ध्यान की पवित्र प्रक्रिया के विषय में भगवान् भोले नाथ माता जगदम्बा से गुरू गीता में कहते है-
आनन्दमानन्दकरं प्रसन्नं ज्ञानस्वरूपं निजबोधयुक्तम्।
योगीन्द्रमीड्यं भवरोगवैद्यं श्रीमद्गुरूंनित्यमहम् नमामि।।
यस्मिन् सृष्टिस्थितिध्वंसनिग्रहानुग्रहात्मकम्।
कृत्यं पच्चविधं शव्श्रद्भासते तं नमाम्यहम्।।
प्रात: शिरसि शुक्लाब्जे द्विनेत्रं द्विभुजं गुरूम्।
वराभययुतं शान्तं स्मरेत्तं नामपूर्वकम्।।
गुरूदेव आनन्दमय रूप है। वे शिष्यों को आनन्द प्रदान करने वाले हैं। वे प्रभु प्रस्न्नमुख एवं ज्ञानमय हैं। वे सदा आत्मबोध में निमग्न रहते है। योगीजन सदा उनकी स्तुति करते है। संसार रूपी रोग के वही एक मात्र वैद्य हैं। मैं उन गुरूदेव का नित्य नमन करता हूँ।। जिनकी चेतना में उत्पत्ति, स्थिति, ध्ंवस, निग्रह एवं अनुग्रह ये पाँच कार्य सदा होते रहते हैं, उन गुरूदेव को मेरा नमन हैं।। इस भाव से गुरूदेव को नमन करते हुए प्रात:काल सहस्त्रादल कमल में शांत, वराभय मुद्रा वाले, कृपा-करूणा रूपी दोनों नेत्रों वाले, रक्षण-पोषण रूपी दो भुजाओं वाले गुरूदेव का नाम सहित स्मरण करना चाहिए।।
गुरूगीता के इन मंत्रों में सद्गुरू स्मरण एवं उनके ध्यान की महिमा है। गुणों के बिना स्मरण एवं रूप के बिना ध्यान आसान नहीं है। इसलिए शिष्यों को अपने गुरूदेव के नाम का स्मरण उनके गुणों के चिन्तन के साथ करना चाहिए। इसी तरह उन प्रभु का ध्यान उनके स्वरूप को याद करते हुए भक्तिपूर्वक करना चाहिए। शिष्य के जीवन में यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहनी चाहिए। ऐसा होते रहने पर शिष्य का अस्तित्व स्वयं ही गुरूदेव की चेतना में घुलता रहता है। जिन्होंने ऐसा किया है या फिर कर रहे है, वे इससे होने वाली अनुभूतियों व उपलब्धियों के स्वाद से परिचित हैं।
ऐसे ही एक सिद्ध तपस्वी हुए है- बाबा माधवदास। गंगा किनारे बसे गाँव वेणुपुर में उन्होंने गहन साधना की। गाँव वाले उनके बारे में बस इतना बता पाते हैं कि बाबा जब गाँव में आए थे, तब उनकी आयु लगभग चालीस साल की रही होगी। सामान के नाम पर उनके पास कुछ खास था नहीं। बस आए और गाँव के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे जम गए। बाद में गाँव वालों ने उनके लिए कुटिया बना दी। बाबा माधव दास की एक ही साधना थी -गुरूभक्ति। इसी ने उन्हें साधना के शिखर तक पहुँचाया था। जब तक उनके गुरूदेव थे, उन्होंने उनकी सेवा की। उनकी आज्ञा का पालन किया। बाद में उनके शरीर छोड़ने पर उन्हीं की आज्ञा से इस गाँव में चले आए।
चर्चा में गाँव वालों को उन्होंने बताया कि उनके गुरूदेव कहा करते थे कि साधु पर भी समाज का ऋण होता है। सो उसे चुकाना चाहिए। क्या ही अच्छा हो कि एक-एक साधु एक-एक गाँव में जाकर ज्ञान की अलख जगाए। गाँव के लोगों को शिक्षा और संस्कार दे। उन्हें आध्यात्मिक जीवन दृष्टि प्रदान करे। अपने गुरू के आदेश के अनुसार वे सदा इन्ही कामों में लगें रहते थे। जब गाँव वाले उनसे पूछते कि वह इतना परिश्रम क्यों करते है? तो वे कहा करते कि गुरू का आदेश मानना ही उनकी सच्ची सेवा होती है। बस, मैंने सारे जीवन उनके आदेश के अनुसार ही जीने का संकल्प लिया है।
