Monday, December 31, 2012

समस्या हमारी-समाधान गुरूदेव के


समस्या- आत्मकल्याण के  इच्छुक  व्यक्ति को अपनी साधना का आरंभ क्या जप-तप से करना चाहिए?
समाधान- जप-तप आवश्यक तो है। आत्मकल्याण के लिए इनकी भी आवश्यकता है, पर यह ध्यान रखना चाहिए कि गुण-कर्म-स्वभाव में आवश्यक सुधार किए बिना न आत्मा की प्रगति हो सकती है और न परमात्मा की प्राप्ति। इसलिए आत्मकल्याण के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को आत्मचिंतन की साधना भी आरंभ करनी चाहिए और उसका श्री गणेश तप-त्याग जैसे उच्च आदर्श से नहीं, गुण-कर्म-स्वभाव का मानवोचित परिष्कार  करते हुए व्यक्तित्व को सुविकसित करने में संलग्न  होकर करना चाहिए।
                     (अध्यात्मवादी भौतिकता अपनार्इ जाए, पृष्ट -108)
समस्या-परिवार के सभी सदस्यों के स्नेह-सदभाव के सूत्र में लंबे समय तक बाँधे रखने के लिए क्या आवश्यक है? और उसके लिए क्या उपाय किया जाना चाहिए?
समाधान-सहयोग और सहकारिता के क्रिया-कलापों में वह शक्ति सन्निहित है, जो एक दूसरे केा परस्पर जोड़ती है, सहयोगी और मित्र बनाती है। वहीं तो वह प्रमुख आवश्यकता है जो परिवार के सभी सदस्यों को स्नेह-सदभाव के सूत्र में लंबे समय तक बाँधे रहती है। इन छोटी-छोटी घटनाओं को हर कोर्इ बहुत समय बीत जाने पर भी याद करता रहता है और कृतज्ञता की गहरार्इ तक  संजोए रहता है।
कृतज्ञता की गरिमा बहुत कम लोग समझ पाते है। याद तो उसे कोर्इ-कोर्इ ही रखते हैं। इसका उपाय यही है कि घर के लोग अपनी-अपनी सेवा-सहायता की चर्चा तो करें, पर दूसरों के द्वारा जो जिसकी जितनी सहायता बन पड़ रही है, वह किस सदभावना पर आश्रित है, इसका संकेत किया जाता रहे। अपने को छोड़कर घर के अन्य सदस्यों ने दूसरे साथियों के प्रति जो सदभावना बना रखी है, उस मनोदशा की चर्चा का क्रम भी चलते रहना चाहिए। इस प्रकार कृतज्ञता की मुरझाती बेल को  खींचने का सुयोग बन सकता है और एक दूसरे के लिए अधिक सदभाव उभारते रहने का अवसर मिल सकता है। यह  सदभावना ही किसी परिवार को समुन्नत बनाने की प्रमुख भूमिका अदा करती है।
                         परिवार निर्माण की विधि-व्यवस्था, पृष्ट-28
समस्या- किसी शक्तिशाली का नियंत्रण तो उससे अधिक शक्ति से ही हो सकता है, तब भला श्रष्टि को अपनी मुठ्ठी में करने वाली बुद्धिशक्ति का नियंत्रण करने के लिए कौन सी दूसरी शक्ति मनुष्य के पास हो सकती है?
समाधान-  मनुष्य की वह दूसरी शक्ति है- श्रृद्धा। जिससे बुद्धि जैसी उच्छृंखल शक्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है, उसका निंयत्रण किया जा सकता है। ध्वंस की ओर जाने से रोककर सृजन के मार्ग पर अग्रसर किया जा सकता है।
मानवता के इतिहास में दो परस्पर विरोधी ख्याति के व्यक्तियों के नाम पाए जाते है। एक वर्ग तो वह है, जिसने संसार को नष्ट कर डालने, जातियों को मिटा डालने और मानवता को जला डालने का प्रयत्न किया है। दूसरा वर्ग वह है, जिसने मानवता का कष्ट दूर करने, संसार की रक्षा करने, देश और जातियों को बचाने के लिए तप किया है, संघर्ष  किया है और प्राण दिया है। इतिहास के पन्नों पर आने वाले यह दोनों वर्ग निश्चित रूप से बुद्धिबल वाले रहे है। अंतर केवल यह रहा है कि श्रृद्धा के अभाव में एक की बुद्धिशक्ति अनियंत्रित होकर बर्बरता का संपादन कर सकी है और दूसरे का बुद्धिबल श्रृद्धा से नियंत्रित होने से सज्जनता को प्रतिपादन करता है।
