मॉस मनुष्य की प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है| उसकी शरीर रचना विशुद्ध
शाकाहारियों की है| न उसके नाख़ून हिंसक जीवों जैसे है, न दांत, न वह कच्चे मॉस को
पचा सकता है और न उसकी जीभ रक्त मॉस में रूचि लेती है| मिर्च मसालों की सहायता से
उबाल पकाकर उसे कहने योग्य कोई भले बना ले| अपने स्वाभाविक रूप में न मॉस मनुष्य को
रचता है, न पचता है| प्रकृति के विपरीत आहार यदि जबरदस्ती किया भी जाए तो उससे कभी
किसी का कुछ लाभ नहीं हो सकता| वह शारीरिक और मानसिक विक्रतियाँ ही पैदा करेगा|
मॉस का प्रोटीन मनुष्य के लिए सबसे घटिया किस्म का प्रोटीन है| इससे अच्छे जीवन
तत्त्व तो फल, मेवा, शाक, घी, दूध, दाल, अन्न आदि में मौजूद है| जो सस्ते भी है
सात्विक भी और पौष्टिक भी| यह भ्रम नितान्त अज्ञानमूलक है कि मॉस खाने से मनुष्य
बलवान बनता है| यह बुढ़िया मान्यता आज से कई वर्ष पूर्व के बाल-बुद्धि शारीरशास्त्रियों
की है| आज की नवीनतम शोधें यह प्रतिपादन बड़े साहसपूर्वक कर रही है कि मॉस मनुष्य
के लिए नितान्त हानिकारक पदार्थ है| शारीर के लिए ही नहीं मानसिक स्थिति को अवांछनीय
बनाने का भी उसमे भारी दोष है| अगले दिनों जैसे-जैसे शारीर-शास्त्र की-आरोग्य-शास्त्र
की शोध अधिक गहराई से और बारीकी से होने लगेगी तो यह निष्कर्ष पूरी तरह सामने आ
जावेगा कि मॉस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है|
मॉस उपार्जन के लिए जो शक्ति लगानी
पड़ती है उससे बहुत कम में अधिक पौष्टिक और अधिक अच्छा खाध उगाया जा सकता है| मॉस
महंगा है, उससे कहीं सस्ते कहीं अधिक स्वादिष्ट, कहीं अधिक पौष्टिक दुसरे पदार्थ मौजूद
है और वे आसानी से पाये और बढायें जा सकते है| फिर मॉस की ऐसी क्या जरूरत रह जाती
है| जिसके लिए मनुष्य को जिव-हत्या जैसे न्रशंस क्रूर-कर्म में प्रव्रत होना पड़े?
अंडा और मॉस का प्रचलन आज फैशन के नाम पर ही बढ़ रहा है वस्तुत: उपयोगिता की दृष्टि
से यह पदार्थ दो कौड़ी मूल्य के हैं|
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