विज्ञानमय कोष
विज्ञानमय कोष वह आयाम अथवा
स्तर है जहाँ पर षट चक्रो की साधना का विज्ञान प्रारम्भ हो जाता है। जो उपलब्धियाँ
भौतिक विज्ञान के द्वारा उपलब्ध हो सकती है अर्थात् जो शक्ति, जो सामथर्य मानव ने Science & Technology द्वारा अर्जित की हैं वो
सभी विज्ञानमय कोष की साधना से भी सम्भव हैं। इनको शास्त्रों में ऋद्धि सिद्धियों की
संज्ञा दी गयी है। उदाहरण के लिए विज्ञान के द्वारा विश्व के किसी कोने में बात कर
सकते हैं तो विज्ञानमय कोष का साधक विश्व में कहीं भी सन्देश परा वाणी के द्वारा
सम्प्रेषित कर सकता है। हवाई जहाज द्वारा कहीं भी जाया जा सकता है तो सूक्ष्म शरीर
के द्वारा कहीं भी भ्रमण सम्भव है। जैसे विज्ञान के यदि कोई उच्च स्तरीय प्रयोग
करना चाहता है तो वैज्ञानिक के मार्गदर्शन में व्यक्ति अनेक वर्षों तक सीखता है
यदि स्वयं व्यक्ति कम्प्यूटर बनाना चाहे तो यह असम्भव है। इसी प्रकार विज्ञानमय
कोष की सफलता स्वयं के बूते सम्भव नहीं होती। गुरु कृपा, ईश्वर कृपा अर्थात् मार्गदर्शन, संरक्षण, नियन्त्रण की आवश्यकता होती है।
षट चक्रों में मूलाधार चक्र
पृथ्वी तत्व से सम्बन्धित है, स्वाधिष्ठान चक्र जल तत्व
का अधिष्ठाता है, नाभि चक्र अग्नि तत्व, अनाहत वायु तत्व व विशुद्धि चक्र आकाश चक्र के प्रतिनिधि है। इस
प्रकार पंचतत्वो का सन्तुलन बनाने के लिए पाँच चक्रो की ऊर्जा को सही करना होता है
यदि चक्रो की ऊर्जा सन्तुलित है, उध्र्वगामी है तो जटिल रोगो को आने की सम्भावना बहुत ही कम होती है। यदि दुर्भाग्यवंश व्यक्ति कही फंस जाया तो
चक्रो के द्वारा रोग मुक्ति बहुत सरलता से हो जाती है। SIGFA Healing के
प्रणेता बी. चन्द्रशेखर एक समय तीन भयानक रोगों से आक्रान्त हो गए थे- मधुमेह, कैंसर व हिपेटाइप्स । इस विषम समय में वो जीवन की आशा छोड़ चुके थे।
चिकित्सको ने जवाब दे दिया था। तभी अचानक उनको विज्ञानत्मक कोष की इस विलक्षण
पद्यति का ज्ञान हुआ। आज वो विश्व के जाने माने हीलर हैं।
उच्च रक्त चाप का रोगी
सहस्त्रार चक्र,
आज्ञा चक्र पर व स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान करे। आज्ञा चक्र से
मानसिक शन्ति व स्वाधिष्ठान चक्र से जल तत्व की प्रचुरता बनी रहती है। रक्त चाप के
रोगो में अग्नि तत्व असन्तुलित होता है। उसके सन्तुलन के लिए जल तत्व को बढ़ाना
होता है। इसके लिए पर्याप्त स्पुनपक कपमजे भी लेनी चाहिए। सहस्त्रार चक्र ब्यान
प्राण को मजबूत बनाता है। सम्पूर्ण शरीर में रक्त का परिसंचरण ब्यान प्राण के
द्वारा होता है। ब्यान प्राण का उदगम व भण्डारण सहस्त्रार चक्र है। सहस्त्रार इस
प्राण को स्वाधिष्ठान पर छोड़ता है। यहाँ से यह सारे शरीर में फैल जाता है।
ऊपर के चक्रो की frequency बहुत अधिक होती है अतः इनको जाग्रत करने के लिए High frequency मन्त्र जैसे
गायत्री मन्त्र ही कामयाब हैं। अतः 20 मिनट गायत्री मन्त्र का जप
सूर्य ध्यान करते हुए आज्ञा चक्र पर करें व 20 मिनट गायत्री जप सहस्त्रार
पर करें। इस प्रकार 40 मिनट जप ऊपर के चक्रो पर
करें। अब इसके पश्चात् 20 मिनट जप स्वाधिष्ठान पर
