उच्च रक्त चाप को नियन्त्रित करने के लिए कोई भी आदर्श औषधि उपलब्ध नहीं है। जो औषधियाॅं हैं वो या तो रोग की प्रथम अवस्था (अर्थात् 1st stage ) में ही प्रभावी हैं अथवा अनेक प्रकार के दोषों और प्रतिकूल प्रभावों से युक्त हैं। जिनमें से कुछ तो अत्यन्त गम्भीर प्रभाव डालती हैं। उनकी विषाक्तता अन्य अनेक प्रकार के गम्भीर रोगों को जन्म दे सकती है। एक ओर व्यक्ति इनका गुलाम हो जाता है तो दूसरी ओर इनके खतरनाक दुष्प्रभावों से कराह उठता है। यह ऐसी स्थिति है आगे कुआ पीछे खाई। अनेक व्यक्ति इन दवाओं के नरक से बचने के लिए पाॅंच-सात दिन के लिए इनको लेना छोड़ देते हैं। परन्तु लकवा के शिकार होकर दूसरे बड़े नरक में जा फंसते हैं। लेखक के पिता जी भी इसी तरह दवा से तंग होकर कुछ दिनों के लिए दवा छोड़ बैठे। उनको right side paralysis का कष्ट पूरे 13 वर्ष भोगना पड़ा।
इस जटिल रोग के निवारण हेतु धैर्य, आत्मविश्वास, सूझबूझ बहुत सहायक होता है। सर्वप्रथम रोगी को इस विषय में पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक है। साथ-साथ अच्छे मार्गदर्शक से समय-समय पर सलाह लेना भी लाभप्रद होता है। बड़ी हुई अवस्था में रोग जटिल हो जाता है व इसका हल निकालना कठिन प्रतीत होता है। हमारे आध्यात्मिक व चिकित्सा ग्रन्थों के आधार पर रोग का समाधान पाॅंच स्तरों पर खोजना होता है।
1. अन्नमय कोष के स्तर पर
इस स्तर पर हम शरीर की सात धातुओं को जितना मजबूत कर सके उतना अच्छा होगा। आयुर्वेदिक मान्यता के अनुसार जब शरीर कमजोर होना प्रारम्भ होता है तभी रक्त चाप में असमान्यता उत्पन्न होती है। शरीर की कमजोरी की पूर्ति हेतु अधिक रक्त के संचारण के लिए तीव्र वेग से रक्त फेंका जाता है व रक्तचाप बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए खेलते समय सामान्यतः धड़कन व रक्तचाप बढ़ जाता है। क्योंकि अधिक उळर्जा अधिक सामथ्र्य की उस आवश्यकता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि जो दुबला-पतला है वह रक्तचाप का शिकार नहीं होता। यह मान्यता त्रुटिपूर्ण है। शरीर की धातुएॅं जिसकी भी कमजोर होंगी वही रक्तचाप से पीडि़त होगा। चाहे शरीर मोटा हो या पतला। मोटे शरीर में कोलेस्ट्राॅल के जमने की सम्भावना अधिक होने से प्रायः मोटे लोगों को रक्तचाप अधिक होता है। धातुओं के पोषण का पूरा विज्ञान आयुर्वेद ने दिया है। अन्नमय कोष के स्तर पर रक्तचाप नियन्त्रण हेतु नमक कम लेना प्रायः सर्वविदित है। इस दिशा में लेखक ने 100 महत्त्वपूर्ण सूत्रों का संकलन किया है। कृपया ‘स्वास्थ्य के सौ अनमोल सूत्र’(100 Golden Rules for Health ) पढ़ें।
2. प्राणमय कोष
प्राणमय कोष के स्तर पर रक्तचाप का उपचार करने के लिए दो बातें बहुत आवश्यक हैं। पहला ब्रह्मचर्य की उचित पालन दूसरा उदर श्वसन। श्वास को गहरा भरते हुए नाभि तक ले जाएॅं। इसमें बायो फीड बैक विधि का प्रयोग भी किया जा सकता है। आप एक बार मशीन से रक्तचाप नोट करें। इसके उपरान्त उदर श्वसन करें अर्थात् साॅंस पेट में नीचे गहराई तक ले जाएॅं। 10-15 मिनट उदर श्वसन कर पुनः ठण्च्ण् नोट करें। उसमें कुछ न कुछ कमी अवश्य आएगी।
