Sunday, December 9, 2012

कुण्डलिनी साधना की महत्ता पात्रता एवं कठिनाइयाँ-V


3. अंहकारपरक असन्तुलन (Ego Problems):
जो साधक मूलाधर व अनाहत की विकृति से बच निकलते हैं, कई बार आज्ञा चक्र पर आकर उलझ जाते हैं। ऐसा साधक शक्तिशाली होता है अनेक प्रकार की शक्तियां, सिद्धियाँ जब उसको मिलने लगती हैं तो वह अहंकारी होने लगता है। मैं इतना शक्तिशाली हूं। लोग मुझे इतना मानते हैं। मैं यह कर सकता हूं आदि-आदि। इस प्रकार के विचारों को पालना प्रारम्भ कर देता है। अपने अहं में वह व्यर्थ में दूसरों से टकराने लग जाता है। ऐसे व्यक्ति की ऊर्जा तीन बातों में बिखरने लग जाती है - एक तो वह अनावश्यक अपने को बड़ा सिद्ध करने के चक्कर में दूसरों को नीचा दिखाने लगता है। दूसरे कई बार उसके पास महिलाएं बड़ी संख्या में एकत्र होने लगती हैं जिनमें वह रस लेने लग जाता है, यह पुन: उसको वासना के दलदल में खींच सकता है। तीसरे कई बार वह बहुत क्रोधी हो जाता है, मान-अपमान के चक्कर में जा फंसता है। छोटी-छोटी बातों में लोगों का अहित करने लगता है। इस संदर्भ में राजा विश्वरथ का उदाहरण सटीक है। वे ऋषि स्तर तक पहुंचने की साधना कर रहे थे व मूलाधर व अनाहत से ऊपर जाकर सिद्धियाँ अर्जित करने लगे थे। उस समय उन्होंने उल्टे-सीधे संकल्पों में अपनी ऊर्जा खर्च करना प्रारम्भ कर दिया। वशिष्ठ को नीचा दिखाने के चक्कर में उन्होंने त्रिशंकु​ को जीते जी स्वर्ग में भेजने का संकल्प कर डाला। जब उसमें सफल नहीं हुए तो नयी सृष्टि की रचना करना प्रारम्भ कर दिया। अपने अहम् को सन्तुष्ट करने के लिए वो परमात्मा के विधान के विपरीत कार्यों में ऊर्जा लगाने लगे। इसी प्रकार तरह-तरह की अप्सराएं उनके पास आने लगी और वो उनमें से एक अप्सरा, (मेनका) के चक्कर में फंसकर अपना तेज खो बैठे। महर्षि दुर्वासा भी इसी प्रकार क्रोध के वश होकर अपनी ऊर्जा नष्ट करते रहते थे।
इस प्रकार की उलझनों से बचने का एक ही मार्ग है- इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। तभी साधक की ऊर्जा आज्ञा चक्र से सहस्त्रार में पहुंचेगी व सहस्त्रदल कमल का विकास होगा। स्वयं के भीतर उसको गुरु को/ मार्ग-दर्शक को/इश्वरी सत्ता को विकसित करना चाहिए। उन्हीं को कर्त्ता मानना चाहिए। साधक को भावना करनी चाहिए।
मैंसमाप्तहोताहूं, आपजीवितहोतेहैं।
ऊर्जा का सहस्त्रार में गमन बड़ा ही आनन्ददायी होता है। इसे ब्रह्मानन्द की संज्ञा दी जाती है। बड़ी ही सुखद व शान्ति की स्थिति होती है। बाह्य जगत् व उसकी समस्त गतिवि​धियों से वह कट जाता है। इसे ही पूर्ण अन्तर्मुखी अवस्था अथवा पूर्ण èयान की अवस्था कहा जाता है। कहते हैं यदि कुछ क्षण (Seconds) भी èयान लग जाए तो बड़ी शक्ति उत्पन्न होती है। यह इसी अवस्था में सम्भव है। कुण्डलिनी आकर सहस्त्रादल कमल में बैठ जाती है व साधक शक्तियों, सिद्धियाँ का असीम भण्डार बनता चला जाता है।
कुण्डलिनी जागरण की विधि-
अभी तक कुण्डलिनी जागरण के लिए पात्राता व कुण्डलिनी जागरण की कठिनाइयों व उपलधियों​ पर विचार किया गया। जो अपने को सुपात्र समझते हों व इस ओर कदम बढ़ाने का साहस करना चाहते हों, उनके लिए सर्वसुलभ विधि वर्णन किया जाएगा। इससे पूर्व एक पौराणिक कथा का वर्णन करना आवश्यक है। संक्षेप में कथा इस प्रकार है-
