Monday, December 31, 2012

बालकों के निर्माण का आधार


बच्चों का सबसे पहला और प्रमुख विद्यालय होता है-घर। घर के वातावरण में मिली हुर्इ षिक्षा ही बालक के संपूर्ण जीवन में विषेशतय काम आती है। माता बच्चे का पहला आचार्य बतार्इ गर्इ है, फिर दूसरा नंबर पिता का और इसके उपंरात षिक्षक, आचार्य, गुरू का स्थान है। मानव जीवन की दो-तिहार्इ षिक्षा माँ-बाप की छत्रछाया में घर के वातावरण में संपन्न होती है। घर के वातारण की उपयुक्ताा, श्रेश्ठता पर ही बच्चों के जीवन की उत्कृश्टता  निर्भर करती है  और जीवन की उत्कृश्टता ााब्दिक अक्षरीय ज्ञान पर नहीं, वरन जीवन जीने के अच्छे तरीके पर है।
अच्छा स्वभाव, अच्छी आदतें, सद्गुणों, सदाचार ही उत्कृश्ट जीवन के आधार हैं जो पुस्तकों के पृश्टों से, स्कूल, कॉलजों, बोिर्डेग हाउस की दीवारों से नहीं मिलते, वरन घर के वातावरण में ही सीखने को मिलते है। इन्हीं गुणों पर जीवन की सरलता, सफलता और विकास निर्भर होता है। जो माँ-बाप इस उत्त्ारदायित्व को निभाते हुए घर का उपयुक्त वातावरण बनाते है, वे अपने बच्चों को ऐसी चारित्रिक संपित्त्ा देकर जाते है जो सभी संपित्त्ायों से बड़ी है, जिसके उपर सम्पूर्ण जीवन स्थिति निर्भर करती है।
घर में विपरीत वातावरण होने पर स्कूल, कॉलेजों में चाहे कितनी अच्छी षिक्षा दी जाए, वह प्रभावषाली सिद्ध नहीं होती। हालांकि स्कूल के पाठ्क्रम में चरित्र, सदाचारख् साधुता, सद्गुणों की बहुत सी बातें होती है, पर वे केवल ााब्दिक और मौखिक ज्ञान का आधार रहती है अथवा परीक्षा के प्रष्नपत्रों में लिखने की बातें मात्र होती है। विद्याथ्र्ाी के जीवन में क्रियात्मक रूप से उनका कोर्इ महत्व नहीं होता। इसका प्रमुख कारण घर के विपरीत वातावरण का होना ही होता है।
जिन घरों में तना-तनी, नड़ार्इ-झगड़े, कलह, अषांति रहती है, वहाँ बच्चों पर इसका बहुत बूरा प्रभाव पड़ता है। जो माँ-बाप बच्चों के श्रद्धा, स्नेह के केंद्र होते है, उन्हें बच्चे जब परस्पर लड़ते-झगड़ते, तू-तू, मैं-मैं करते, एक दूसरे को बूरा कहते देखते हैं तो बच्चों के कोमल हृदय पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। बच्चों में माँ-बाप के प्रति तुच्छता, अनादर, संर्किणता के भाव पैदा हो जाते है जो आगे चलकर उनके स्वभाव और व्यिक्त्तव के अंग बन जाते है। अत: कभी भूलकर भी बच्चों से सामने माता-पिता तकरार, लड़ार्इ-झगड़े की बात प्रकट नहीं होने देनी चाहिए। बच्चे सर्वत्र अपने माँ-बाप, भार्इ, रिष्तेदार, पड़ोसी सभी से प्यार और दूलार पाने की भावना रखते है। इसके विपरीत लड़ार्इ, झगड़े, क्लेष, अषांति से बच्चों के कोमल मानस पर आघात पहुँचता है। उदारता, प्रेम, आत्मीयता, बंधूत्व आदि की अनुकूल-प्रतिकूल भावनाओं का अंकुर बच्चों के प्रारंभिक जीवन में ही रम जाती है। जिन बच्चों को माँ-बाप का पर्याप्त प्यार-दुलार मिलता है, जिन पर अभिभावकों की छत्रछाया रहती है, जो माँ-बाप बच्चों के जीवन में दिलचस्पी प्रकट करते है, उनके बच्चे मानसिक विकास प्राप्त करते है। उनका जीवन भी उन्हीं गुणों से ओत-प्रोत हो जाता है, जिनमें वे पलते है। माता-पिता के व्यवहार आाचरण से ही बच्चों का जीवन बनता है। साहस, निभ्र्ाीकता, आत्म-गौरव की भावना बचपन में घर के वातावरण से ही पनपती है।
माँ-बाप के व्यसन, आदतों को अनुकरण बच्चे सबसे पहले करते है। माँ-बाप का सिनेमा देखना, ताष खेलना, बीड़ी, सिगरेट, फैषन, बनावट, श्रृंगार का अनुकरण कर बच्चे भी वैसा ही करने लगते है। इसी तरह माँ-बाप सदाचारी, संचमी, विचारषील, सद्गुणी होते है, वैसा ही प्रभाव उनके बच्चों पर पड़ता है।
परिवार के वातावरण में बच्चों के संस्कार, भाव, विचार, आदर्ष, गुण, आदतों का निर्माण होता है जो उनके समस्त जीवन को प्रभावित करते है। उपदेष और पुस्तकों से जीवन की महत्त्वपूर्ण षिक्षा नहीं मिलती, यह तो घरों के वातावरण को स्वर्गीय, सुंदर, उत्कृश्ट बनाने पर ही निर्भर करती है।
                                                युग निर्माण योजना दिसंबर 2012

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