मुक्ति बड़ी होनहार लड़की थी। वह अपनी
कक्षा में सदैव प्रथम आती थी और पुरस्कार जीतती थी। यही नहीं उसके सद्व्यवहार के
कारण स्कूल में सभी उससे प्यार करते थे। वह सदैव सच ही बोलती थी। साथियों से
प्यारी बातें करती थी। सबकी सहायता करती थी। यह सब उसके माता-पिता की सीख का
परिणाम था। उसकी माँ सोते समय अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाती थी। उनसे उसे अच्छा
बनने की प्रेरणा मिलती थी। मुक्ति अब चैथी कक्षा में आ गयी थी। वह कक्षा की मानीटर
भी थी। उसकी कक्षा में इस बार बाहर से एक लड़की आयी। उसका नाम पूनम था। पूनम जल्दी
ही मुक्ति की सहेली बन गयी। यों पूनम पढ़ने-लिखने में अधिक होशियार न थी, पर वह रोज नये-नये कपड़े पहनकर आती थी।
साथियों को खूब ही चाट खिलाती थी। इससे बहुत-सी लड़कियाँ उसकी सहेली बन गयी थी।
पूनम के पिता बड़े धनी थे। वे उसे भी बहुत-सा जेब खर्च देते थे और उसे पूनम
अनाप-शनाप चीजों में खर्च करती थी।
यों जेब खर्च तो मुक्ति को भी मिलता था, पर उसकी माँ कहा करती थी-‘बेटी! बाजार की सड़ी-गली चीजें या
चाट-चाकलेट खरीदने में इसे खर्च न करना। कभी-कभी ये चीजें खा लेना, पर रोज की आदत न बनाना।’ अक्सर होता यह था कि जो भी फल या कोई
चीज के लिये बच्चे कहते तो मुक्ति की माँ स्वयं ही बाजार जाकर उसे खरीद लाती या
फिर घर बना लेती। फिर सब मिलकर उसे खाते। मुक्ति की माँ ने उसे एक सुन्दर भालू
वाली गुल्लक लाकर दे दी थी। मुक्ति अपने रोज के पैसे उसमें ले जाकर डाल देती थी।
कभी-कभी वह गुल्लक से पैसे निकालती थी। पूनम का रोज का ही काम था कि खाने की
छुट्टी में वह तरह-तरह की चीजें खाया करती थी। वह अकेली ही नहीं खाती थी, अपनी सहेलियों को भी खिलाती थी। मुक्ति
अपना खाना खा रही होती तो वह जबरदस्ती उसे ले जाती और कहती- ‘मुक्ति! खाना तो घर पर खाते ही है। आओ
आज गोलगप्पे खायेगे।
मुक्ति कहती-‘नहीं! मैं पैसे नहीं लायी हँू।’
‘कोई बात नहीं मैं तुम्हारे पैसे दे
दूँगी।’ पूनम कहती। मुक्ति उसे समझाती कि तुम
मेरे पैसे क्यों दोगी? तो पूनम बोलती कि तुम मेरी सहेली हो न
इसलिये। ‘पर यह सारा खाना बेकार जायेगा।’ मुक्ति कहती। पूनम कहती वह सारा खाना
लेकर रास्ते में कुत्ते को डाल देगी। धीरे-धीरे पूनम के साथ रहकर मुक्ति को भी
बाजार की चीजों में पैसे खर्च करने की आदत बन गयी। कुछ दिन तक तो पूनम ने अपने
पैसों से खिलाया फिर एक दिन बोली--‘क्यों
मुक्ति ! तुम्हें जेब खर्च के लिये पैसे नहीं मिलते।’
‘हाँ मिलते तो हैं।’ मुक्ति ने उत्तर दिया।
‘तो फिर तुम रोज-रोज पैसे क्यों नहीं
लाती हो?’ पूनम ने पूछा। ‘मैं उन्हें जोड़ती रहती हँू। उनसे कभी
कोई चीज खरीद लेती हँू कभी कोई। अबकी बार अपने छोटे भाई के जन्मदिन पर उछलने वाला
मेंढक खरीदूँगी।’ ‘ओह मुक्ति! तुम किस चक्कर में फँसी हो।’ रोज-रोज चीज खाने में जो मजा आता है वह
पैसे जोड़ने में कहाँ आता है।’ पूनम
ने सबक दिया। पूनम की संगति से धीरे-धीरे मुक्ति भी चटोरी बनने लगी। अब वह रोज
पैसे लाने लगी। घर से लाया खाना वह किसी लड़की को दे देती तो कभी कुत्ते के आगे
डाल देती। घर की चीजें अब उसे नीरस लगने लगीं। एक दिन मुक्ति की गुल्लक के भी सारे
पैसे खर्च हो गये। वह सोच रही थी कि आज मैं चाकलेट कैसे खरीदूँगी? तभी उसकी निगाह मेज पर रखे माँ के पर्स
पर पड़ी। मुक्ति ने एक बार सतर्क निगाहों से चारों ओर देखा और फिर झट से पाँच
रूपये का एक नोट निकाल लिया।
पर्स में काफी रुपये थे। अतएव मुक्ति
की यह चोरी किसी की पकड़ में न आयी। अब तो मुक्ति और भी निर्भीक बन गयी। कभी वह
माँ के पर्स से पैसे निकालती तो कभी पिता की जेब से। माता-पिता परेशान थे कि आखिर
रुपये कौन चुरा ले जाता है। उनका सन्देह महरी पर गया, पर महरी तो कमरे के अन्दर आती तक न थी।
वह बाहर से ही काम करके लौट जाती थी। दूसरे जब महरी काम करती थी तो दादी अम्मा
बाहर बरामदे में बैठी उसकी निगरानी करती थीं। मुक्ति के माता-पिता समझ नहीं पर रहे