मृत्युजंय मन्त्र के साथ करें। प्रारम्भ में जब जप चक्रों पर करते हैं तो यह
कठिनाई होती है कि कैसे सम्भव होगा। परन्तु समय के साथ चक्र जप की ऊर्जा से झंकृत
होना प्रारम्भ हो जाते हैं। इस समय यह स्पष्ट हो जाता है कि कौन से चक्र पर जप किया
जा रहा है। चक्रो के जागरण के साथ ही ध्यान की परिपक्वता, सार्थकता व आनन्दानुभूति का आभास साधक को होने लगता है।
यह ध्यान रहे कि ऊपर के
चक्र पहले जाग्रत हों, नीचे वाले बाद में या
साथ-साथ यदि नीचे के चक्र पहले जाग्रत होते हैं तो ऊर्जा के ऊध्र्वगमन में कठिनाई
आती है। यदि ऊपर के चक्र पहले जाग्रत हो जाएँ तो वो ऊर्जा के नीचे से ऊपर खींचते
रहते हैं। प्राचीन काल में साधक नीचे से प्रारम्भ करते थे। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर व अनाहत पर साधना
करते अनेक साधक पाए जाते थे। यदि नीचे के चक्रों में ऊर्जा पर्याप्त है तो व्यक्ति
शरीर बल व प्राण बल का धनी होता था। मूलाधार की मजबूती से शरीर भीम के समान
विशालकाय हो सकता है व अनाहत की मजबूती से साधक पवन पुत्र के सामन वेगवान, गतिमान हो सकता है। आज पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के कारण वातावरण
बहुत प्रदूषित हो चुका है अतः यदि नीचे के चक्र जाग्रत हों तो यह ऊर्जा निम्नगामी
होकर साधक वीरभाव से धनी होगा व अनेक प्रतिभाओं का स्वामी। आज्ञा चक्र व सहस्त्रार
चक्र साधक में स्वतः ज्ञान, वैराग्य व संयम की उत्पत्ति
करते हैं। अतः इस युग में इनका जागरण आवश्यक है यदि ज्ञान और वैराग्य की उत्पत्ति
स्वाभाविक रूप से नहीं हो रही है। वासनाओं को नियत्रित करने के लिए व्यक्ति के
संघर्ष करना पड़ रहा है। युद्ध थोडे समय ही ठीक रहता है। लम्बे युद्ध अथवा वे कठिन
संघर्ष किसी न किसी विकृति या रोग की उत्पत्ति कर देते हैं। अतः आज्ञा चक्र का
जागरण कर इसका कमाल देंखे।
परन्तु यदि हाथी के समान
बलवान व विशाल शरीर चाहिए तो मूलाधार ही बड़ा करना होगा, मूलाधार की ही साधना करनी होगी। शास्त्रों में कहा जाता है कि
प्रत्येक चक्र का एक देवता होता है। मूलाधार चक्र करे देवता गणेश जी हैं। गणेश जी
का शरीर विशालकाय है व मंगलमूर्ति हैं। उनका मस्तक हाथी का उपमा देता है। हाथी
चंचल कम होता है जिसका शरीर तगड़ा, मोटा होता है वह भी चंचल कम
होगा। पतला दुबला व्यक्ति ज्यादा चंचल होता है। भरा शरीर पूरे समाज के लिए मंगलमय
है। अच्छे Physical Structure के मनुष्य को देखते ही सभी में प्रसन्नता की लहर दौड़ती है। उत्तम स्वास्थ्य समाज के मंगल के
लिए अत्यधिक आवश्यक है। ज्ञान कितना भी क्यों न हो यदि शरीर बढि़या नहीं है तो
मानव का कल्याण कहाँ? परन्तु सुख, सुविधा, ज्ञान भले ही कम हो शरीर
अच्छे हों हरे भरे हों तो वह समाज निश्चित रूप से प्रसन्न होगा। आज सुख सुविधाओं
के साधन Google की information अपने पास सब कुछ हैं परन्तु अच्छा स्वास्थय न होने
से सब फीका-2
रहता है।
आनन्दमय कोष
आनन्दमय कोष नामानुसार
व्यक्ति के आनन्दमय बना देता है महात्मा बुद्ध, श्री अरविन्द, महर्षि रमण जैसे सहस्त्रार सिद्ध स्तर के व्यक्ति इस श्रेणी में आते
है।
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