इस सत्य के उद्घाटन के पश्चात् भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते।।32।।
शब्दविग्रह- यथा, सर्वगतम्, सौक्ष्म्यात्, आकाशम्, न, उपलिप्यते, सर्वत्र, अवस्थितः, देहे, तथा, आत्मा, न, उपलिप्यते।
शब्दार्थ- जिस प्रकार (यथा); सर्वत्रव्याप्त (सर्वगतम्); आकाश (आकाशम्); सूक्ष्म होने के कारण (सौक्ष्म्यात्); लिप्त नहीं होता (न लिप्यते); वैसे ही (तथा); देह में (देहे); सर्वत्र (सर्वत्र); स्थित ही (अवस्थित); आत्मा-निर्गुण होने के कारण देह के गुण से (आत्मा); लिप्त नहीं होता (न लिप्यते)।
भगवान श्रीकृष्ण ने यहाँ जटिल तत्व को समझाने के लिए अति सरल उदाहरण दिया है। हम सभी अपने जीवन में इस भत्य को अनुभूति कर सकते हैं। आकाश हुए है। सब कुछ आकाश में होता इसके बाद भी आकाश की कुछ भी नहीं होता। गंदगी के ढेर को भी आकाश रहता है, लेकिन उस गंदगी से कभी भी आकाश गंदा नहीं होला। गंदगी के उस घर के हर जाने पर आकाश पहले की तरह यथावत् बना रहता है। इसी तरह खिले हुए, मुगध विवेरते फूल को भी आकाश पैरता है, लेकिन आकाश इस खिले हुए, सुगंधित फूल के सौंदर्य से भी अप्रभावित रहता है। फूल आज है, कल नहीं होता, पर आकाश की स्थिति में कोई अंतर नहीं आता।
आकाश के इस गुण के बारे में गहरी समझ का होना आवस्यक है। क्योंकि जो गुण आकाश का है, वही आत्मा का भी है। किसी भी स्पर्श से आकाश हमेशा स्पर्शरहित और अछूता बना रहता है। हम जब पत्थर पर लकीर खींचते है, तो वह लकीर वहाँ सैकड़ों साल तक बनी रहती है। पत्थर उस लकार को पकड़ लेता है। उसके साथ उसका तादात्य हो जाता लिकीर पत्थर में अमिट हो जाती है। सभी कहने बाली कहते "पावर की लकीर'। वही लकीर पानी पर खोचने पर खिंचती तो जहर है, पर उसी क्षण मिट भी जाती है। पानी लकीर को पकड़ता नही है चिते हो चह मिट जाती है। पानी में क्षण भर भी नहीं टिक पाती।
आकाश में लकीर खींचने की कोशिश करें तो वहाँ बनती भी नहीं । पानी पकड़ता नहीं, पर बनने जरूर देता है। पत्थर लकीर को बनने भी देता है और पकड़ता भी है। आकाश न तो लकीर को बनने देता है और न ही पकड़ता है। इतने पक्षी आकाश में उड़ते लेकिन उनमें से किसी के पदचिह्न आकाश में नहीं बनते । सृजन हो या परिवर्तन अथवा विनाश, आकाश को इनमें से कोई भी नहीं छ् पाता। आकाश हमेशा सब से अस्पर्शित, अछूता बना रहता है।
श्रीकृष्ण अपने वचन में आकाश के इसी गुण की बात कहते हैं। परमात्मा का यही गुण है। जो हमें बाहर आकाश की तरह दिखता है, वही भीतरी आकाश परमात्मा है। हमारे भीतर की चेतना कुछ इसी तरह है। इसे कुछ भी छूता नहीं है। हमारे कर्मों से इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जिस पर प्रभाव पड़ता है, वह चित्त है। उसमें पत्थर की तरह कर्मों व संस्कारों की लकीरें खिंचती रहती हैं, पर आत्मा की पवित्रता व शुद्धता-शाश्वत बनी रहती है। वह हमारे पुण्य, पाप, नैतिकता अथवा अनैतिकता से अकृती बनी रहती है। आत्मा की शुद्धि शाश्वत है। हमारे करने अथवा न करने से इसका कुछ भी बनने-बिगड़ने वाला नहीं है।