थे कि रुपये आखिर कहाँ जाते है? मुक्ति
और उसके भाई-बहिनों से कुछ माता-पिता पूछते तो वे भी साफ मना ही कर देते थे कि
हमने तो रुपये नहीं देखे।
एक दिन घर में बहुत से मेहमान आये थे।
मुक्ति की माँ ने उसके पिताजी से कहा कि वह मेहमानों के खाने के लिये बाजार से
चीजें ले आयें। पिताजी ने जल्दी से पेण्ट बदली, थैला
उठाया और बाजार चल पड़े। बाजार में मुक्ति के पिताजी ने पहले बहुत सारे फल खरीदे।
उन्होंने रुपये देने के लिये जेब से पर्स निकाला। पर यह क्या? वहाँ तो एक भी रुपया नहीं था। कुछ पैसे
मात्र पड़े थे, पर आज सुबह ही तो उन्होंने पाँच-पाँच
के दो नोट रखे थे। अब तो उनका सर चकरा गया कि पैसे आखिर गये तो कहाँ गये? किसने कब निकाल लिये? फल वाले ने मुक्ति के पिताजी को बड़ा
अपमानित किया। कहा-‘बाबूजी! पहले घर पर ही अपना पर्स देख
लिया कीजिये, फिर बाजार आया कीजिये। यदि खरीदने की
सामथ्र्य नहीं है तो व्यर्थ में किसी भले आदमी को तंग न कीजिये।’
मुक्ति के पिताजी अपमान का घूँट पीकर
रह गये। अपना-सा मुँह लेकर वे घर की ओर बढ़ने लगे। उन्होंने समझा कि मुक्ति की माँ
ने बिना कहे पैसे निकाल लिये हंै, इसलिये
आते ही वे उन पर झल्लाने लगे। पर मुक्ति की माँ ने तो पैसे निकाले नहीं थे।
उन्होंने भी कह दिय कि मैंने तो आपका पर्स छुआ तक नहीं हैं। घर में जो कुछ भी था
वह खिला-पिलाकर मेहमानों को विदा किया गया। रात के समय प्रतिदिन की भाँति घर के
सभी सदस्य मिल-जुलकर बैठे। मुक्ति के पिताजी ने बताया कि किस प्रकार आज उन्हें फल
वाले से अपमानित होना पड़ा था। उसने किस प्रकार से उन्हें लताडें़ लगायी थीं। पिता
के मँुह से यह सब सुनकर मुक्ति का बाल-मन बिलख उठा। वह सोचने लगी कि मेरे कारण ही
पिताजी को इतना अपमानित होना पड़ा है। वह झिझकते हुए बोली- ‘पिताजी! मुझे माफ कर दीजिये। मंैने ही
आज आपकी जेब से पैसे चुराये थे।’
माँ मुक्ति को डाँटने वाली थी, पर पिताजी ने उन्हें मना कर दिया।
उन्होंने मुक्ति से सारी बातें विस्तार से पूछीं कि किस प्रकार से उसे चोरी करने
की आदत पड़ी है? मुक्ति ने सच-सच सब बता दिया। उसने
अपराध स्वीकार करते हुए कहा कि पूनम के साथ रहकर ही उसे चटोरेपन की लत लगी है। इसी
के कारण उसने चोरी करना सीखा है। मुक्ति के पिताजी बोले- ‘जीभ जब चटोरेपन की आदी बन जाती है तब
हमारा स्वास्थ्य तो खराब होता ही है। साथ ही हम में अनेक बुरी आदतें भी आ जाती
हैं। तुम देख ही रही हो कि अपनी इस आदत के कारण तुमने चोरी करना सीखा। चोरी को न
खुलने देने के लिये झूठ बोलना सीखा। इस प्रकार कितनी ही गन्दी आदतें तुम में आ गयी
है। तुम गन्दी बच्ची बन जाओगी तो फिर न हम तुम्हें प्यार करेंगे, न स्कूल में कोई तुमसे बात ही करेगा।’
मुक्ति रोते हुए पिता से लिपट गयी और
बोली-‘पिताजी! अब मैं पूनम के साथ नहीं
रहूँगी। उसी से मैंने ये गन्दी आदतें सीखी है। अब मैं बाजार की चीजों में पैसे
नहीं बिगाडँूगी। सुपारी और चाकलेटों के लिये चोरी नहीं करूँगी। अबकी बार, बस इस बार मुझे माफ कर दीजिये।’ रोती हुई मुक्ति के सिर पर पिता ने हाथ
फिराया और बोले-‘बेटी! हमें विश्वास है कि तुम अच्छी
लड़की बनने की कोशिश भी करोगी। तुम अच्छे काम करते हो तो हमें बड़ी प्रसन्नता होती
है। हमारा सिर गर्व से ऊँचा होता है, पर
तुम्हारे बुरे काम करने पर हम सोचते है कि हमें कुछ नहीं आता जो तुम्हें अच्छा न
बना पाये। तुम बच्चे हमारे जीवन की साधना हो बेटी। तुम्हारे व्यवहार से लोगों को
तुम्हारा नहीं हमारा परिचय मिलता है कि हम कैसे हैं?’ यह कहते-कहते पिता का गला रुँध गया। पिताजी की बात सुनकर मुक्ति
फफक-फफक कर रो उठी। यह आँसू पश्चाताप के आँसू थे। उस दिन से फिर मुक्ति ने चटोरापन, झूठ बोलना और चोरी करना छोड़ दिया। अ
बवह एक ही बात की कोशिश करती है- ‘जैसा
पिताजी चाहते हैं, मैं वैसा ही बनूँगी। इससे उन्हें खुशी
होगी।’
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