कुण्डलिनी जागरण
नि:संदेह कुण्डलिनी आणविक ऊर्जा (Atomic Energy) के समान अत्यन्त शक्तिशाली ऊर्जा का
स्रोत है और जिस व्यक्ति को यह उपलब्ध होती है वह मानव से महामानव, पुरूष से महापुरुष, देवपुरुष बन जाता है। समस्त ऋद्धियों, सिद्धियों की प्राप्ति उसको होती चली
जाती है, परन्तु जैसे आणविक ऊर्जा को उत्पन्न
करना व उसका उपयोग करना एक खतरनाक कार्य है जैसे अणु परमाणु बम का विज्ञान यदि
आतंकवादियों के हाथ लग जाए तो समाज का विनाश निश्चित है उसी प्रकार यदि यह
कुण्डलिनी विज्ञान कुपात्रों के हाथ लग गया तो इससे लाभ की कम हानि की सम्भावना अधिक
है। इसी कारण जिनके पास कुण्डलिनी विद्या होती है वो इसका प्रचार नहीं करते, परन्तु जिनके पास यह विद्या नहीं है वो
इस पर लम्बी-लम्बी बातें करते हैं। इसके जागरण का दावा करते हैं व इस पर बड़े-बड़े
ग्रन्थ छापते हैं। उदाहरण के लिए योगानन्द परमहंस जी कुण्डलिनी के सिद्ध साध्क हुए
हैं उनकी बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है- ‘एक
योगी की आत्मकथा’
(Autobiography of a Yogi) परन्तु उन्होंने कुण्डलिनी विद्या के स्थान पर ‘क्रिया-योग’ शब्द का प्रयोग किया और यह क्रिया-योग
क्या है? इसका कहीं वर्णन नहीं किया। इसी प्रकार
महर्षि अरविन्द कुण्डलिनी के सिद्ध साध्क रहे हैं, परन्तु उन्होंने कुण्डलिनी विद्या पर कुछ विशेष नहीं कहा। इसके स्थान
पर उन्होंने ‘अतिमानस’ शब्द का प्रयोग किया। अतिमानस का अवतरण होने जा रहा है इसी के लिए वे
प्राणपण से प्रयासरत रहे हैं। यह उनके जीवन का मुख्य दर्शन रहा है। यह अतिमानस भी
सीधा कुण्डलिनी विद्या से जुड़ा हुआ है। अतिमानस (Super Mental State) की अवस्था वो सौभाग्यशाली ही प्राप्त
कर सकते हैं जिनका कुण्डलिनी जागरण हुआ हो। मन के पार जाना कुण्डलिनी के द्वारा ही
सम्भव है। महर्षि अरविन्द के शरीर छोड़ने के पश्चात् इस विद्या के जो सर्वोपरि
ज्ञाता रहे हैं, वे हैं-श्रीराम शर्मा आचार्य। व्यक्ति
अपनी कुण्डलिनी जागरण की कामना लेकर उनके पास जाए यह उन्हें स्वीकार्य नहीं था, वो सम्पूर्ण राष्ट्र की कुण्डलिनी
जागरण की बात किया करते थे। उनके अनुसार 21वीं
सदी में हजारों ब्रह्मवर्चस सम्पन्न महामानव भगवान् की लीला में भागीदार बनने के
लिए इस राष्ट्र में विकसित होंगे तथा भारत के साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व का उद्धार
करेंगे। यह ब्रह्मवर्चस भी कुण्डलिनी के सफल साधक में ही पाया जाना सम्भव होता है।
जो लोग सीधे-सीधे कुण्डलिनी जागरण का
दावा करते हैं वो केवल कुण्डलिनी विद्या की छाया तक ही पहुंच पाये हैं। भारतवर्ष
में 100 से
अधिक ऐसे मिशन हैं जो कुण्डलिनी विद्या पर ही सीधा -सीधा आधरित हैं। अपने