बाबा माधव दास वेणुपुर में लोगों से कहा करते थे, श्रद्धा का मतलब है-समर्पण। यानि कि निमित्त मात्र हो जाना। मन में इस अनुभूति को बसा लेना कि मैं नहीं तू। गुरूभक्ति का मतलब है कि हे गुरूदेव अब मैंने स्वयं को समाप्त कर दिया है, अब तुम आओ और मेरे हृदय में विराजमान हो जाओ। अब मैं वैसे ही जीउँगा, जैसे कि तुम जिलाओगे। अब मेरी कोर्इ मरजी नहीं। तुम्हारी मरजी ही मेरी मरजी है। माधवदास जैसा कहते थे, वैसा ही उनका जीवन भी था। उनका कहना था कि शिष्य जिस दिन अपने आप को शव बना लेता है, उसी दिन उनके गुरूदेव उसमें प्रवेश कर उसे शिव बना देते है।
जिस क्षण शिष्य का अस्तित्व मिट जाता है, उसमें सद्गुरू प्रकट हो जाते है। फिर सारी साधनाएँ स्वयं होने लगती है। सभी तप स्वयं होने लगते है। शिष्य को यह बात हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि सत्कर्म एक ही है, जिसे हमने न किया हो, बल्कि हमारे माध्यम से स्वयं गुरूदेव ने किया हो। जो भक्त अहंकार को लेकर जीता है, वह कभी पवित्र नहीं हो सकता। उसके प्रवाह के सान्निध्य में कभी तीर्थ नहीं बन सकते। शिष्य के करने लायक एक ही यज्ञ है-अपने अंह को भस्म कर देना। समझने की बात यह है कि धूप में खड़े होने अथवा भूखे मरने का नाम तपस्या नहीं है, यह तो स्वयं को मिटाने का साहस है। यही तपस्या करना है। शिष्य धर्म को निभाने वाले बाबा माधवदास सारे जीवन यही तप करते रहे। इसी महातप से उनका अस्तित्व जन-जन के लिए वरदान बन गया। पर यदि कोर्इ उनसे उनकी उपलब्धियों की बात करते, तो वे हँस पड़ते और कहते और मैं हूँ ही कहाँ, ये तो गुरूदेव हैं, जो इस शरीर को चला रहे हैं और अपने कर्म कर रहे हैं।
2-सद्गुरू के ध्यान में रमी ऐसी ही एक गुरूकृपा सिद्ध महातपस्विनी माँ ज्योतिर्मयी का कथा प्रसंग बड़ा ही प्रेरक है। माता ज्योतिर्मयी का विवाह अल्पायु में उनके मायके वालों ने कर दिया था; पर देव का आघात उनके पति नहीं रहे। पति के बूढ़े माता-पिता भी इकलौते पुत्र के वियोग की वजह से स्वर्ग सिधार गए। इधर मायके वालों पर भी दुर्भाग्य की कुदृष्टि थी। वह थी भी माता-पिता की इकलौती कन्या। पुत्री की इस दारूण वेदना से विहल माता-पिता अधिक दिन जीवित न रह पाये। वे भी परलोकवासी हो गए। बारह-तेरह वर्ष की बालिका ज्योतिर्मयी का इस संसार में अपना कोर्इ न रहा।
रोती-बिलखती, यह विधवा बालिका अपने जीवन के घने अँधेरे से घबरा गर्इ। क्या करे? कहाँ जाएँगे? ये सवाल उसके सामने भूखे शेर की तरह गर्जने लगे। इनसे छुटकारा पाने के लिए उसके पास मात्र गंगा की गोद के सिवा और कोर्इ भी रास्ता न था। सो उसने अपने गाँव के पास बहती हुर्इ गंगा नदी की धारा में प्राण त्यागने की ठान ली। रात के घने अँधेरे में जब वह गंगा की गोद में छलाँग लगाने के लिए उद्यत थी, तभी किसी ने पीछे से आकर उसका हाथ पकड़ लिया। अचानक इस तरह हाथ पकड़ लेने पर वह चिहुँकी और चौंकी। पीछे मुड़कर देखा, तो गैरिक वस्त्रधारी एक वृद्ध संन्यासी खड़े थे। उनके श्रेवत केश शुभ्र चाँदनी में चाँदी की तरह चमक रहे थे।
