Friday, March 4, 2016

विजय कृष्ण गोस्वामी ओर तैलंग स्वामी PART-IV

     बंगाल में अनेक सन्तों की ख्याति है जिनमें लोकनाथ ब्रहमचारी, श्यामाचरण लाहिडी प्रभुपाद विजय कृष्ण गोस्वामी ओर स्वामी रामकृष्ण परमहंस प्रमुख है। प्रभुपाद विजय कृष्ण गोस्वामी भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के दादा गुरु थे। विजय कृष्ण गोस्वामी के योग साधना के मार्ग पर तैलंग स्वामी ने ही लगाया था। एक जमाना था जब गोस्वामी जी कहर ब्रह्म समाजी थे। सम्पूर्ण बंगाल उन्हें ब्रहम समाज के नेता के रूप में जानता था। आगे चलकर उन्होंने ब्रहम समाज छोड़ना पूर्ण योगी व भक्त का जीवन जिया।
     उन दिनों गोस्वामी जी के मन में आध्यात्मिक उन्नति व सन्तों के दर्शन की इच्छा उत्पन्न हो रही थी। आप इसकी पूर्ति हेतु काशी आए। प्रथम दर्शन में तेलंग स्वामी ने इनके ऊपर कीचड़ व मेला फेंक दिया ताकि घृणावश वो उनके पास न जाएँ। परन्तु बाद में इनमें आपस में पर्याप्त प्रेम हो गया था।
     एक दिन गोस्वामी की तेलंग स्वामी से पूछा-‘‘मैं अपने गुरु की तलाश में निकला हँू। ब्रहम समाजी होने के कारण कोई मुझे शिष्य नहीं बनाता एवं बिना गुरु के पूण्ज्र्ञ ज्ञान होना सम्भव नहीं है।’’
     इसके उत्तर में स्वामी जी बोले-‘‘गोस्वामी तुममें वो लक्षण प्रस्फुटित हो रहे हैं जो ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक है। परन्तु इस तरह गुरु की तलाश करना व्यर्थ है। मैं जानता हूँू तुम्हारे वास्तविक गुरु कौन है। समय आने पर वे तुम्हें अपने पास बुला लेगें। उससे पहले तुम्हें स्वयं को उस लायक बनाना होगा। सर्वप्रथम तुम गुरु की महत्ता जानो। इतना कहने के पश्चात् उन्होंने अपने सेवक मंगल के दरवाजा बन्द करने के लिए कहा जिसमें कोई भीतर न आने पाए। इसका कारण यह था कि गुरु की महत्ता जान अन्य लोग भी स्वामी जी को अपना गुरु बनाने का आग्रह करने लगते।
     तैलंग स्वामी बोले-‘‘गुरु शब्द का अर्थ है-ग से गतिदाता, र शब्द सेे सिद्धिदाता ओर 3 शब्द से मुक्तिदाता। अर्थात् जिसके सम्पर्क से साधना में गति मिले, जो साधना के सिद्धि की ओर ले जाए ओर मुक्तिदाता बन अज्ञान रूपी अन्धकार के जीवन से नष्ट कर सके। शिष्य के भवसागर से पार कराने की पूरी जिम्मेदारी गुरु की हो जाती है। इसलिए गुरु के शिष्य व शिष्य के गुरु बहुत सोच विचारकर ही बनाना चाहिए। गुरु ही विधाता है, गुरु ही माता पिता है, गुरु के द्वारा ही आत्मज्ञान शिष्य पूर्ण मनायोग से गुरु की सेवा करें।’’
     गोस्वामी जी ने हँसते हुए कहा- ‘‘ऐसे गुरु आजकल मिलते कहाँ है? आजकल के गुरु तो पहले यह देखते है कि चेला जिनता मालदार है, वेतन कितना पाता है, दान दक्षिणा कितनी दे सकता है।’’
     तेलंग स्वामी बोले- ‘‘यह सत्य है कि गुरु बनना आजकल एक व्यवसाय हो गया है। ये लोग कर्म दोष से गुरु पद की हानि कर रहे हैं। शिष्य का उद्धार न करने से गुरु के महापाप होता है। जब तक शिष्य करबद्ध होकर प्रार्थना न करे, शिष्य के पूरा परखा न जाय तब तक दीक्षा देने की शीद्य्रता नहीं करनी चाहिए। आजकल गुरु के चेले अन्य लोगों को पकड-पकड़कर आश्रम लाते है व जबरदस्ती दीक्षा दिलवाते है, जो महापाप है। इसके पीछे आर्थिक लोभ व अहं ही एक मात्र कारण होता है इसके बाद शिष्य ठीक से जप कर रहा है या नहीं, कोई विघन तो नहीं हो रहा है, कितनी प्रगति हुई? इन सभी बातों का गुरु कोई ध्यान नहीं रखते।’’
     गोस्वामी जी ने पूछा- ‘‘ऐसे सद्गुरु की पहचान हम कैसे कर सकेंगे? शिष्य तो अज्ञानी होता है सद्गुरु की पहचान कैसे कर सकते है?’’