आश्रम में ठहराकर कुण्डलिनी जागरण का दावा करना ही उनका कार्य है। किसी व्यक्ति के
भीतर थोड़ी बहुत ऊर्जा डालकर अथवा थोड़ा बहुत प्रकाश दिखाकर वो मिशन उसको
बढ़ा-चढ़ाकर कुण्डलिनी जागरण के अनुभव के रूप में प्रदर्शित करने लगते हैं। यदि इन
मिशनों के मुख्य व्यक्ति (Main
Person) ही
कुण्डलिनी के सिद्ध होते,
तो भी इस राष्ट्र का अब तक कल्याण हो
गया होता। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि यदि उन्हें 100 समर्पित युवा मिल जाए तो वो इस
राष्ट्र का कायाकल्प कर सकते हैं, परन्तु
100 से अधिक ये कुण्डलिनी के तथाकथित
सिद्ध इस राष्ट्र में कोई परिवर्तन क्यों नहीं ला पाए यह विचारणीय प्रश्न है।
कुण्डलिनी जागरण के नाम पर धन कमाना जिन संस्थाओं का उद्देश्य बन गया है उनसे दूर
रहने में ही भलाई है।
यदि व्यक्ति कुण्डलिनी विद्या को जानना, समझना चाहता है तो सर्वप्रथम आवश्यकता
है पात्राता की। पात्राता के लिए निम्न 24
सूत्रो (प्रश्नों) का विवरण दिया जा रहा है। निष्पक्ष रूप से आत्म-चिन्तन कर इन 24 सूत्रो का उत्तर अपनी अन्तरात्मा से
पूछा जाना चाहिए। यदि इसमें सफल हैं तभी हिमालय की ऋषि आत्माएं आप पर कुण्डलिनी का
प्रयोग करेंगी अथवा कर रहीं होंगी अन्यथा यह प्रयोग सफल नहीं होगा।
1.
क्या
आप विभिन्न प्रकार के भोगों में रुचि रखते हैं अथवा उनसे ऊपर उठना चाहते हैं?
2.
क्या
आप अपना संचित धन ईश्वरीय निर्देशानुसार लोक-कल्याण के निमित्त लगाने का साहस कर
सकते हैं अथवा धन को भविष्य की सुरक्षा की दृष्टि से संचित रखना चाहते हैं।
3.
क्या
आप लोक-कल्याण के निमित्त विभिन्न प्रकार के कष्ट सहने को तैयार हैं?
4.
क्या
आपके भीतर ईर्ष्या-द्वेष है?
5.
क्या
आपका अपने परिवार आदि से अथवा अन्य किसी के साथ विशेष लगाव है अथवा आप कर्तव्य भाव
से अपने उत्तरदायित्वों (Responsibilities)
को पूरा करना चाहते हैं?
6.
क्या
आपके अन्दर राष्ट्र-प्रेम है?
7.
क्या
आप स्वभाव से धेखेबाज और भ्रष्ट हैं?
8.
क्या
आप स्पष्टवादी हैं?
9.
क्या
आप जीवन में कोई महान लक्ष्य पाना चाहते हैं?
10. क्या दु:खी-पीड़ितों को देखकर आपके
अन्दर करुणा उत्पन्न होती है?
11. क्या किसी की कही बात आपको चुभती है व
आप उसे लम्बे समय तक याद रखते हैं?
12. क्या आपका मानसिक सन्तुलन स्थिर रहता
है अथवा तरह-तरह के भय और सन्देह (Fear & Doubts) आपको परेशान करते रहते हैं?
13. क्या आप अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध अपनी आवाज उठाना
चाहते हैं?
14. क्या आप मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं
अर्थात् अपने सम्पूर्ण दु:खों से निवृति चाहते हैं?