एक बार देवताओं व असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन करने की ठानी गई। मदिराचल पर्वत के चारों ओर शेषनाग को लपेटकर विशाल मथानी बनायी। एक सिरा देवताओं ने पकड़ा, दूसरा सिरा दानवों ने। समुद्र मंथन के दौरान अनेक बहुमूल्य रत्नों की प्राप्ति हुई। ये रत्न देव-दानवों ने आपस में बांट लिये। हलाहल विष भी निकला जिसको भगवान् शिव पी गए। अमृत निकला जिसको दानवों से बचाकर देवताओं को पिलाया गया जिससे देवता अमर हो गए। परन्तु एक दो असुर (राहु, केतु) भी अमृत पी गए, जिस कारण वो भी अमर हो गए। इसका तत्व दर्शन इस प्रकार है। समुद्र मंथन से तात्पर्य कुण्डलिनी मंथन/जागरण से है। कुण्डलिनी मंथन के लिए देव व दानव दोनों प्रकार की शक्तियों की आवश्यकता होती है। देव शक्ति प्रतीक हैं- दिव्य गुणों की दिव्य भावनाओं की। साधक के भीतर दिव्य भावनाओं का स्त्रोत विद्यमान होना चाहिए। दिव्य भावनाओं से अर्थ है- परमार्थ की भावना, सबके भले की भावना, संतोष की भावना, त्याग की भावना, सहयोग की भावना, नि:स्वार्थ प्रेम की भावना, क्षमाशीलता की भावना, पवित्राता की भावना आदि-आदि। इसी प्रकार असुर शक्ति प्रतीक है- तप, कठोरता,संकल्प शक्ति, बलिदान, वीरता और निर्भयता का। साधक जहां दिव्य भावनाओं से परिपूर्ण हो वहां कठोर तपस्वी भी होना चाहिए। साधक में असुर भाव का समावेश भी होना चाहिए। यहाँ असुर भाव से अर्थ है- पुरुषाथी होना चाहिए, साहसी होना चाहिए, कठिनाइयों में घबराना नहीं चाहिए, कष्ट सहिष्णु होना चाहिए, इन्द्रिय संयमी होना चाहिए, मन की इच्छाओं के प्रतिकूल चलने वाला होना चाहिए, दृढ़ संकल्पी होना चाहिए, वीर भाव से ओत-प्रोत होना चाहिए, आत्मविश्वासी व धेर्यवान होना चाहिए।
ऐसा साधक, जिसमें देव व दानव दोनों तत्वों का समावेश हो, ही कुण्डलिनी मंथन करने में सक्षम व सफल हो सकता है। यही इसका आधर है। मदिराचल के चारों ओर शेषनाग लिपटे हैं। यह कुण्डलिनी शक्ति के ही आकार (Shape) का वर्णन हैं जो सूक्ष्म शरीर में विराजमान हैं। कुण्डलिनी मंथन के दौरान अनेक प्रकार की शक्तियों का विकास होने लगता है। ये दिव्य रत्न हैं जिनको देव व दानव दोनों अर्जित करना चाहते हैं अर्थात् रत्नों/शक्तियों के सदुपयोग व दुरुपयोग की सम्भावना विद्यमान है। इतना ही नहीं यह साधना कभी-कभी अनियन्त्रित (Uncontrolled) भी हो जाती है जिससे कभी-कभी साधक की बड़ी दुर्दशा होती है। यह अनियन्त्रण ही हलाहल विष है जिसको निपटाने के लिए शिव चाहिए। शिव उस आèयात्मिक शक्ति/गुरु का नाम है जो लोक कल्याण के लिए पूर्णत: समर्पित है। ऐसा सक्षम/समर्थ गुरु ही इस विष का पान कर सकता है अर्थात् इस दुर्गति से साधक को उबार सकता है। अन्त में अमृत अर्थात् अमरता की उपलब्धि होती है अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अमृत देवताओं में बंट जाता है अर्थात् धरती पर सदा देवत्व (सतोगुण) विराजमान/प्रधन रहेगा। अमृत छल से दो असुर (राहु, केतु) भी पी गए। वो भी अमर हैं अर्थात् धरती पर असुरता (तमोगुण) भी रहेगा, परन्तु अल्प मात्रा में। कभी-कभी ग्रहण लगता है अर्थात् देवत्व पर असुरत्व हावी होने का प्रयास करता है यह स्थिति बहुत थोड़े समय ही रह पाती है जैसे ग्रहण का प्रभाव कुछ ही समय रहता है। आज भी असुरता देवत्व को निगलने का प्रयास कर रही है। इस कारण ज्ञान का प्रकाश धीमा पड़ गया है। जब ग्रहण लगता है तो सूर्य व चन्द्रमा की रोशनी मंद होने लगती है। इस कथन के माèयम से हमारे ऋषियों ने बड़े ही अलंकारिक ढ़ंग से कुण्डलिनी जागरण व समाज की स्थिति का चित्रण किया है।
