Monday, February 22, 2021

महर्षि अरविन्द का साधकों को सन्देश

साधक- जब हम साधना में बैठते हैं, तो बहुत बार हमारा ध्यान ही नहीं लगता। साथ ही, साधना से जो अपेक्षित फल है- सुख, शांति, आनंद की अनुभूति, विचार रहित होना. ऐसी कोई अवस्था भी प्राप्त नहीं हो पाती है। हालाँकि में साधना में बैठने की बिल्कुल वही प्रक्रिया अपनाता हूँ, जैसी बताई गई है। फिर ऐसा क्यों होता है?

महर्षि अरविंद- बहुत बार ऐसा होता है, जब हम सोते हैं और सोकर उठते हैं, तो भी हमें सोने का लाभ नहीं मिल पाता। हमारा सिर भारी होता है, हमारी धकान दूर नहीं होती, हम अपने आपको ऊर्जावान महसूस नहीं करते। इसका सीधा सा कारण होता है कि हम ठीक तरह से सोये ही नहीं होते। सोने के लिए अनुकूल वातावरण, सही बिस्तर, पर्याप्त स्थान. सोने की अवधि, दिशा, मुद्रा सब मायने रखता है।

ठीक ऐसे ही खाना स्वास्थ्य वर्धन के लिए खाया जाता है। पर कई बार ऐसा होता है कि हम खाना खाकर रोगग्रस्त हो जाते हैं। हमें खाने से पूर्णतः लाभ नहीं मिलता। कारण? हमने खाने से सम्बन्धित जो सारे नियम हैं, उनका पालन ठीक से नहीं किया। क्या खाना है, कब खाना है और कितना खाना है- इनका पालन न करने से जुड़े फायदे नहीं ले पाते। आप खाने

उसी तरह से ध्यान-साधना भी एक आचार संहिता के साथ आती है। इसकं भी बहुत सारे नियम होते हैं, जिनका हमें पालन करना होता है। हम सोचें कि साधना में बस हम कमर-गर्दन सीधी और आँखें बंद करके बैठ जाएँ, तो उससे ध्यान सध जाएगा; ऐसा नहीं है। आपकी सम्पूर्ण दिनचर्या में आपका आचरण, आपका व्यवहार, आपकी संगति क्या रही इन सबका आपकी साधना पर असर पड़ता है। अगर आपने पूरे दिन तो तामसिक भोजन किया, तंबाक-सिगरेट-मदिरा का सेवन किया, लोगों से अपशब्द कहे, नकारात्मक सोच रखी, अश्लील चलचित्र देखो, वासनात्मक किताबे पढ़ीं या कुसंगति में रहे..। फिर रात को आंख बंद करके चौकड़ी लगाकर बैठ गए और कहें कि मेरा तो ध्यान ही नहीं लग रहा। मैं तो विचार रहित ही नहीं हुआ, मेरी एकाग्रता ही नहीं बन रही.... तो ऐसा संभव नहीं है। यह नामुमकिन है। साधना एक पैकेज की तरह है। आपको पूरे दिन अपने आहार-विहार-व्यवहार को शुद्ध रखना है; स्वयं को पल-पल सुमिरन व प्रार्थना से जोड़े रखना है- तभी साधना से अपेक्षित फल को प्राप्ति संभव है।


साधक- गुरुदेव, कई बार अध्यात्म का मार्ग बहुत नीरस लगता है और संसार में सरसता दिखाई देती है। तो ऐसे में क्या करें?

महर्षि अरविंद- मान लीजिए, एक शोध का कार्य है उस गहन शोध में एक वैज्ञानिक को रस आता है। वह उसमें इतना डूब जाता है कि उसे भूख-प्यास की भी होश नहीं रहती। उसके आसपास क्या घट रहा है, इसका भी भान नहीं रहता। वहीं एक नया छात्र यदि उन शोध पृष्ठों का अध्ययन करने लगे या प्रयोगशाला में उस शोधकर्ता के साथ खड़ा हो जाए, तो उसे कुछ ही मिनटों के बाद बेचैनी और घबराहट महसूस होने लगेगी। कारण? उसका बौद्धिक स्तर उतना नहीं है, जिस स्तर पर पहुँचकर शोध से रस मिलता है। पर यदि वह छात्र उस कार्य को नीरस और उबाऊ कहकर छोड़ देता है, तो? वह एक साधारण इंसान ही रह जाता है। कभी वैज्ञानिक नहीं बन पाता। इसके विपरीत यदि वह शोध कार्य में लगातार लगा रहता है, तो एक दिन उसके स्तर में वृद्धि हो जाती है और उसे उस शोध में आनंद आने लगता है। अन्ततः एक दिन शोध को पूरा करके वह इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है।

ठीक ऐसे ही, अध्यात्म मार्ग पर चलते हुए यदि हमें रस नहीं आ रहा, तो इसका मतलब यह नहीं है कि मार्ग नौरम है। इसका अर्थ यह है कि अभी हमने उस स्तर को नहीं पाया, जिस पर पहुँचकर रस को ग्रहण किया जाता है। क्योंकि इसमें तो कोई दो राय है ही नहीं कि अध्यात्म का मार्ग अत्यंत सरस है। हमारे ऋषि-मुनियों ने, तत्ववेताओं ने गधों में ऐसी अनेक चाणियाँ दर्ज की हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि ज्ञान का गार्ग परम सुन्दर और आनंदकंद है।

दरअसल, अध्यात्म का मार्ग सर्वोत्तम शोध का मार्ग है। ब्रह्मज्ञानी संत परम वैज्ञानिक होते हैं। उन्होंने ईश्वरीय शोध से उस अमृत रस को चखा होता है। परन्तु जिस स्तर पर इसकी प्राप्ति होती है, उस तक पहुँचना साधारण मनुष्यों के लिए सहज और सरल नहीं है। इसलिए आरम्भ में आपको यह पथ उबाऊ और नीरस लग सकता है। पर ऐसे में आप यदि इस पथ को छोड़कर चले जाएंगे, संसार के आकर्षणों में उलझ जाएंगे और अन्य माध्यमों में रस को खोजना शुरु कर देंगे, तो क्या होगा? आप भी एक साधारण मनुष्य की तरह जीवन जीकर, जीकर भी क्या वरन् व्यर्थ करके चले जाएँगे। यदि आपको इस जीवन की पूर्णता को पाना है, तो आपको भी एक पुरुषार्थी वैज्ञानिक की भांति प्रयासरत रहना होगा। जब आप डटे रहेंगे, तो एक दिन उस उच्च स्तर को पा ही लेंगे जिस पर पहुँचकर आपको यह मार्ग रस पूर्ण लगेगा। आप आनंद सागर में गोता लगा पाएँगे।

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