ॐ भूर्भुव: स्व:।
तत्सवितुर्वरेण्यम। भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो न: प्रचोदयात् ।।
“जा पर कृपा तुम्हरी होई, ता पर कृपा करें सब कोई!!”
तेरे नगर की गलियों में
मै, इक दिन भूल से आ गया,
तूने अपनाया इतने प्यार
से, कि तू रूह में ही बसा गया|
वो याद है मुलाकात मुझे,
जब महफ़िल तेरी सजी थी,
वो दिन था, पहली बार मुझे
दुनिया परायी लगी थी|
सब कुछ भूल बैठा मै, पता
नहीं कब प्यार हुआ,
जीवन मरण हो गया समर्पित,
ऐसा तो इकरार हुआ|
अपनी छाती से लगाना,
जन्मों का सम्बंध जुड़वा गया,
तू मुझमें, मै तुझमें, न
जाने कैसे समा गया|
है तेरी अदभुत यह लीला,
कैसा रास रचा गया,
तेरे नगर की गलियों में मैं, एक दिन भूल से आ गया॥
“कौन सो संकट मोर गरीब को, जो तुमसे नहीं जात है टारो|”
अपना और सबका पोषण है- साधना!
मुकुंद अक्सर
स्कूल से आकर ध्यान में बैठ जाता था| कई बार तो स्कूल के बीच में भी किसी एकांत जगह
पर साधना करने के लिए चला जाता| जहाँ और बच्चे खेल-कूद के मौके ढूंढते, वही मुकुंद
ईश्वर-चिंतन और ध्यान-साधना के लिए उत्सुक रहता| मुकुंद की इन बातो से खीझ कर, एक
दिन उसके बड़े भाई अनन्ता दा ने कड़ी आवाज में कहा- ‘मुकुंद, यह ध्यान-त्यान क्या लगा रखा है? मैं बता रहा हूँ,
इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला है| अब भी समझ लो, इस तरह तुम्हारा जीवन बस एक सूखे
पत्ते की भांति बनकर रह जाएगा...... जिसकी कोई कीमत नहीं होती! जो बस इधर-उधर
भटकता रहता है|’
जैसे ही यह सुना,
मुकुंद बोला- ‘भैया, वैसे सूखे पत्ते ही बढ़िया खाद बनाते है, जो पेड़-पोधों को पोषण
देती है....|’ आगे चलकर यही मुकुंद “योगानंद परमहंस” बने, जिन्होंने पुरे विश्व को अध्यात्मिक पोषण प्रदान
किया|
यह बात पूर्णत:
प्रमाणित है कि साधना में लगया गया समय व्यक्ति की कीमत को गिरता नहीं, बल्कि उसे
सबसे मूल्यवान बना देता है| साधना व्यक्तिगत निर्माण तो करती ही है, समस्त
मानवजाति के कल्याण हेतु भी पोषण प्रदान करती है|
इसलिए साधकों,
आओ! स्वहित व सर्वहित के लिए साधना करे! खुद के निर्माण तथा विश्व के उत्थान के
लिए साधना करे!