कुण्डलिनी के उपरोक्त दर्शन को समझते हुए यदि कुण्डलिनी जागरण का क्रिया-योग अपनाना चाहते हैं तो दोनों भौहों के बीच आज्ञा चक्र वाले स्थान में किसी ज्योति का अथवा उगते हुए सूर्य का, किसी प्रकाशपुंज का अथवा किसी देवी-देवता, महापुरुष का èयान करें, साथ-साथ गायत्री मन्त्र का का जाप करें। लगभग आध घण्टा तक यह जप, èयान किया जा सकता है यदि हिमालय की ऋषि आत्माएं चाहेंगी अथवा पूर्ण जन्मों की पात्राता होगी तो यह बिन्दु फलित होने लगेगा। इस आज्ञा चक्र वाले स्थान पर कुछ लक्षण प्रकट होने लगेंगे। इस बिन्दु पर मीठा-मीठा दर्द होना प्रारम्भ हो सकता है जो कुछ समय पश्चात तीव्र भी हो सकता है। इस बिन्दु पर कुछ प्रकाश दिखायी दे सकता है। इस बिन्दु पर हल्की-हल्की गुदगुदी/खुजली भी हो सकती है। फव्वारा छूटते दिखना अथवा चीटियां काटने जैसी अनुभूति भी हो सकती है। यदि इस प्रकार का कोई लक्षण उभरने लगे तो जप, èयान बढ़ाना चाहिए। आधा घण्टा इस बिन्दु पर èयान करने के पश्चात् ऊपर सहस्त्रार में èयान करना चाहिए। सहस्त्रार चोटी वाले स्थान पर थोड़ा नीचे की ओर होता है। यही अनुभूतियां (दर्द/ज्योति आदि) सहस्त्रार की ओर गतिमान हो सकती है। फिर यह दर्द सहस्त्रार से नीचे मूलाधर की ओर गतिमान हो जाता है। मूलाधर पर प्रसुप्त कुण्डलिनी पर चोट करके यह दर्द कुण्डलिनी को जगा देता है और यह कुण्डलिनी ऊपर उठकर सहस्त्रार की ओर भागती है। विशुद्धि चक्र तक इसका पथ चौड़ा होता है। आराम से वहां तक पहुंच सकती है, परन्तु इसके ऊपर का मार्ग अति संकीर्ण हो जाता है, अत: कुण्डलिनी जब अधिक शक्तिवान होती है तभी विशुद्धि से ऊपर की नाड़ियों को भेद पाती है।
कुण्डलिनी जागरण की इस प्रक्रिया में पहले दो-चार बार नाड़ी शोधन प्राणायाम कर लिया जाए तो मन शान्त होता है व शक्ति जागरण में सहायक होता है। आसन शारीरिक दृष्टि से तो लाभप्रद है, परन्तु कुण्डलिनी जागरण में महत्वपूर्ण नहीं है। किसी भी आसन में (जिसमें सुख से बैठा जा सके) बैठा जा सकता है। यहां पर जो विधि सामान्य तौर (General/Common) पर अपनायी जा सकती है, केवल उसका वर्णन किया गया है। जो कठिनाइयां सामान्य रूप से आती हैं उनका वर्णन किया गया है। कुण्डलिनी सा के गलत प्रयोगों से कई बार लोगों की नेत्र ज्योति चली जाती है, कान के पर्दे फट जाते हैं स्मृति (Memory) समाप्त हो जाती है।  कुण्डलिनी जागरण में व्यक्ति को अनेक प्रकार के अनुभव अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार होते हैं, उन सभी अनुभवों का वर्णन भी यहां पर नहीं किया जा रहा है। कुण्डलिनी जागरण करने के बहुत सारे और भी उपाय हैं विभिन्न प्रकार के कठोर अभ्यासों से कुण्डलिनी जागरण सम्भव है। बिना उचित मार्ग दर्शक के एवं बिना उचित मनोभूमि के इस प्रकार के अभ्यासों को नहीं अपनाना चाहिए। कुण्डलिनी के दर्शन को आत्मसात करना भी बहुत आवश्यक है तभी इससे महत्वपूर्ण सपफलताएं अर्जित की जा सकती हैं।
बहुत से लोग हठ योग द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत करती हैं। इससे कुछ साधको का तंत्रिका -तंत्र विकृत (Nervous Breakdown) हो जाता है। यदि साधक साल-दो-साल तक अपने अथक प्रयासों के बावजूद भी कुण्डलिनी की ऊर्जा संभालने में सपफल रहे तो उसे कुण्डलिनी जागरण के अभ्यास को छोडकर तुरंत निष्काम कर्म योग की ओर समर्पित हो जाना चाहिए। स्थिति बिगड़ते देख चिकित्सकों की शरण में जाने में भी संकोच नहीं करना चाहिए। यद्यपि कुण्डलिनी जागरण को चिकित्सक (Medical Doctors) स्वीकार नहीं करते परंतु दवाओं के द्वारा साध्क की अशांत अवस्था (Disturbed State) को नियंत्रित कर देते है। इस प्रकार की समस्याएं वहीं पर अधिक उत्पन्न होती हैं बिना उपयुक्त मनोभूमि का निर्माण हुए कुण्डलिनी महा शक्ति जाग जाती है।

