विचार ही नही कार्य भी कीजिए
विचारों और क्रियाओं का
संतुलन जब बिगड़ जाता है तब मनुष्य का मानसिक संतुलन भी सुरक्षित नही रह पता. इससे
होता यह है की जब वह भूमि पर अपनी वैचारिक परिस्थितियों को नही पाता, तो उसका दोष समाज के
मत्थे मढ़कर मन ही मन एक द्वेष उतपन्न कर लेता है।
समाज का कोई दोष तो होता नही।
अरस्तु उसको खुलकर कुछ न कह पाने के कारण मन ही मन जलता, भुनता और कुढ़ता
रहता। इस प्रकार की कुण्ठापूर्ण जिंदगी
उसके लिए एक दुखद समस्या बन जाती है। अपनी
प्यारी कल्पनाओं को पा नही पाता, यथार्थता से लड़ने की ताकत
नही रहती और समाज का कुछ बिगाड़ नही पाता , ऐसी दशा में एक अभिशाप पूर्ण जीवन का भोझ धोने के अतिरिक्त
उसके पास कोई चारा नही रहता।
इसके विपरीत जिन
बुद्धिमानों की विचारधारा संतुलित है, उसके साथ कर्म का समन्वय है, वे जीवन को सार्थक बनाकर सराहनीय श्रेय प्राप्त
करते है। जीवन में कर्म को प्रधानता देने
वाले व्यक्ति योजनाएँ कम बनाते हैं और काम अधिक किया करते हैं। इन्हे व्यर्थ - विचारधारा को विस्तृत करने का
अवकाश ही नही होता। एक विचार के परिपुष्ट
होते ही , वे उसे एक लक्ष्य
की तरह स्थापित करके क्रियाशील हो उठते है , और जब तक उसकी प्राप्ति नही कर लेते , किसी दूसरे विचार को
स्थान नही देते।
बच्चों के निर्माण का दायित्व
तुम्हारे गृह में पदार्पण
करने वाले तुम्हारे आत्मस्वरूप ये बालक समाज और देश का निर्माण करने वाले भावी
नागरिक है। ईश्वर की और से तुम्हारा यह
कर्तव्य है की उनकी सुशिक्षा एवं आत्मपरिष्कार की समस्याओं में दिलचस्पी लो।
जैसा वातावरण तुम्हारे घर
का है , उसी साँचे में ढल
कर तुम्हारी संतानो को मानसिक संस्थान , आदतें , सांस्कृतिक स्तर का निर्माण होगा। जब तुम अपने भाइयो के प्रति दयालु , उदार और संयमी नही हो , तो अपनी संतान से क्या
आशा करते हो की वे तुम्हारे प्रति प्रेम दिखलाएँगे। जब तुम अपना मन विषय -वासना , आमोद -प्रमोद तथा कुत्सित
-इच्छाओं से नही रोक सकते ,
तो भला वे क्यों
न कामुक और इन्द्रियलोलुप होंगे। यदि तुम
मॉस , मद्य या अन्य
अभक्ष्य पदार्थों का उपयोग करते हो , तो वे भला किस प्रकार अपनी प्राकृतिक पवित्रता और दूध जैसी
निष्कलंकता को बचाए रख सकेंगे।
तुम्हारे शब्द , व्यवहार , दैनिक कार्य , सोना , उठना -बैठना ऐसे साँचे है
, जिनमें उनकी मुलायम
प्रकृति और आदतें ढाली जाती हैं। वे
तुम्हारी प्रत्येक सूक्ष्म बात देखते और उनका अनुकरण करते हैं। तुम उनके सामने एक मॉडल , एक नमूना या आदर्श
हो। इसलिए यह तुम्ही पर निर्भर है की
तुम्हारी संतान होगी मनुष्य या मनुष्यकृति वाले पशु।
जीवन कलात्मक ढंग से जीयें
श्जिंदगी जीना एक कला है
श्- ऐसा सुनकर लोगों को अजीब - सा लगता है
, किंतु है यह वास्तविकता
की जीवन एक कला है। जो लोग जीवन जीने की
कला नही जानते अथवा उसे कलात्मक नही मानते , वे जीते हुए भी ठीक से नही जी पाते।
बहुत लोग जिंदगी को विविध
उपकरणों से सजाए सँवारे रहने की कला समझते हैं , किंतु बाह्य प्रसाधनों द्वारा जीवन का साज
शृंगार किए रहना कला नही है। यह मनुष्य की
लिप्सा है, जिसे पूरा करने
में उसे एक जूठ सतोष का आभास होता है।
फलतः यह मान बैठता है की वह जिंदगी को ठीक से जी रहा है। कला तो वास्तव में वह मानसिक वृति है जिसके
आधार पर साधनों की कमी में भी जिंदगी को खूबसूरती के साथ जिया जा सकता है। जिंदगी को हर समय हँसी -खुशी के साथ अग्रसर
करते रहना ही कला है , और उसे रो -झींक
कर काटना ही कलहीनता है।
साधन अथवा असाधन , सम्पन्नता अथवा विपन्नता