                       व्यक्तित्व परिष्कार में श्रृद्धा ही समर्थ, पृष्ट 25
समस्या- उन्नति, प्रगति एवं विकास के लिए अनेकों कार्यक्रम और प्रयास किए जाते है, किंतु कभी प्रगति स्थायी नहीं रहती और कभी अगणित समस्याओं की उलझनें सामने आ जाती है। ऐसे में सफलता कैसे प्राप्त की जाए?
समाधान- आज हम उन्नति तो चाहते है, पर मानवीय सद्गुणों के विकास का प्रयत्न नहीं करते। समाज में  शांति और संपन्नता रहे यह सभी की इच्छा है, पर उसके मूल आधार पारस्परिक प्रेमभाव की वृद्धि का उपाय नहीं करते। भौतिक सुविधाओं में वह शक्ति नहीं है कि व्यक्ति को श्रेष्ठ बना दें पर अच्छे व्यक्तित्व में यह गुण मौजूद हैं कि वह संपन्नता का उपार्जन  कर ले। हम इस तथ्य को जब तक न समझेंगे, तब तक दौलत के पीछे भागते रहेंगे।  आदर्शवाद की उपेक्षा करके संपन्नता के लिए घुड़-दौड़ लगाने का परिणाम, लाभ के स्थान पर हानिकारक ही सिद्ध हो सकता है। यह दुनिया अधिक अच्छी, अधिक सुंदर, अधिक संपन्न, अधिक शान्तिपूर्ण  बने, यदि हम सब यही चाहते है तो फिर इस प्रगति के मूल आधार, व्यक्तित्व  की  श्रेष्ठता की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता, यही आश्चर्य है। प्रगति तभी स्थायी हो सकेगी, सुख-शांति  में तभी स्थिरता रहेगी, जब  मनुष्य अपने को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने का प्रयत्न करे। इस उपेक्षित तथ्य को अनिवार्य  आवश्यकता  के रूप में जब तक हम स्वीकार न करेंगे और व्यक्तित्व एवं सामूहिक चरित्र को उँचा उठाने के लिए कटिबद्ध न होंगे, तब तक अगणित समस्याओं की उलझनों से हमें छुटकारा न मिलेगा।
                          अंतरंग जीवन का देवासुर संगा्रम, पृष्ट-28
समस्या- मनुष्य जीवन में कभी उन्नति की ओर तो कभी पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। उन्नति की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति को मुख्य रूप से किस बात का ध्यान रखना चाहिए?
समाधान- यह मानव जीवन का निश्चित  नियम है कि जो अपना दृश्टिकोण विधेयात्मक बना लेता है, वह उन्नति की ओर और जिसका विष्वास निशेधात्मक होता है, वह पतन की ओर ही अग्रसर होता है। जिस कार्यक्रम अथवा उद्देष्य के प्रति जिस मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, जैसी भावना होती है, उसका परिणाम भी उसे तदनुरूप ही मिलता है। मनुष्य के शुद्ध मन में निर्माणात्मक एवं ध्वंसात्मक दोनों प्रकार की शक्तियाँ निहित रहती है, जो कि मनुष्य की भावना एवं विश्वास के अनुरूप जागकर ऊपर आ जाती है और अपने स्वरूप  की तरह ही प्रेरणा देने लगती है। हमारी जगी हुर्इ मानसिक शक्तियाँ यदि सृजनात्मक होंगी तो वे हमारे उत्साह का वर्धन करेंगी, हमें कार्य करने की अधिकाधिक क्षमता प्रदान करेंगी और यदि वे शक्तियाँ ध्वंसात्मक होंगी तो निश्चित  ही हमारी उदात्त्ा भावनाओं को  शिथिल  और बढ़ने की शक्ति, आशा एवं आकांक्षी व्यक्ति को भूलकर भी निशेधात्मक दृष्टिकोण द्वारा ध्ंवसक  शक्तियाँ जगाने की गलती नहीं करनी चाहिए।                                                                        
                     पुरुषार्थ  मनुष्य  की  सर्वोपरी  सामर्थय -पृष्ट-27   

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