15. क्या आप भगवान् से सच्चा प्रेम करते
हैं तथा उनके लिए तप, त्याग, तितिक्षा का जीवन जीने के इच्छुक हैं या आप केवल अपनी मनोकामनाओं की
पूर्ति के लिए ही भगवान से अपना सम्बन्ध बनाए रखना चाहते हैं?
16. क्या आप वर्तमान में जीवन जीते हैं या
भविष्य और भूतकाल की कल्पनाओं और घटनाओं में ही उलझे रहते हैं?
17. क्या आपमें धेर्य, सहनशीलता व कष्ट सहिष्णुता जैसे गुणों
का विकास हुआ है?
18. क्या आप आत्मा परमात्मा, जीवन-मरण के रहस्य को जानना चाहते हैं
जिसे भारतीय संस्कृति में आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान
या साक्षात्कार के नाम से सम्बोधित किया गया है?
19. समाज में लोगों के जीने का एक तरीका
है- पढ़ो-लिखो, पैसा कमाओ, बच्चे पैदा करो और इसी में सारा जीवन
व्यतीत कर दो। क्या आप इतना साहस रखते हैं कि आप स्वजनों के प्रबल विरोध के
उपरान्त भी आप जीवन जीने का एक नया रास्ता चुनकर उस पर अपने कदम बढ़ा सको?
20. क्या आप में बहुत अधिक् धनोपार्जन की
इच्छा है अथवा आप धन को केवल आवश्यकता पूर्ति के लिए ही अर्जित करना चाहते हैं?
21. क्या आप में मान-सम्मान प्राप्त करने
की बहुत चाहत है व अपने को बहुत उच्च श्रेणी का जीव समझते हैं अथवा समता की स्थिति
में सभी से प्रेम कर जीवन-यापन करना चाहते हैं?
22. क्या आप बाह्य संसार से विमुख होकर
अन्तर्मुखी जीवन जीना पसन्द करते हैं?
23. क्या आपको भारतीय संस्कृति व भारतीय
ऋषि-मुनियों द्वारा दिया गया ज्ञान अपनी ओर आकर्षित करता है व इसको जानने, समझने के लिए अपना जीवन समर्पित करने के
इच्छुक हैं?
24. क्या आपका इश्वर में दृढ़-विश्वास है?
पहला प्रश्न ‘‘क्या भोगों में रुचि है?’’ बड़ा महत्त्वपूर्ण है। प्रसिद्ध अजन्ता, एलोरा व खजुराहो आदि की गुफाओं पर जो
भित्ति चित्र बने हैं वो भी इसी परीक्षा हेतु बनाए गए थे। यदि व्यक्ति के मन में
चित्र देखकर वासनात्मक भाव उदय होते थे तो वह परीक्षा में अनुतीर्ण माना जाता था
यदि नहीं होते तो वह उत्तीर्ण होता था। उर्तीण होने पर ही कुण्डलिनी साधना
प्रारम्भ हो सकती थी। वास्तव मे भोगों से ऊपर उठने के लिए जो दृढ़ संकल्पित है तथा
वैसी मनोभूमि तैयार कर रहा है वही कुण्डलिनी विद्या का पात्र होगा।
दूसरा प्रश्न लोभ से सम्बन्धित है।
आदमी धन जोड़ने के चक्कर में पागल बना हुआ है। कुण्डलिनी के साधक को धन से अधिक्
ईश्वर में विश्वास होना चाहिए। व्यक्ति तीन-चार कारणों से मुख्यत: धन जोड़ता है।
पहला इसके द्वारा बढ़िया भोग-विलास की सामग्री जुटाएगा, परन्तु कुण्डलिनी साधक तप प्रधान होता
है वह इस हेतु धन का संचय नहीं करेगा। दूसरा धन भविष्य की विपत्तियों से रक्षा में
काम आएगा, परन्तु कुण्डलिनी साधक तप प्रधान व