हमारे भले व बुरे से मन तादात्म्य बिठाता है। चित्त में इसकी लकीरें पड़ती हैं। शुभ व अशुभ की छाप इसी में पड़ती है। पुण्य व पाप का भागीदार- साझीदार यही होता है। सुख और दुःख, दोनों मन की भ्रांतियों के सिवा कुछ भी नहीं हैं। भीतर छिपी हुई आत्मा न तो सुख पाती है और न दुःख पाती है। वह सदा अपने ही रस में, अपने ही प्रकाश में लीन रहती है। न तो वह सुख में कंपित होती है और न ही दुःख में विचलित होती है। बात विचारणीय है, सत्य चिंतनीय है-यह भीतर कौन है, जो स्वयं हमारे में ही छिपा हुआ है। इसी की खोज, इसी का अनुसंधान अध्यात्म है। एक ऐसे बिंदु को पा लेना, जो सभी चीजों से अछूता है, अस्पर्शित है।
गाड़ी चलने पर गाड़ी का पहिया घूमता है, मीलों की यात्रा करता है, लेकिन गाड़ी के पहिये में जो कील है, वह बिलकुल भी नहीं चलती, बस, स्थिर रहती है। पहिया अच्छे बुरे सभी रास्तों पर चलता है। साफ रास्तों पर भी चलता है, गंदगी कीचड़ से भरे रास्तों पर भी चलता है, परंतु पहिये की कील प्रत्येक स्थिति में स्थिर रहती है। बस, कुछ इसी तरह से शरीर को कष्ट मिलता हैं, सुविधा भी मिलती है। मन दुःख का भी अनुभव करता है और सुख का भी अनुभव करता है, परंतु आत्मा सदा स्थिर रहती है।
शरीर के साथ यदि हमारा तादात्म्य गहरा होता है तो अनेकों शारीरिक कष्ट हमारे दुःख का कारण बनते रहते हैं। अगर हमारा तादात्म्य मन से गहरा होता है तो बहुत तरह की मानसिक व्यथाएँ, चिंताएँ हमें घेरे रहती हैं। यदि हम अपने को शरीर से अलग करने में सफल हो जाएँ तो शारीरिक कष्ट हमारे दुःख का कारण नहीं बनेंगे। इसी तरह से अपने को मन से अलग कर लेने पर हम भावों के तूफानों एवं वैचारिक झंझावातों को दूर खड़े रहकर देखते रहेंगे। शरीर और मन दोनों के पार खड़े होने पर पता चलता है कि यहाँ तो कभी कुछ हुआ ही नहीं। यहाँ तो सब कुछ अछूता, अस्पर्शित है। अगर कोई सृष्टि का पहला क्षण रहा होगा, तो उस दिन जितनी शुद्ध थी चेतना, उतनी ही शुद्ध आज भी है।
अभी तक हमने इस सच की कभी कोई अनुभूति नहीं की है। इसे जाना नहीं है, देखा नहीं है जिसकी हमें जानकारी है, जिसकी हमें अनुभूति है, वह शरीर अथवा मन है। यहाँ तक कि हम मन के संबंध में बहुत कुछ नहीं जान पाए हैं। शरीर के संबंध में अवश्य जानकारी इकट्ठी हो सकी है। मन की कुछ ही परतों का हमें पता चल सका है। अचेतन की परतें तो अभी तक अनजानी, अनछुई हैं। साक्षी होने का तो मतलब यह हुआ कि हम शरीर से भी अपने को तोड़ लें और मन से भी अपने को तोड़ लें। यह जोड़ ही दरअसल गलत है, वास्तविकता में तो हम जुड़े हुए हैं ही नहीं। इसीलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होकर भी अकर्ता और निर्लेप है। जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त होने पर भी आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, ठीक वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित होने पर भी आत्मा गुणातीत होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता है । प्रत्येक स्थिति में यह शुद्ध और अस्पर्शित है।
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