Monday, February 22, 2021

जीवनलक्ष्य की प्राप्ति का राजमार्ग पुरुषार्थ चतुष्य

             मानव जीवन बड़ा दुर्लभ है। मानव जीवन में ही हम जीवन के चरम को छू सकते हैं। जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। मानव जीवन में ही चेतना की शिखर यात्रा संभव है। अतः मानव जीवन मनुष्य के लिए ईश्वरप्रदत्त एक अमूल्य, अतुलनीय व अनुपम उपहार है।


            यह तो एकमात्र मानव जीवन ही है जिसमें भोग नहीं, बल्कि योग की प्रबल संभावना है और जीवन के परम लक्ष्य को पाने का अलौकिक अवसर भी है, पर ऐसा हो पाने के लिए आवश्यक है- जीवन में पुरुषार्थ।


            धर्म- प्रथम पुरुषार्थ है। धर्म अर्थात् धारण करना। जैसे, एक विशाल वटवृक्ष को उसकी जड़ धारण किए होती है, वैसे ही धर्म मानव जीवन की जड़ है, बुनियाद है, नींव है। उस धर्मरूपी जड़ से ही मनुष्य को मानवीय गुणों का, संस्कारों का खाद-पानी मिलता है। फलस्वरूप उसमें सद्गुणों व संस्कारों के मधुर पुष्प व फल लगते हैं।


            धर्म ही वह तत्व है जिसके कारण मनुष्य, मनुष्य बन पाता है और अपने स्वभाव में स्थित हो पाता है। जैसे- जल का स्वभाव है बहना, सूर्य का स्वभाव है तपना वैसे ही मानवता- मनुष्य का स्वभाव है, मनुष्य का स्वधर्म है। मानवता को आत्मसात् करना व मनुष्य का मनुष्य के स्वभाव में रहना ही मनुष्य का स्वधर्म है। यह धर्म ही है जिसके कारण मनुष्य आकृति के साथ-साथ प्रकृति से भी मनुष्य बन पाता है। सत्य, प्रेम, करुणा, सेवा, संवेदना, क्षमा आदि उसके आभूषण बन जाते हैं।


            धर्म के अभाव में मनुष्य, मनुष्य के जैसा दिख अवश्य सकता है, पर मनुष्य हो नहीं सकता। धर्म को धारण करना वाला व्यक्ति सदा-सदा के लिए अभय व अजेय होता है। दुर्गणों की दलदल से पार होकर वह व्यक्ति पुण्यपुरुष व प्रकाशपुरुष बन जाता है। ऐसे व्यक्ति चाहे अध्यापक, चिकित्सक, उद्योगपति, कलाकार, जवान, किसान व विज्ञानी कुछ भी हों, इनकी प्रतिभा व पुरुषार्थ से सारी वसुधा निहाल होती व धन्य-धन्य होती है। वे व्यक्ति व समाज को ऊँचा उठाने में अपनी सारी शक्तियाँ लगा देते हैं।


            द्वितीय पुरुषार्थ है- अर्थ। अर्थ अर्थात् धन। जीवन निर्वाह के लिए अर्थ की उपयोगिता है और आवश्यकता भी है। इसके बिना जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति संभव नहीं है, परन्तु सत्य यह भी है कि धन एक पवित्र शक्ति है। धन का स्त्रोत भी शुभ होना चाहिए और उसका व्यय भी शुभ-सात्विक कार्यों में होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो फिर धन या अर्थ, अनर्थ का कारण भी बन सकता है।


            काम- तृतीय पुरुषार्थ है। कार्म अर्थात् कामनाएँ, इच्छायें। भौतिक कामनाओं की, इच्छाओं की पूर्ति भी एक पुरुषार्थ है, परन्तु यह एक पडाव मात्र है, लक्ष्य नहीं। यह हमें हमेशा स्मरण रहना चाहिए। कामनापूर्ति में संयम व नैतिकता का अंकुश अवश्य होना चाहिए।


            मोक्ष- अंतिम पुरुषार्थ है, जीवन का चरम व परम लक्ष्य है। मोक्ष अर्थात् अज्ञान का संपूर्ण अभाव। वासनाओं, कामनाओं का संपूर्ण अभाव। आसक्ति का संपूर्ण अभाव व परमानंद की प्राप्ति। धर्म से मोक्ष तक की यह यात्रा काम, क्रोध, मद, मोह, दंभ, दुर्भाव, द्वेष आदि कई दुर्गम घाटियों व समुद्री तूफानों से होकर गुजरती है। इसमें दुर्घटना की काफी संभावना है। जीवन का बेड़ा बीच मझधार में फंस सकता है, डूब सकता है। धर्म की उपेक्षा कर इस मार्ग पर चलने वाले मुसाफिर बहुधा इन्हीं घाटियों में आकर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं। कामनाओं, वासनाओं के भंवर में विलीन हो जाते हैं, फिर हताश-निराश होकर जीवन के परम लक्ष्य को पाए बिना ही इस संसार से विदा हो जाते हैं। मनुष्य के लिए सचमुच यह कितना अफसोसजनक है! कितना शरमनाक है! कितना दुर्भाग्यपूर्ण है! परन्तु अब पछताने से क्या लाभ? जैसा कि कहा गया है-


            अब पछताए होत क्या


                        जब चिड़िया चुग गई खेत।


            अतः विवेकवान लोग अपने जीवन के प्रारंभ से ही सदा अपने जीवन लक्ष्य के प्रति सजग रहते हैं। जीवनलक्ष्य को पाने के लिए सदैव तत्पर व उस दिशा में शनैः-शनैः आगे बढ़ते ही रहते हैं। पेट, प्रजनन व परिवार की चहारदीवारी को तोड़ किसी सत्पुरुष के मार्गदर्शन में, धर्मपथ पर, योगपथ पर, अध्यात्म पथ पर चल पड़ते हैं और अंततः अपने दृढ़ संकल्प व प्रचंड पुरुषार्थ के बल पर जीवनलक्ष्य को प्राप्त कर ही लेते हैं। यही है चेतना की शिखर यात्रा, जो धर्म से शुरु होकर मोक्ष तक पहुँचती है। यही है जीवन का शीर्ष, जीवन का परम लक्ष्य।

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