अच्छे हृदय का होता है, अत: पहले तो उस पर विपत्तियां आती ही
कम हैं, परन्तु यदि प्रारब्धवश आती भी हैं तो
उसमें उसको दैवी सहायता मिल जाती है और विपत्तियों का निवारण बड़े सरल ढ़ंग से हो
जाता है। एक साधक की बेटी लगभग डेढ़ वर्ष की थी। मई-जून 2003 में पेट के रोगों से बुरी तरह ग्रस्त
हो गई। अनेक बार ऐलोपैथिक दवायें (Metrogyl+Norflox) दी गई। अनेक आयुर्वेदिक उपचार किए, परन्तु समस्या दूर न हो पायी। वह कुछ भी थोड़ा सा खाती तो पेट बुरी
तरह फूलता। कीड़ों की भी सभी प्रकार की दवायें जैसे आयुर्वेदिक (कमैला, वायविडंग) तथा ऐलोपैथिक (Albendazole) दी गयीं, परन्तु समस्या हल न हो पायी। कोई कहता लीवर खराब हो गया है, कोई कहता पेट में विशेष प्रकार के
कीड़े हैं, आदि-आदि। उन्हीं दिनों उनको ध्यान
में निर्देश मिला कि बच्चे को कहीं मत
दिखाओं उसको जटामांसी दो,
वह ठीक हो जाएगी। यह समझ में बात नहीं
आयी कि पेट के रोग में जटामांसी का प्रयोग क्यों? उन्होंने इसको एक भ्रम माना व इस ओर ध्यान नहीं दिया। अगले दिन फिर
उन्हें प्रात: चार बजे के आस-पास अर्धनिद्रा की स्थिति में किसी ने सचेत किया ‘‘बच्चे को जो बिल्ली लोटन घास (जटामांसी
का दूसरा नाम) देने के लिए कहा गया था वह क्यों नहीं प्रारम्भ की।’’ उन्होंने अन्य सब उपाय छोड़ पहले
जटामांसी का प्रबन्ध किया तथा देना प्रारम्भ किया आश्चर्य की बात है कि जटामांसी
को देते ही पेट फूलने की समस्या दिनोंदिन कम होती गयी। गहन विश्लेषण से पता चला कि
बच्चे का तंत्रिका-तंत्र (Nervous
System) कमजोर
था। इस कारण अपच रहता था। जटामांसी देने से तंत्रिका-तंत्र में सुधार आता गया
जिससे पाचन तंत्र भी मजबूत बनता गया। अत: दैवी सहायता धन से अधिक महत्वपूर्ण है।
तीसरा कारण धन के संचय का है- मोह।
व्यक्ति सोचता है कि मैं अपनी पीढ़ी को बहुत सा धन दे जाऊं जिससे वे सुखी रह सकें, परन्तु कुण्डलिनी साधक विवेकवान होता
है। वह जानता है कि यदि मुफ्त का धन बच्चों के हाथ लग गया तो दुर्व्यसनों या बुरी
आदतों के शिकार हो जाएंगे। बच्चे अपनी भी दुर्गति करेंगे व माता-पिता के लिए भी
समस्या बन जाऐंगे।
चौथा कारण धन के संचय का है- नाम कमाना, बड़ा आदमी कहलाना। कुण्डलिनी साधक इसको
अहं तुष्टीकरण व अहं की वृद्धि मानता है। वह व्यर्थ के जन-सम्पर्क, भीड से बचता है, क्योंकि उसको भीतर ही एक प्रकार का रस
पैदा होना प्रारम्भ हो जाता है। एकान्त में अन्तर्मुखी रहकर उस रस का आनन्द लेना
उसे बहुत पसन्द होता है। अत: नाम, प्रसिद्धि
यह सब उसके लिए कोई महत्व नहीं रखता। उपरोक्त कारणों से कुण्डलिनी साधक धन को महत्व नहीं देता। जीवन-निर्वाह के
लिए जितना आवश्यक है उतने की ही व्यवस्था बनाने की सोचता है उससे अधिक उसके लिए
