तक)
- भोजन करने के तुरन्त बाद।
ऋतु- बसन्त ऋतु में. (कफ शिशिर ऋतु में संचित व ग्रीष्म ऋतु में शान्त रहता है।)
अवस्था - बचपन में ।
अन्य - अजीर्ण में भोजन करने से
- शीतकाल में अधिक शीतल एवं खट्टे पदार्थो के सेवन से ।
कफनाशक/कफशामक
- कफजन्य कारणों (कालम में दिए गए) से बचें।
विशेष कफनाशक उपाय-
- वमन करना। कु×जल, नेति (योग-क्रियाएं) स्वेदन (पसीना लेना)।
- उपवास या अल्पाहार। दिन में एक बार भोजन करना या दो बार हल्का आहार करना। रात को देर से भोजन न करना।
- व्यायाम करना।
- दिन में सोने की आदत छोड़ना
- गर्म अथवा उबला हुआ पानी पीना।
- सर्दी-नमी से बचना। गर्म सा सीलन रहित घर में रहना।
- गर्म पानी से स्नान। धूप स्नान।
- गले में कफ का जमाव होने पर या दर्द होने पर गर्म पानी में नमक डालकर गरारें करना।
- लालच-लोभ की प्रवृति छोड़ना। मोह, भावुकता का परित्याग।  

1 comment:

  1. सारगर्भित बाते कही है आपने

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