उन्होंने प्यार से उसका हाथ थाम कर केवल इतना कहा- बेटी! जिसका कोर्इ नहीं होता, उसका भगवान् होता है। भगवान् अपने इस सबसे प्यारे बच्चे की सहायता के लिए किसी न किसी को अवश्य भेजता है। उसी ने तुम्हारे लिए मुझे भेजा है। आओ तुम मेरे साथ आओ। उन संन्यासी के स्वरों में माँ की ममता थी। बालिका ज्योतिर्मयी ने उन पर सहज विश्वास कर लिया। वही उनके गुरू हो गए और भरोसा, गुरू का ध्यान ही उनका धर्म बन गया। इसी धर्म के निर्वाह में उसके दिवस-रात्रि बीतने लगे।
प्रात: स्नान आदि नित्यकर्मों से निबटकर वह सद्गुरू के ध्यान में खो जाती। सहस्त्रदल कमल पर गुरूदेव की भव्यमूर्ति का ध्यान यही उसकी साधना थी। नियमित अभ्यास के प्रभाव से ध्यान का चुम्बक्त्त्व घना होता गया और इस चुम्बकत्व ने उसके प्राण प्रवाह की गति बदल दी। निम्नगामी प्राण विद्युत् ऊर्ध्वगामी होने लगी। जो उर्जा निम्न केन्द्रों पर एकत्रित रहती थी। अब उसने ऊर्ध्वगामी होकर चेतना के उच्च केन्द्रों को जाग्रत् करना प्रारम्भ कर दिया। चक्रों के जागरण, बेधन एवं प्रस्फुटन की क्रिया चल पड़ी। सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, काम करते हुए ज्योतिर्मयी की भावनाएँ सहस्त्रदल कमल में स्थापित सद्गुरु की चेतना में विलीन होती रहती थी। समय से साथ इसमें प्रगाढ़ता आती गयी।
वर्षो बीत गए और गुरू ने स्थूल देह का त्याग कर दिया; पर उनकी सूक्ष्म चेतना के साथ ज्योतिर्मयी का अभिनव साहचर्य था। वह हमेशा कहती थी कि सच्चा शिष्य हमेशा अपने गुरू के साथ रहता है। वह अपने गुरू में रहता है और गुरू उसमें समाए रहते है। अब उसका व्यक्तित्व सभी आध्यात्मिक सिद्धियों, शक्तियों एवं विभूतियों का भण्डार बन गया। आध्यात्मिक साधना की दुर्लभ कही जाने वाली अवस्थाओं को उसने सहज प्राप्त कर लिया। हालाँकि उसके आस-पास के लोग उसकी इस उच्च स्थिति से अनजान थे। उन्हें तो इस सत्य का तब पता चला, जब हिमालय की दुर्गम कन्दराओं में तप करने वाले योगिराज महानन्द न उन्हें बताया कि तुम्हारे गाँव के पास गंगा किनारे वास करने वाली माँ ज्योतिर्मयी परम योगसिद्धि हैं और उन्हें यह अवस्था सद्गुरू के ध्यान से मिली है।
3-सद्गुरू के ध्यान की यह सवोर्तम विधि है। यह ध्यान जीवन को शिवस्वरूप प्रदान करने वाला है। अत्यन्त प्रभावशाली एवं परम गोपनीय, अतिदुर्लभ एवं समस्त आध्यात्मिक विभूतियों को प्रकट करने वाला है। ध्यान की इस रहस्यमयी विधि का प्रयोग श्रीरामकृष्ण परमहंस देव के शिष्य दुगार्चरण नाग किया करते थे। श्रीरामकृष्ण ने उनकी पात्रता पर विश्वास करके यह विधि प्रदान की थी। जिनकी सन्त साहित्य में रूचि है, उनके लिए दुगार्चरण नाग का नाम अपरिचित नहीं हैं। श्रीरामकृष्ण के शिष्यों में उन्हें नाग महाशय के नाम से जाना जाता था। गृहस्थ होने के बावजूद उनका जीवन संन्यासियों से भी ज्यादा कठोर एवं तपपरायण था। उनके कठोर तपष्चरण के अनेकों कथानक सन्त साहित्य में पढ़े और जाने जाते है।