व्यर्थ है। यदि व्यक्ति के पास धन अधिक संचित है तो उसको जन कल्याण में लगाने के
ईश्वरीय निर्देश मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं। वह पूर्ण उत्साह व आनन्द के साथ धन
से मानव कल्याण की योजनाएं चलाता है।
चौथा प्रश्न है- ईर्ष्या-द्वेष का भाव
रहने पर कुण्डलिनी साधन बहुत ही हानिकारक हो जाती है। ईर्ष्या का अर्थ है -
व्यक्ति दूसरे को नुकसान पहुंचाना चाहता है। साथ-साथ यह भी चाहता है कि जिसे वह
नुकसान पहुंचाना चाहता है उसे उसकी इस बात का पता न चले। वह पीछे से इस प्रकार की
उल्टी-सीधी चालें चलता है जिससे दूसरे को नुकसान पहुंचे, परन्तु अपनी उन चालों को वह गुप्त रखता
है। बाहर से वह मीठा बना रहता है। अपने कारनामे खुलने का गुप्त भय भी उसे सताता
रहता है। ईर्ष्या दो बातों का सम्मिश्रण है - दूसरे को हानि पहुंचाना व स्वयं के
अवचेतन मन में भय की ग्रन्थि विकसित करना । यदि हम तलवार लेकर दूसरे पर सीधे
प्रहार करें वह इतना हानिकारक नहीं है जितना ईर्ष्या करना, क्योंकि ईर्ष्या में भय की जो ग्रन्थि
पैदा हो जाती है वह ऊर्जा का सबसे बड़ा शुत्र है यह भय ही कुण्डलिनी की ऊर्जा को
पी-पीकर और पुष्ट होता चला जाता है तथा व्यक्ति को हर समय किसी न किसी बात का भय, सन्देह बना रहता है। ईर्ष्या का
मनोविकार बढ़ने पर प्रेम समाप्त होता चला जाता है व दूसरे को नीचा दिखाने की भावना
प्रबल होती चली जाती है। व्यक्ति धीरे-धीरे प्रेम जैसे पवित्र गुण से वंचित होता
चला जाता है। यहां तक कि वह अपनी सन्तानों से भी प्रेम नहीं कर पाता। अष्टावक्र के
पिता ने उसे माँ के गर्भ में ही शाप दे दिया था। यह ईर्ष्यालु तपस्वी का ही परिणाम
था कि उसकी सन्तान आठ जगह से टेढ़ी पैदा हुई। ईर्ष्या बहुत ही भयानक दुर्गुण है और
अन्त में वह व्यक्ति का उसके जीवन के प्रति प्रेम, अपने शरीर के प्रति प्रेम समाप्त कर देता है जिससे व्यक्ति सदा जीवन
में उदास और शरीर से रोगी रहने लगता है। अत: कुण्डलिनी जागरण के अभ्यास से पूर्व
ईर्ष्या-द्वेष का निरीक्षण कर लेना चाहिए कि हमारे अन्दर यह कितना विद्यमान है।
इसकी समाप्ति के लिए हमें अधिक से अधिक प्रेम की भावना का विकास करना चाहिए। कपट
रहित प्रेम, स्वार्थ रहित प्रेम, निष्काम कर्म हमें ईर्ष्या के चंगुल से
छुड़ा सकता है। अधिकतर सामाजिक संस्थाओं का प्रारम्भ बड़े जोर-शोर से होता है, परन्तु कुछ समय उपरान्त उनके
कार्यकर्ताओं में यह ईर्ष्या-द्वेष की भावना पनप जाती है। यह ईर्ष्या संस्था में
तरह-तरह के झगड़े, झंझट, कार्यकर्ताओं में प्रेम समाप्त कर मनमुटाव उत्पन्न कर देती है जिससे
संस्थाओं के पास बड़ी मात्रा में धन, सम्पत्ति, बड़े-बड़े आश्रम, वाहन बचते हैं, परन्तु जन-कल्याण की योजनाएं पूर्ण
