श्री जीवनधन गांगुली
मैं श्रीगुरुदेव का एक अदना शिष्य हँू।
पूर्वजन्म के किसी पुण्य के बल से मुझे श्रीचरणों की प्राप्ति हुई थी। यद्यपि
मैंने चैबीस परगने के बेलघरिया गाँव के प्रसिद्ध गांगुली वंश में जन्म लिया था, भाग्य के दोष से छह साल के बाल्य-जीवन
में ही मुझे पिता का वियोग प्राप्त हुआ। पुण्यशीला मेरी माताजी के अतिरिक्त अन्य
कोई अभिभावक न होने के कारण मेरी बहुत-सी सम्पत्ति नष्ट हो गयी थी। यहाँ तक कि
बचपन मे तरह-तरह के रोगों के कारण मरणासन्न हो गया था। जब मेरी उम्र पन्द्रह साल
की थी तब कलकत्ते में पहले-पहल बेरी-बेरी रोग देखने में आया था और मुझे वह रोग हो
गया था-मेरे बचने की कोई आशा नहीं थी। उसी समय मेरे बाएँ कन्धे की पेशी में
पक्षाघात हो गया। बायाँ हाथ अशक्त हो गया। कलकत्ते के तत्कालीन सुप्रसिद्ध
डाॅक्टरों ने चिकित्सा की,
किन्तु कोई फल नहीं हुआ। कलकत्ता
मेडिकल काॅलेज के तत्कालीन प्रिंसिपल डाॅक्टर कर्नल कालबर्ट ने अपने सहकर्मी कर्नल
वार्ड आदि चार प्रसिद्ध डाॅक्टरों के साथ मेरी परीक्षा करके कहा था कि यह रोग
असाध्य है और दायीं-बाँह पर भी इसके आक्रमण की सम्भावना है। तब मैं पंगु हो जाऊँगा
बल्कि मेरे जीवन के खत्म हो जाने की आशंका है। अनेक प्रसिद्ध ज्योतिषियों द्वारा
मेरी जन्मकुण्डली पर विचार करने पर मालूम हुआ था कि 23 वर्ष की आयु में मेरी अकाल मृत्यु का
योग है। इसी समय श्रीगुरुदेव ने मेरे छोटे मौसा (कलकत्ते के बहुत प्रसिद्ध
व्यवसायी श्रीउमेशचन्द वन्द्योपाध्याय) के घर अपनी चरण-धूलि दी। इस सुअवसर पर मेरी
मौसीजी ने बहुत कातर होकर श्रीगुरुदेव को मेरे बारे में बताया और श्रीबाबा ने मुझ
पर कृपा दृष्टि डाली। मेरे सौभाग्य से कुछ दिन बाद ही उन्होंने मुझे दीक्षा दी और
दीक्षा सम्पन्नहो जाने पर बताया कि मेरे जीवन को अब कोई खतरा नहीं। साथ ही यह भी
बताया कि बड़े-बड़े डाॅक्टर चाहे जो कहें, मेरे
जीवन का अन्त नहीं होगा और मैं दिनों-दिन स्वस्थ होता हुआ अपने काम करने लगूँगा।
बड़े आश्चर्य की बात है कि मेरी दीक्षा के बाद मेरा शरीर स्वस्थ होने लगा था और
मैं दो साल में ही अच्छी तरह कोई भी कार्य सम्पन्नकरने योग्य हो गया था। यहाँ इस
बात का उल्लेख कर देना ठीक होगा कि 23
साल की वय में मैं अपनी मौसी के साथ धाम में वायु-परिवर्तन के लिए गया था। वहीं
मैं टायफायड से आक्रान्त हो कर लगभग मौत के मुँह में जा पहुँचा था। उस समय वहाँ के
सिविल सर्जन डाॅ. पुलीपाका ने मेरी दवा की थी और एक दिन मेरी मरणासन्न दशा देखकर
मेरे जीवन की आशा छोड़ दी थी। इस पर मेरी मौसी आदि सबने रोना-पीटना शुरू कर दिया, किन्तु उसी समय मैंने ऐसा अनुभव किया
था और तुरन्त चेतना प्राप्त करके मैंने कहा, ‘मेरे
जीवन की रक्षा होगी, तुम सब रोओ नहीं।’ दूसरे ही दिन श्री गुरुदेव का एक
अभयदानी पत्र भी मुझे मिला था। उसके बाद से मेरा शरीर क्रमशः ठीक होने लगा था और