नाग महाशय का सारा दिन गरीबों एवं दु:खी जनों की चिकित्सा सेवा में बीतता था। चिकित्सक होते हुए भी उनके लिए चिकित्सा कभी भी व्यवसाय नहीं बनी, बल्कि उन्होंने सदा ही उसे सेवा कार्य समझा। अपने इस सेवा कार्य में, जिसे वे नारायण सेवा कहा करते थे, कभी-कभी तो घर का सामान और रूपये भी दे आते थे। दिन भर की इस सेवा के बावजूद नाग महाशय की प्राय: सम्पूर्ण रूचि जप-ध्यान में बीतती थी। उनकी साधना इतनी उग्र एवं कठोर थी कि सामान्य निद्रा की उन्हें कोई विशेष जरूरत नहीं रह गयी थी। अमावस के दिन उपवास रखकर गंगा के किनारे जप करते-करते वह भाव समाधि में लीन हो जाते थे। कभी-कभी तो यह समाधि दशा इतनी प्रगाढ़ होती कि नदी का ज्वार उन्हें बहा ले जाता। बाद में इन्हें तैरकर वापस आना पड़ता।
ऐसे महान् साधक नाग महाशय के लिए उनके गुरू श्रीरामकृष्ण ही सर्वस्व थे। साधना के उच्च् शिखरों पर आरूढ़ नाग महाशय की पात्रता-पवित्रता एवं साधना की कई बार परीक्षाएँ लेकर उन्हें सहस्त्रदल कमल में ध्यान करने की यह विधि सुझाई थी। ध्यान का यह दुलर्भ प्रयोग बताते समय श्रीरामकृष्ण ने अपनी ओर इशारा करते हुए पूछा था-तुम इसे क्या समझते हो? नाग महाशय ने बिना किसी हिचकिचाहट के जवाब दिया-यह मुझसे मत कहलाइये ठाकुर। आपकी कृपा से मैं समझ गया हूँ कि आप वही हैं। इस पर परमहंस देव ने कहा तब ठिक है। तुम सच्चे अधिकारी हो। तुम इसे कर सकते हो। ऐसा कहते हुए श्री ठाकुर केा समाधि लग गयी। समाधि की इसी भावदशा में नाग महाशय के वक्षस्थल पर उनके पैर पड़ गये। इस स्पर्श मात्र से नाग महाशय को एक दिव्य अनुभूति हुई, जिसमें उनके अन्त:करण में सहस्त्रदल कमल में सद्गुरू के ध्यान का स्वरूप प्रकट हो गया। साथ ही उन्हें सवर्त्र दिव्य ज्योति के दर्शन भी हुए।
इस अनुभूति के बाद उन्होंने श्री ठाकुर द्वारा निर्दिष्ट की गयी ध्यान की विधि का प्रयोग करना शुरू किया। यहाँ पर हम इन पंक्तियो के पाठकों को यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि सहस्त्रदल कमल में ध्यान की यह विधि सवर्साधारण के लिए उचित नहीं है। जिसके आज्ञाचक्र एवं अनाहत चक्र का ठीक-ठीक विकास हो चुका होता है, उन्हीं के लिए यह दुलर्भ साधना उचित बतायी गयी है। सहस्त्रदल कमल पर गुरूगीता के इन महामंत्रों के अनुरूप ध्यान की परमहंस अवस्था को सिद्धों का ध्यान कहा गया है। यही कारण है कि यहाँ उसका सम्पूर्ण रहस्य नहीं बताया जा रहा। नाग महाशय की उच्च अवस्था देखकर ही श्रीरामकृष्ण ने उन्हें यह दुलर्भ प्रयोग बताया था।
इस ध्यान प्रयोग से नाग महाशय में असीमित योग ऐश्वर्या प्रकट हुआ। उन्होंने अपने गुरूदेव के साकार और निराकार स्वरूप के दर्शन किये। माँ गंगा स्वयं ही उनके आँगन में प्रकट हुई। अनेक देवदुर्लभ चमत्कार नाग महाशय के जीवन में प्रकट हुए। संक्षेप में इस ध्यान विधि से परम असम्भव भी सम्भव बन पड़ता है। हाँ, इसे निर्दिष्ट करने का अधिकार केवल सद्गुरू को है। जिन्हें भी यह विधि गुरूदेव ने बतायी है, वे आज आध्यात्मिक जीवन के परम आनन्द में विभोर हैं। गुरूदेव की कृपादृष्टि ऐसी ही सवर्फलदायिनी है।
यह लेख शांतिकुज्ज से प्रकाशित पुस्तक गुरूगीता से
लेखक- ब्रह्मवचर्स
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