नहीं हो पाती। अत: प्रत्येक सामाजिक संस्था को जो जीवित रहना चाहती है, अपने कार्यकर्ताओं को इस भयानक विष से
सदा सावधान रहने की प्रेरणा देते रहना चाहिए। अन्यथा दीमक की तरह यह कीड़ा भीतर ही
भीतर संस्थाओं को खोखला करता चला जाता है। मानव शरीर व व्यक्तित्व को भी यह
पूर्णत: खोखला कर देता है। आज के इस प्रतियोगिता के युग(Competitive age) में बचपन से ही बच्चों में एक-दूसरे से
आगे निकलने के गलत संस्कार भर दिये जाते हैं जो आगे चलकर ईर्ष्या-द्वेष का रूप ले
लेते हैं। इससे बचने के लिए बच्चों में औरों के प्रति प्रेम, सम्मान, सेवा भाव जागृत किया जाए। राष्ट्र-निर्माण के लिए समाज के विकास के
लिए, तपस्वी जीवन जीने की भावना का विकास
करना चाहिए।
पांचवें प्रश्न का उत्तर यह है कि सब
कुछ भगवान् का है सब प्राणी भगवान् की ही सन्तान हैं, अत: भेदभाव क्यों? कुण्डलिनी साधक अपना परिवार भगवान् को
समर्पित कर देता है व कर्त्तव्यभाव से अपना उत्तरदायित्व पूरा करता रहता है।
छठे प्रश्न के उत्तर में राष्ट्र-प्रेम
कुण्डलिनी साधक में अवश्य होना चाहिए। वीर भाव के राष्ट्र गीत व त्याग-बलिदान करने
वाले क्रान्तिकारियों के चरित्र उसको रोमांचित करने चाहिएं।
कुण्डलिनी साधक स्वभाव से सीधा व सरल
होता है। धेखेबाजी, अनीति, छल उसके स्वभाव में नहीं होता। मजबूरीवश असत्य या अनीति का सहारा लेना
पड़े तो यह अलग बात है, परन्तु इस कार्य में उसको काफी कठिनाई
होती है। जैसे युधिष्टर, अर्जुन ने भगवान् कृष्ण के कहने पर
कभी-कभी अनीति का सहारा ले लिया, परन्तु
अनिच्छा के साथ।
आठवां प्रश्न स्पष्टवादिता से
सम्बन्धित है। कुण्डलिनी साधक में स्पष्टवादिता का गुण अवश्य होना चाहिए। मन के
भीतर वो कोई खिचड़ी नहीं पकाता, अपने
मन को साफ (Clear) रखता है। आमतौर पर व्यक्ति अपने मन में
विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के प्रति विभिन्न प्रकार की धरणाएं बनाए रखते हैं और
उनके मुंह पर तो मीठे बने रहते हैं, परन्तु
पीठ-पीछे इधर-उधर की बुराइयां-चुगलियां करते रहते हैं। कुण्डलिनी साधक को इससे
अधिक लेना-देना नहीं होता कि कोई नाराज हो रहा है या प्रसन्न हो रहा है, वह तो स्पष्ट बात मुंह पर बोलता है।
व्यर्थ की ड्रामेबाजी में वह कोई विश्वास नहीं रखता न ही इसमें अपना समय नष्ट करता
है।
नौवां प्रश्न लक्ष्य से सम्बन्धित है-
जैसे वैज्ञानिक किसी न किसी उच्च लक्ष्य की खोज में निमग्न रहते हैं, अपना समय बड़ा मूल्यवान समझते हैं।
व्यर्थ की गपशप अथवा टेलीविजन आदि देखने में नष्ट नहीं करते वैसे ही कुण्डलिनी
साधक भी सामान्य सांसारिक प्राणी से हटकर होता है। भगवान् श्री कृष्ण गीता में
कहते हैं कि जब सारा संसार सोता है तब योगी जागता है और जब संसार जागता है तब योगी