कुछ दिनों बाद तो मैं विशेष हष्ट-पुष्ट और बलवान् हो गया था। बाबा की कृपा से मेरी
आर्थिक स्थिति भी सुधरने लगी थी। दीक्षा के बाद बाबा मेरे जीर्णशीर्ण घर में पधारे
थे और उसी समय मेरे मौसेरे जीजा खिदिरपुर-निवासी श्री सतीशचन्द्र मुखोपाध्याय, कलकत्ता हाई कोर्ट के वकील (पूर्वोक्त
श्री उमेशचन्द्र वन्द्योपाध्याय के जामाता) ने उन्हें मेरे पूर्वजों की अट्ठालिका
के ध्वस्त हो जाने का विवरण दिया। सुनकर श्री बाबा ने कहा था कि भवन का निर्माण
फिर होगा और जो भूमि और सम्पत्ति नष्ट हो गयी है वह सब भी मिलेगी। उस समय की अपनी
शारीरिक और आर्थिक दशा को देखते हुए मैं सोच भी नहीं सकता था कि यह सब होना सम्भव
है। किन्तु आश्चर्य की बात है कि श्री श्रीगुरुदेव की कृपा और उनकी शुभकामना से
सात-आठ साल के भीतर ही मेरे पैत्रिक सिंहासन का पुनर्गठन हो गया था तब बर्बाद भूमि
और सम्पत्ति के अधिकांश का पुनरुद्धार हो गया था और, और भी नई सम्पत्ति की प्राप्ति भी हुई थी।
महाभारत-काल के अग्रि-बाण का प्रत्यक्ष प्रदर्शन
एक दिन की बात है कि झाल्दा (पुरुलिया
के पास) के राजा श्री उद्धवनारायण सिंह ने (जो बाबा के शिष्य और हमारे गुरुभाई थे)
श्री बाबा से कहा कि ऋषि वेदव्यास जी ने लिखा है कि महाभारत में अग्रि-बाण तथा
वायु-बाण का प्रयोग किया गया था। क्या यह बात सच है?
बाबा बोले- हाँ, बिल्कुल सच है। क्या तुम इसका
प्रत्यक्ष प्रमाण देखना चाहते हो?
उद्धव सिंह बोले-गुरुदेव, यदि दिखा दें तो बड़ी कृपा होगी।
गुरुदेव ने कहा-सामने जो सरकण्डे लगे
हैं उनमें से तीन काटकर मेरे पास ले आओ। तब तीनों में से एक सरकण्डे का छिल्का
उतरवाकर उसका एक धनुष बनाया। फिर कुछ मन्त्र पढ़ें और वह धनुष धातु का सुन्दर धनुष
बन गया। अब दूसरे सरकण्डे को अभिमन्त्रित किया, वह
स्टील का पैनी नोक वाला पुष्ट तीर बन गया।
बाबा बोले-देखो, यह एक सामान्य तीर और कमान है।
अब मन्त्र द्वारा बाबा ने अग्रि देवता
को अभिमन्त्रित करके तीर की नोक में प्रवेश कर दिया। फिर इस बाण को धनुष पर चढ़ाकर
बाबा ने उसे सामने खड़े एक बड़े बरगद के वृक्ष पर छोड़ दिया।
क्षणमात्र में वह बाण अत्यन्त घोर
ध्वनि करता हुआ बड़े वेग के साथ उस बरगद के पेड़ को चीरता हुआ पार कर गया तथा उस
वृक्ष में तुरन्त आग लग गई। बाबा बोले कि पूरा फायर-ब्रिगेड भी इस पेड़ की अग्रि
को शान्त नहीं कर सकता।
फिर उन्होंने तीसरा सरकाण्डा लिया और
उसका तीर बनाकर उसे भी अभिमन्त्रित किया। तदुपरान्त उस तीर की नोक पर वरुण देवता
का आवाहन एक और मन्त्र द्वारा किया।
इस तीर को धनुष पर चढ़ाकर उन्होंने जब
उपर्युक्त प्रचण्ड जलते हुए बरगद के पेड़ पर छोड़ा तो देखते ही देखते पेड़ की आग
बुझ गई।
तदुपरान्त बाबा ने फिर एक मन्त्र पढ़ा
तो वे धनुष तथा बाण एक बार फिर से तीन सरकण्डे बन गये।
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