     तेलंग स्वामी ने कहा- ‘‘भगवान के लिए अगर तुम्हारा हृदय व्याकुल होगा तब निश्चित है कि भगवान तुम्हारा सहायक बनकर सद्गुरु से मुलाकात कर देंगे। सद्गुरु राह चलते नहीं मिलते। प्राचीन काल में सद्गुरुओं का अभाव नही था। सशिष्य बिना बने सद्गुरु नहीं मिलते। उपयुक्त गुरु न होने के कारण ही मानव की यह दुर्दशा है। सडे गते बीज को पौधेजन्म नहीं लेते, इसलिए बीज का चुनाव ठीक से करके ही दीक्षा लेनी चाहिए। दीक्षा देना व दीक्षा लेना दोनों ही सहज कार्य नहीं है।’’
     गोस्वामी जी ने कहा- ‘‘फिर तो जैसे सद्गुरु के बारे में आपने बताया है, ऐसे गुरु का मिलना ही असंभव प्रतीत होता है।
     तेलंग स्वामी ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। गोस्वामी जी तेलंग स्वामी के साथ रात्रि में कई बार ठहर जमा करते थे। वे रात्रि में उनके योगश्वर्य दिखाया करते थे। एक दिन गोस्वामी जी बोले- ‘‘आप मुझे इतनी योग विभूति दिखाते हो, पर मुझे विश्वास नहीं होता। कुछ ऐसा करें कि इन घटनाओं पर मेरा विश्वास जम जाए व मेरे भी योगमार्ग पर श्रद्धा टिक जाए।’’
     रात के एक बज चुके थे। भंयकर सर्दी की। अचानक तेलंग स्वामी बोले- ‘‘विजय जाओ, गंगा स्नान करके आओ, देर मत करो।’’ इस पर गोस्वामी जी बोले आधी रात को इतनी सर्दी में नहाकर मरना थोडे ही है।
     तेलंग स्वामी ने कहा- ‘‘मेरी आज्ञा है जाओ।’’
     गोस्वामी जी बोले कि वह इस समय नहाने नहीं जा पाएँगे, उन्हें रोगी होने का भय लगता है। तेलंग स्वामी तैश में आइाए- ‘‘क्या कहा, नहाएगा नहीं? तेरे योग मार्ग पर चलने की शभु घड़ी आ गयी है। तू इतने दिन से योगमार्ग पर चलने की इच्छा व्यक्त कर रहा है व अब भयभीत हो रहा है। मैं तुझे अभी दीक्षा दूँगा।