सोता है। यह अलंकारिक कथन है, इसका
अर्थ है कि जिन बातों में सांसारिक लोगों की रुचि होती है उनमें योगी कोई रुचि
नहीं लेता जैसे छोटा बच्चा खिलौनों से खेलता है, परन्तु बड़ा होने पर उसमें कोई रुचि नहीं लेता। इसी प्रकार कुण्डलिनी
साधक भी सांसारिक भोगों, वासनाओं, कामनाओं से ऊपर उठकर जीवन जीने में प्रयासरत रहता है। कुण्डलिनी साधक
आत्मकल्याण, लोक-कल्याण से सम्बन्धित किसी न किसी
बड़े लक्ष्य की ओर, बड़े संकल्प की ओर स्वयं को बांधे रखता
है।
दसवां प्रश्न करुणा, दया से सम्बन्धित है। कुण्डलिनी साधक
निष्ठुर अर्थात् पाषाण हृदय का नहीं होता। दीन-दुखियों को देखकर वह बड़ा ही द्रवित
हो जाता है। दीन-दुखियों की सहायता के लिए सदा तत्पर रहता है तथा उनकी समस्याएं
जड़ से समाप्त करना चाहता है। जैसे एक परिवार में बहुत गरीबी है तो आप उन्हें
आर्थिक सहायता देते हैं। परन्तु मूल समस्या है कि उनके परिवार का एक मुखिया शराब
में अधिकांश कमाई उड़ा देता है। मूल समस्या शराब है- गरीबी नहीं। शराब गरीबी की
जड़ है अत: शराब को इस राष्ट्र से मार भगाने का प्रयास करना चाहिए।
कई बार आदमी व्यर्थ की बातों में उलझा
रहता है उसने मुझे ऐसा क्यों कहा, उसने
मेरा अपमान कर दिया, उसे ऐसा कहना चाहिए था आदि-आदि। प्रयास
करना चाहिए कि इस तरह की बातें साथ के साथ समाप्त हो जाएं। लम्बे समय तक अवचेतन मन
इसमें न उलझा रहे। अवचेतन मन को यथासम्भव खाली रखें। जो कुछ भी कहना सुनना है मुंह
पर सामने कह सुनकर अपने को खाली कर दें। प्राणियों को अज्ञानी जानकर उनको क्षमा
करना सीखें। अपना अहं इतना न बढ़ाएं कि व्यर्थ की कहा-सुनी में उलझे रहें, अन्यथा बहुत सारे प्राणियों के प्रति
आपके मन में दुर्भाव उत्पन्न हो जाएगा जिससे अवचेतन मन में सदभाव की जगह दुर्भाव
प्रभावी होने लगेगा। दुर्भाव कभी-कभी किसी के प्रति बहुत मजबूरी में ही पैदा होना
चाहिए।
कुण्डलिनी साधक में एक प्रकार का तेज
उत्पन्न हो जाता है जिसका उपयोग उसको अन्याय, अनीति, अत्याचार के विरुद्ध अपनी आवाज उठाने
में करना चाहिए। इस भाव को मन्यु कहा जाता है। यदि तेज का परिमार्जन मन्यु में न
हो तो कई बार यही तेज क्रोध में बदल जाता है जो हानिकारक होता है।
कई बार व्यक्ति अनेक प्रकार के भय और
संदेहों के घेरे में उलझ जाता है। उसे ऐसा नही लगता है जैसे कहीं उसका कोई नुकसान
न हो जाए, कोई बच्चा बीमार न पड़ जाए, चोट न खा जाए आदि-आदि। उसका अवचेतन मन
इस प्रकार के संस्कार ग्रहण कर लेता है और फिर बार-बार यही भाव उठते रहते हैं। इन
भावों के स्थान पर ईश्वर विश्वास व समर्पण के भाव आरोपित करना चाहिएं। जो अपना
जीवन सच्चे मन से ईश्वर को समर्पित करता है ईश्वर उसकी रक्षा करता है और जिसकी डोर