व्यक्ति के कर्मो का सीधा प्रभाव उसके प्राणमय कोष पर पड़ता है। अतः कर्मों की पवित्रता आवश्यक है। जिनका प्राणमय कोष मजबूत होता है वो बहुत उल्टे काम करने पर भी स्वस्थ रहते हैं व जिनका प्राणमय कोष कमजोर होता है वो थोड़ से गलत कार्यों से ही रोगी हो जाते हैं। पुराणों में असुरों के लोगों को सतनाने व दुराचार करने का अनेक कहानियाॅं आती हैं। परन्तु ये असुर लम्बे समय तक पहले तप भी तो करते हैं जिससे उनका प्राणमय कोष मजबूत हो जाता है। दीपक को जलाना व यज्ञ कराना प्राणों में सन्तुलन उत्पन्न करता है वातावरण के दूषित प्राणों से हमारी रक्षा करता है।
निर्भयता प्राणमय कोष को सशक्त बनाने का अच्छा माध्यम है। गलती पकड़े जाने का भय व्यक्ति के प्राणमय कोष को कमजोर बनाता है। अतः हमेशा सन्मार्ग पर चलें (Always follow the righteons Truth) । जिस व्यक्ति का प्राणमय कोष जितना अच्छा होता है वह उतना निर्भय होता है व जो जितना निर्भय होता है उसका प्राणमय कोष उतना मजबूत होता है। आत्मा की अमरता मृत्यु भय व अन्य डरों में कमी लाता है। अतः आत्मा की अमरता का अभ्यास करें। (पढ़े ‘मैं क्या हूॅं’ "what am I" by Shri Ram Sharma)। पूर्व में राणा प्रताप, तात्याॅं टोपे, लक्ष्मी बोई आदि वीरों व अनेक )षियों का प्राण बड़ जानदार होता था। परन्तु आज व्यक्ति का प्राण दुर्बल होता जा रहा है। कहते हैं ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ अर्थात् जो वीर है जिसका प्राण मजबूत है वही स्वस्थ है वही धरती का भोग अर्थात् सुख ले सकता है। दुर्बल प्राण अर्थात् रोगी का जीवन सुख-चैन से रहित हो जाता है।
प्राणमय कोष को मजबूत करने का विज्ञान ‘प्राणायाम विद्या’ के अन्तर्गत आता है। आज के युग में यह विद्या लुप्तप्रायः ही है। या यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति की जीवन शैली इस प्रकार बनती जा रही है कि उसका प्राण दुर्बल हो गया है। इस पर एक स्वतन्त्र पुस्तक की आवश्यक है।
3. मनोमय कोषः
यद्यपि विभिन्न प्रकृति और व्यक्तित्व वाले मनुष्य उच्च रक्तचाप से पीडि़त हे।, उनमें से एक विशेष प्रकार के व्यक्ति ही अपेक्षाकृत अधिक संख्या में हैं। ये लोग प्रतिस्पर्धी, आक्रामक, महत्त्वाकांक्षी और तनावपूर्ण जीवन पद्यति वाले व्यक्तित्व थे। अधिकतर रेागी वो हैं जो स्वार्थजीवी हैं, जो सफलता की सीढि़याॅं तूफानी रफ्तार से चढ़कर शिखर पर पहुॅंचने को बेताब थे। यदि चिंताओं और उद्विग्नताओं से आपका जीवन भरा है, जो आपको क्रोधित, तनावग्रस्त और दुःखी बना रही हैं, तो आप उच्च रक्तचाप को जीवन में आमन्त्रण दे रहे हैं। अतः आपको इसके प्रति सजग रहना चाहिए।