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पेड़ो की ऊँची
डाली पर नारियल लटका था| उसने नीचे नदी में पड़े पत्थर को देखकर कहा- “ओ पत्थर! यह नदी तुम्हे क्या देती है? इसकी धाराओं के रोज
पड़ते प्रहारों से तुम घिस-घिसकर मर जाओगे, लेकिन नदी नहीं छोड़ोगे| अपमान सहने की
भी कोई सीमा होती है या नहीं| मुझे देखो, कैसी शान से आसमान में बैठा हूँ|”
पत्थर ने उसकी बात सुनकर भी अनसुनी कर दी|
कुछ दिनों बाद नारियल ने देखा कि नदी का वही पत्थर शालग्राम के रूप में मंदिर में प्रतिषिठत
है, जिसकी पूजा के लिए उसे सामग्री के रूप में लाया गया है| इस बार पत्थर बोला- “नारियल भाई! देखो घिस-घिसकर परिष्क्र्त होने वाले प्रभु के
अनन्य बनते है और आदर के पात्र बनते हैं; जबकि अंहकार के मतवाले अपने ही दंभ से
पीड़ित होकर नीचे आ गिरते हैं|” भगवन की दृष्टि
में मूल्य समर्पण का है, अंहकार का नहीं|
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एक व्यक्ति घने
जंगल में भागा जा रहा था| शाम का समय था| जंगल में घना अंधेरा था| अंधेरे के कारन
रस्ते में उसे कुआँ दिखाई नहीं दिया और वह उसमें गिर गया| गिरते-गिरते उसके हाथ में
कुंए पर झुके ब्रक्ष की एक डाल आ गई| नीचे झाँका तो देखा कि कुंए में चल विशाल
अजगर मुंह फाडे ऊपर की तरफ तक रहे थे| वह जिस डाल को पकडे हुए था, उसे भी दो चूहे
कुतर रहे थे| इतने में एक हाथी कही से आया और ब्रक्ष के तने को हिलाने लगा| वह
सिहर उठा|
उस ब्रक्ष के ठीक
ऊपर की शाखा पर मधुमक्खी का छत्ता था| हाथी के हिलने से मक्खियाँ उड़ने लगीं| छते
से शहद की बुँदे टपकने लगी| एक बूंद शहद उसके होठों पर गिरा| उसने प्यास से सुख
रही जीभ को होंठो पर फेरा| शहद की उस बूंद में अदभुत मिठास थी| उसने मुंह ऊपर किया,
कुछ क्षणो बाद फिर शहद की बूंद मुंह में टपकी| वह इतना मग्न हो गया कि विपत्तियों
को भूल ही गया|
उस जंगल से
शिव-पार्वती अपने वाहन से गुजर रहे थे| पार्वती जी ने भगवान शिव से उसे बचा लेने
का अनुरोध किया| भगवान शिव ने उसके निकट जाकर कहा- “आओ, मै तुमे बाहर निकालता हूँ, मेरा हाथ पकड़ लो|” उस व्यक्ति ने कहा- “बस, एक बूंद शहद की और चाट लूँ| फिर मुझे निकल देना|” हर बूंद के बाद अगली बूंद की प्रतिषा चलती रही| अंत में उसे
छोड़कर भगवान शिव वहा से चले गए और वह व्यक्ति वहीं फँसकर रह गया|
यह कहानी
प्रतीकात्मक अर्थ लिए हुए है| इसमें व्यक्ति जीवात्मा है, वह जिस जंगल से गुजर रहा
है, वह दुनिया है और अँधेरा है अज्ञान कुआँ उस जीवात्मा का जीवन है, जिसमे वह गिर
पड़ा है| इसमें पड़े हुए अजगर मृत्यु के प्रतिक है, जो उसे कभी भी अपना ग्रास बना
सकते है| पेड़ की डाली आयु है, दिन-रात रूपी चूहे उसे कुतरते है| अभिमान का मदमत्त
हाथी उस पेड़ को उखाड़ने में लगा हुआ है| शहद की बुँदे संसार सुख है, जिसके कारण मनुष्य
आस-पास के खतरे को अनदेखा करता है और उस आभासी सुख की माया में खोए मनुष्य को
स्वंय भगवान भी बचा नहीं पाते|
इस तरह मोह और एषणा हमें माया की दलदल से
उबरने नहीं देतीं और मनुष्य जीवन की वास्तविकता का एहसास भी नहीं होने देतीं| जिस
तरह मक्खी या चींटी, गुड की चाशनी में एक बार चली जाए तो फिर वहा से वह निकल नहीं
पाती और अतंत उसकी वही मृत्यु हो जाती है, ठीक उसी तरह माया के मोह में जीवात्मा पद
जाता है और फिर निकल नहीं पता| यह मोह आसक्ति ही है, जिससे बचने के लिए भगवान श्रीकृष्ण
श्रीमद्भगवद्गीता में बार-बार कहते है कि आसक्ति से रहित होकर कर्म करो, क्योंकि
आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है (गीता
३/११)|
इसलिए जो
व्यक्ति इस संसार-सागर से अपना उद्धार चाहते है, वे मोह का त्याग करते है, संसार की
समस्त कामनाओं का परित्याग करते है और केवल परमेश्वर को भजते है, उन्हें पुकारते
है, उनसे अपनी मुक्ति के लिए प्रार्थना करते है| यही माया से मुक्ति का एकमात्र मार्ग
है|
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