भगवान् के हाथ में हो उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। जब तक अवचेतन मन साफ न
हो जाए, कुण्डलिनी साधना नहीं करनी चाहिए।
कुण्डलिनी साधना के लिए मानसिक सन्तुलन स्थिर होना चाहिए। यदि व्यक्ति के जीवन में
दु:ख, कष्ट, परेशानियां बहुत अधिक रहती हों, मानव
जीवन से थकान, टूटन अनुभव होती हो तो मोक्ष प्राप्ति
को जीवन का लक्ष्य बनाना चाहिए। मोक्ष एक ऐसी अवस्था का नाम है जिसमें व्यक्ति की
सम्पूर्ण दु:खों से निवृति हो जाती है। व्यक्ति पराशान्ति की अवस्था में जीवन
व्यतीत करता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए कुण्डलिनी साधना अनिवार्य है।
व्यक्ति भगवान् को इसलिए नहीं मानता कि
वह भगवान् से प्रेम करता है अथवा भगवान् को अपना जीवन समर्पित करता है अथवा भगवान्
से उच्च जीवन जीने की प्रेरणा मांगता हो वरन् भगवान् को इसलिए मानता है कि भगवान्
उसकी तरह-तरह की सांसारिक मनोकामनाएं पूरी करता रहे। जो भगवान् व्यक्ति की
मनोकामनाएं पूरी न कर पाए तो भगवान् बेकार हो जाएगा। सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति
की ओर अपना मानस परिवर्तित कर लेना चाहिए। भगवान तपस्वी, त्यागी व्यक्ति पर प्रसन्न होता है, अत: त्याग, तपस्या का उच्च स्तरीय जीवन भगवान् की
प्रसन्नता के लिए जीना चाहिए।
कुछ व्यक्तियों को भूत और भविष्य की
कल्पनाओं में रस लेने की आदत पड़ जाती है। भूतकाल में घटित घटनाओं के खट्टे-मीठे
अनुभवों को बार-बार याद करता रहता है व भविष्य की मीठी-मीठी योजनाएं, परिकल्पनाएं अपने जीवन के बारे में
करता रहता है। ऐसे व्यक्ति कुण्डलिनी साधना के अनुपयुक्त हैं। व्यक्ति को सदा
वर्तमान में जीना चाहिए। भूतकाल के कटु अथवा मृदु दोनों प्रकार के अनुभवों की फाईल
को बन्द कर देना चाहिए। भविष्य की योजनाएं भी बनानी चाहिएं तथा भूतकाल के अनुभवों
से भी सीखना चाहिए, परन्तु हर समय उन्हीं में उलझे रहकर
समय नष्ट नहीं करना चाहिए। कुण्डलिनी साधक को अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए समय
को बहुत ही महत्वपूर्ण समझना चाहिए व एक-एक पल का सदुपयोग करना चाहिए।
(यह लेख विस्तार से जनवरी 2014 के ब्लॉग मे दिया गया है, कृप्या पढ़े, Science & Mechanism of Kundlini Sadhna)
(यह
लेख पुस्तक 'सनातन धर्म का प्रसाद'
से
लिया गया है जो कि इस ब्लॉग के लेखक राजेश अग्रवाल जी द्वारा प्रकाशित की गई है।
पुस्तक डाउनलोड की जा सकती है बिना किसी मुल्य के:-
http://vishwamitra-spiritualrevolution.blogspot.in/2013/02/blog-post.html
छपी
पुस्तक मांगने की कीमत मात्र सॊ रूपए है, डाक
द्वारा भेजी जाएगी)
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