व्यक्ति का महत्त्वाकांक्षी स्वभाव व असंतुलित भावनाएॅं मुख्य रूप् से मनोमय कोष के अन्तर्गत रक्तचाप के प्रमुख कारण हैं। अब प्रश्न उठता है कि इससे बचा कैसे जाए? 20-25 वर्ष तक आते - आते मनुष्य के स्वभाव का निर्माण हो चुका हेाता है। दूसरी कठिनाई यह है कि युवावस्था में वह जिस हवा में बह रहा होता है, सचेत भी नहीं होना चाहता क्योंकि उस समय रोग तो द्वार पर दस्तक दे देता है पर उसके दुष्परिणाम आते-आते 10-15 वर्ष लग जाते हैं। लगभग 40 वर्ष की आयु पर व्यक्ति को ज्ञात होता है कि वह एक ऐसे मकड़जाल में फंस गया जहाॅं से निकलपाना सरल नहीं है। न तो स्वभाव को बदलना आसान है न हि शरीर को कम रक्तचाप पर चलाना। धीरे-धीरे इसका असर जब दूसरे अंगों पर दिखाई देता है तो व्यक्ति भयभीत होता है।
इसका समाधान एक ही है कि व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाए। समय की विडम्बना है कि आज हमारी शिक्षा पद्यति में आध्यात्मिक दृष्टिकोण का समावेश नहीं है। इसमें सर्वप्रथम व्यक्ति निष्काम कर्मयोग का पाठ सीखे। जितना व्यक्ति निःस्वार्थ होता जाएगा, मानसिक शान्ति का केन्द्र बनता जाएगा। वैसे तो मानसिक शान्ति के अभ्यास के बहुत प्रकार के साधन समाज में देखने को मिलते हैं परन्तु निष्काम कर्मयोग उन सबमें स्थाई होने के कारण सर्वोत्तम है। व्यक्ति अधिक से अधिक मोह रहित, आसक्ति रहित जीवन का अभ्यास करे। वैराग्य इसी को कहा जता है। राजा जनक विदेह कहलाते थे क्योंकि वह अपनी देह से भी निरक्त हो चुके थे।
एक बार सिकन्दर भारत पर आक्रमण की तैयारी कर रहा था। अपने गुरु से कहता है -‘भारत अमूल्य रत्नों की खान है बताएॅं आपको कौन सा रत्न लाकर दूॅं।’ गुरु उत्तर देते हैं - कि भारत का सबसे अनमोल रत्न ‘ब्रह्मज्ञान’ है, उन्हें ब्रह्मज्ञानी चाहिए। सिकन्दर पूछता है कि उसकी क्या पहचान है तो उत्तर मिलता है ब्रह्मज्ञानी वह है जो अपने शरीर का मोह छोड़ चुका हो एवं पूर्ण निर्भय हो।
सिकन्दर ने अपनी सेना में भारत में ऐसे व्यक्ति को खोजने का आदेश दिया जिसमें गुरु को वह भेंट दी सके। सिकन्दर की सेना जहाॅं से भी गुजरती वहाॅं भय के मारे गाॅंव के गाॅंव खाली हो जाते थे। सेना तीव्र गति से बढ़ रही थी। मार्ग में एक व्यक्ति मजे से धूप सेंक रहा था। सैनिकों ने उससे पूछा-”यहाॅं मार्ग में क्यों पड़े हो क्या तुम्हें सिकन्दर महान से भय नहीं लग रहा“ उस व्यक्ति ने उत्त्र दिया - ”सिकन्दर तो स्वयं ही अपनी मृत्यु की ओर बढ़ रहा है, उससे भय कैसा।“ सिकन्दर ने उसको भयभीत करने के अनेक प्रयास किए परन्तु वह निर्भय रहा। सिकन्दर की समझ में आ गया कि यही ब्रह्मज्ञानी है जिसकी गुरु को तलाश थी।
परन्तु आज हमारा मनोमय कोष बात-बात पर अशान्त होने लगा है। प्राचीन काल में मनोमय कोष इतना मजबूत होता था कि व्यक्ति आजीवन आदर्शों व सिद्धान्तों से भरा निर्भय व शान्त जीवन जीता था। सद्भाव, प्रेम, उच्च व्यक्तित्व का धनी होता था। जिसके व्यक्तित्व में जितनी गहराई होगी उसका मनोमय कोष उतना सुदृढ़ होगा। आज हम धन कमाने के चक्कर में अपना चरित्र अपना मनोमय कोष खराब करते जा रहे हैं। दूसरों को नीचा दिखाने के लिए आपसी खींचतान व ईष्र्याद्वेष बढ़कर रक्तचाप को नियन्त्रण दे रहा है।
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