(यह लेख विस्तार से जनवरी 2014 के  ब्लॉग मे दिया गया है, कृप्या पढ़े, Science & Mechanism of Kundlini Sadhna)    
(यह लेख पुस्तक 'सनातन धर्म का प्रसाद' से लिया गया है जो कि इस ब्लॉग के लेखक राजेश अग्रवाल जी द्वारा प्रकाशित की गई है। पुस्तक डाउनलोड की जा सकती है बिना किसी मुल्य के:-
http://vishwamitra-spiritualrevolution.blogspot.in/2013/02/blog-post.html
छपी पुस्तक मांगने की कीमत मात्र सॊ रूपए है, डाक द्वारा भेजी जाएगी)

3 comments:

  1. प्रभु प्रेम गली अति साकरी तामें दो न समाय। पहले मै था तो हरि नहि, अब हरि है मै नाहि। सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान। सरगुन निरगुन से है परे तहि हमारा ध्यान। ध्यान का अर्थ श्वास को देखना प्रश्वासको देखना। श्वास भीतर गयी देखना, श्वास बाहर गयी देखना। सिर्फ होश पूर्वक सांस को देखना। जब सांस को अंदर बाहर देखने की गहराई बढेगी, तो तूम्हे यह भी दिखाई पडेगा के सांस भीतर बाहर जाते वक्त बाहर और भीतर क्षण भर ठहरती है। एक छोटासा पल जब सांस भीतर और बाहर ठहरती है। उसी पल में द्वार खुलता है। उसी पलमें साक्षी का अनुभव होता है। क्योंकि सांस का ठहराव पलभर का ही सही, पल मात्र का ही होता है जो ध्यान के वक्त वर्तमान है अभी जहां देखने वाला ही बचता है और देखने वाला स्वयं को देखता है। तो द्रष्टा अपने आपको हि अनुभव करता है। उस अनुभूतिका नाम परमात्मा अनुभूति है।

    मेरो मन सकल सुख को ध्यावै पर कोई सुख हाथ ना आवे।

    અખિલ બ્રહ્માંડમાં એક તું શ્રી હરિ, જૂજવે રૂપે અનંત ભાસે,

    દેહમાં દેવ તું, તેજમાં તત્વ તું, શૂન્યમાં શબ્દ થઇ વેદ વાસે,

    પવન તું પાણી તું ભૂમિ તું ભૂધરા, વૃક્ષ થઈ ફૂલી રહ્યો આકાશે,

    વિવિધ રચના કરી અનેક રસ લેવાને, શિવ થકી જીવ થયો એ જ આશે.....

    Do you know what moksha is ? Getting rid of non existent misery and attaining the bliss which is always there, that is Moksha. जो जड वस्तुसे प्राप्त होता दु:ख जो कही नहीं है फिर भी अनुभव होता है, पर परमानंद जो सदासे प्राप्त है जीससे सब सुखदुखकी अनुभूति होती है वह परमानंदकी अनुभूति अर्थात मोक्ष है।

    सद्गुरु मेरे आत्मा परमात्मा ईश्वर परमेश्वर है, स्थूल दर्शन व्यर्थ है। लम् वम् रम् यम् हम् ૐ कुंडलिनी जाग्रत करनेके लिए दीए गये मंत्र है।

    एको अहम् ना द्वितियो अस्ति। ना भूतो ना भविष्यति ।। अहम् ब्रह्मास्मि ।।

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  2. बिन योग्य गुरु के कुण्डलिनी जगाना प्राण घातक सिद्ध हो सकता है आप को में एक वेबसाइट देता हु इसमें जाये फिर आपको कुण्डलिनी के बारे में और करने में आसानी होगी। यह गुरूजी मंत्र से शक्तिपात देते है फ्री में जो की वीडियो मिल जाएगा उस वेबसाइट में उसे जावे से और उनका ध्यान करने से एक ही बार में कुण्डलिनी जाग जाएगी।
    www.the-comforter.org

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  3. nmskar mai kundlini shakti se sambadhit kitab ke bareme janna chahta hun
    bahot dinose khoj kar rha hun
    krupaya maddat kijiye

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