     गोस्वामी जी बोले- ‘‘आपने तो कहा था कि मेरा दीक्षा गुरु कोई और है। आपसे में दीक्षा क्यों लूँगा? आप तो खडे़-खड़े शिवलिंग पर पेशाब करते हैं।’’ परन्तु तेलंग स्वामी ने विजय गोस्वामी का गला पकड़ा व गंगा किनारे ले जाकर डुबकी दिलाने लगे। बाद में सिर पर हाथ रखकर बोले- ‘‘विश्वास बन जाए’’। उसी दिन से गोस्वामी जी के मन में उत्पन्न हो गया। तब उन्होंने गोस्वामी जी के कान में तीन मन्त्र दिए व कहा- ‘‘तुम्हारे एक निर्दिष्ट गुरु हैं। वे ही तुम्हें यथासम्भव दीक्षा देंगे। यह तो साधना मार्ग का शुभरम्भ है। सिद्धि तक तुम्हें वही पहुचाएँगें।’’
     गोस्वामी जी ने पूछा- ‘‘बाबा यह बताइये कि मेरे वास्तविक गुरु कहाँ मिलेंगे?’’ ‘‘यह जानने से कोई लाभ नहीं। समय आने पर वे स्वयं तुम्हें बुला लेंगे या तुम्हारे पास चले आयेंगे। अपनी इच्छा से कोशिश करने पर तुम उनके पास नहीं पहुँच सकते। उनसे बीज मन्त्र पाने के बाद ही तुम्हारा साधक जीवन प्रारम्भ होगा। गोस्वामी जी ने कहा-‘‘अर्थात् जब तक मेरे वास्तविक नहीं मिलेंगे तब तक मुझे इधर उधर भटकते रहना पडेगा।’’
     तेलंग स्वामी ने कहा- ‘‘प्रतीक्षा तो करनी ही पडेगी। लेकिन इस बीच मेरे द्वारा दिए मन्त्र का जप करते रहेगें तो समय की दूरी कम हो जाएगी। सुबह ओर शाम दोनों समय शान्त भाव से बीज मन्त्र का जप करें। अधा घण्टा से प्रारम्भ कर तीन घण्टा तक बढ़ाते जाएँ अथवा तब तक समय बढ़ाएँ जब तक आलोक दर्शन न हो जाए। मुझसे यह नही हो सकेगा यह कहने से काम नही चल सकेगा। योग साधना सामान्य प्रक्रिया नही है। मुझे जितना करना था उसे पूरा कर दिया।’’ इसके पश्चात् गोस्वामी जी ब्रहम समाज के किसी हेतु गया गए। उनका अतृप्त हृदय बराबर उस गुरु की तलाश में लगा रहा जिसके बारे में अधिकांश साधक आश्वासन देते आ रहे थे। यहाँ गया में उनको पता चला कि समीप आकाश गंगा पर्वत पर अनेक सिद्ध योगी रहते है। यहाँ उनकी मूर्ति एक अद्भुत संन्यासी से हुयी। वो अपने आसन पर ध्यानस्थ है उनके मस्तिष्क से ज्योति निकलकर चारों ओर प्रकाशमान है। यह दृश्य देख वो विस्माभिभूत हो उठे। काफी देर तक वे अपतृक दृष्टि से उस योगी को देखते रहे। कुछ देर बाद जब योगी उठे तो उन्हें प्रणाम करने के बाद गोस्वामी जी ने पूछा- ‘‘आपके मस्तिष्क से अद्भुत ज्योति निकल रही थी। इस वक्त वह गायब हो गयी। ऐसा कैसे हुआ?’’
     योगी ने कहा- ‘‘साधना के माध्यम से जब कुडालिनी शक्ति षटचक्र भेदन करती हुई मस्तिष्क के सहस्त्रदल कमल में पहुँचती है तब वह ज्योति निकलती है।’’ यह सुनने पर गोस्वामी जी समझ गए कि योगी उच्चकोटि के सिद्ध साधक है व इनसे दीक्षा लेनी चाहिए। वो बोले- ‘‘जाने क्यो मुझे शान्ति नहीं मिलती, बराबर बैचेन रहता हँू। योगी जी बोले- ‘‘यह बात अपने गुरु से कहो। वे इसका उपाय बतायेंगे।’’
     गोस्वामी जी बोले-‘‘ब्रहम समाज के नेता होने के कारण मेरा गुरुवाद में विश्वास नहीं था इस कारण मेरा कोई गुरु नहीं है परन्तु अब मैं गुरु बनाना चाहता हँू, कृपया मुझे गुरु दीक्षा दें।’’
     उनका मतव्य सुनकर योगी ने कहा- ‘‘मुझे अभी दीक्षा देने का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ है। ऊपर मेरे गुरु रहते है, आप उनसे विनती कीजिए।’’
     इस प्रकार भटकते-भटकते एक दिन उनके हृदय की तृष्णा शान्त हुई। रामशिला पर्वत पर उन्हें अपने गुरु के दर्शन हुए। आँखे चार होते ही उनके हृदय में भक्ति का ज्वार उमड़ पड़ा। फूट-फूट कर रोने लगे। गोस्वामी जी का हाथ पकड़कर वो बोले- ‘‘मेरे लिए इतना व्याकुल होने की जरूरत नहीं है। वक्त आने पर सब मिल जाएगा। साधना में मन लगाओं कठोर साधना से ही ईश्वर लाभ होता है।’’
     गोस्वामी जी के गुरु का नाम ब्रहमानन्द स्वामी था। नानकपंथी यानि पंजाबी थे। अधिकतर वे मान सरोवर में रहते है कभी-कभी शिष्यों से मिलने चले आते है।
     गुरु की आज्ञा से गोस्वामी जी आकाशगंगा पहाड पर कठोर साधना करने लगे। आहार निद्रा त्यागकर साधना में जुट गए। एक दिन धर्मचर्चा में अपने गुरुदेव से पूछा- ‘‘शास्त्रो में जितनी सिद्धि की बाते हैं, क्या वह सब सत्य है?’’
     गुरुदेव ने कहा- ‘‘क्या तुम्हें विश्वास नहीं होता? शास्त्रों में जिन सिद्धियों का वर्णन है, वह सब तपस्या के जरिए प्राप्त किया जा सकता है। आओ, आज तुम्हें दिखाता हँू।’’  
     इसके बाद गोस्वामी जी के अपने साथ लेकर गुरुदेव एक निर्जन स्थान पर आए। एक के बाद एक उन्होंने उनको सभी सिद्धियाँ दिखायीं कभी हवा में छोटा बनकर पक्षी की तरह आकाश में उड़ने लगे। कभी मृत शरीर में प्रवेश कर उसको जीवित कर दिए। कभी अणु के समान सूक्ष्म होकर पहाड़ को भेदते हुए दूसरी ओर निकल गए।’’ यह सारा दृश्य देखकर गोस्वामी जी रोमाचित हो उठे व अपने गुरुदेव को प्रणाम किया।
     लगभग बीस वर्ष उपरान्त गोस्वामी जी तेलंग स्वामी से मिलने काशी आए। अपने प्र्रथम गुरु तेलंग स्वामी के पास आने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि आजकल वे मेम रहते हैं। गोस्वामी जी के देखकर उन्होंने ईशारे से अपने पास बुलाया। उनकी हथेली पर हाथ चला कर उन्होंने पूछा-याद हे?’

     गोस्वामी जी ने विनयपूर्वक कहा- ‘‘हाँ आपकी कृपा अच्छी तरह याद है। आपने जो मंत्र दिया था, उससे मुझे साधना में बहुत लाभ मिला था।’’ दिनभर स्वामी जी मौन रहते थे परन्तु रात्रि में वो गोस्वामी जी से प्रसन्नतापूर्वक जमकर बातें करते थे। उस समय उन्होंने अजगर व्रत नहीं लिया था। आगे चलकर उन्होंने अजगर व्रत अपना लिया तब ईशारा करना भी बन्द कर दिया था।

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