किन्ही भी स्थितियों में अनुरूप अथवा आवशयक पुरुषार्थ के साथ सहजता , सरलता , संतोष, आशा , उत्साह तथा
अव्यग्रतापूर्ण हर्ष विषाद का यथायोग्य निर्वाह करते हुए जीना ही कलापूर्ण जीवन है
जिसे प्राप्त करना न केवल श्रेयस्कर ही है , बल्कि सार्थक एवं सुखकर भी है।
बच्चों के निर्माण का दायित्व
तुम्हारे गृृह मे पदार्पण
करने वाले तुम्हारे आत्म स्वरूप ये बालक समाज और देश का निर्माण करने वाले भावी
नागरिक है। ईश्वर की ओर से तुम्हारा यह कर्तव्य है कि उनकी सुशिक्षा एवं आत्म
परिष्कार की समस्याओं में दिलचस्पी लो।
जैसा वातावरण तुम्हारे घर का है उसी
सांचे मे ढलकर तुम्हारी संतानो का मानसिक संस्थान, आदते, सांस्कृतिक स्तर का निर्माण होगा। जब तुम अपने भाईयों के
प्रति दयालु उदार और संयमी नही हो। तो अपनी संतान से क्या आशा करते हो कि वे
तुम्हारे प्रति प्रेम दिखलायेंगे। जब तुम अपना मन विषय वासना आमोद प्रमोद तथा
कुत्सित इच्छाओं से नही रोक सकते तो भला वे क्यों न कामुक और इन्द्रिय लोलुप
होंगे। यदि तुम मांस, मध या अन्य
पदार्थो का उपयोग करते हो तो वे भला किस प्रकार अपनी प्राकृतिक पवित्रता और दूध
जैसी निष्कलंकता को कैसे बचाए रख सकेंगे। यदि तुम अपनी अशलील और निर्लज आदतों , गन्दी गालियां , अशिष्ट व्यवहारों को नही
छोडते, तो भला तुम्हारे
बालक किस प्रकार गन्दी आदते छोड सकेंगें।
तुम्हारे शब्द व्यवहार दैनिक कार्य, सोना , उठना बैठना ऐसे सांचे है
जिनमे उनकी मुलायम प्रकृति और आदते ढाली जाती है। वे तुम्हारी प्रत्येक सूक्ष्म
बात देखते और उनका अनुकरण करते है। तुम उनके सामने एक माडल, एक नमूना या आदर्श हो
इसलिये यह तुम्ही पर निर्भर है कि तुम्हारी संतान होगी मनुष्य या मनुष्याकृति वाले
पशु।
जीवन कलात्मक ढंग से जीएॅ
जिन्दगी जीना एक कला है
ऐसा सुनकर अनेक लोगो को अजीब सा लग सकता है। किन्तु है यह वास्तविकता कि जीवन एक
कला है। जो लोग अपने जीवन की कला नही जानते अथवा उसे कलात्मक कर्तव्य नही मानते । वे जीते हुए भी ठीक से नही जी पाते।
बहुत लोग जिन्दगी को
विविध उपकरणों से सजाए सवांरे रहने को ही कला समझते है। किन्तु बाहय प्रसाधनों
द्वारा जीवन का साज श्रंृृगार किये रहना कला नही है। यह मनुष्य की लिप्सा है। जिसे
पूरा करने में उसे एक झूठे सन्तोष का आभास होता है। फलतः यह मान बैठता है कि वह
जिन्दगी को ठीक से जी रहा है। कला तो वास्तव में वह मानसिक वृत्ति है जिसके आधार
पर साधनों की कमी में भी जिन्दगी को खूबसूरती के साथ जिया जा सकता है। लाल बहादुर
शास्त्री जी इसके उदाहरण है। जिन्दगी को हर समय हंसी खुशी के साथ अग्रसर करते रहना
ही कला है। और उसे रो झीककर काटना ही कलाहीनता है।
साधन अथवा असाधन सम्पन्नता अथवा विपन्नता
किन्ही भी स्थितियों में अनुरूप अथवा आवश्यक पुरूषार्थ के साथ सहजता सरलता सन्तोष आशा उल्लास तथा
हर्षविषाद का यथायोग्य निर्वाह करते हुए जीना ही कलापूर्ण जीवन है जिसे प्राप्त
करना न केवल श्रेयस्कर ही है। बल्कि सार्थक और सुखकर भी हैं।
चरित्र एक अनमोल रतन
चरित्र मनुष्य का अनमोल
धन है। हर उपाय से इसकी रक्षा करनी चाहिए।
किसी की धन -दौलत , जमीन -जायदाद , व्यवसाय , व्यापार चला जाये , तो उद्योग करने से पुनः प्राप्त हो सकता है , किंतु जिसने प्रमाद अथवा
असावधानी वश एक बार भी अपना चरित्र खो दिया , तो फिर वह जीवन भर के उद्योग से भी अपने उस धन को वापस नही
पा सकता। आगे चलकर वह अपन भूल सँभाल तो
सकता है , अपना सुधार तो कर
सकता है , अपनी सच्चरित्रता
के लाख दे सकता है , किंतु फिर भी वह
एक बार का लगा हुआ कलंक अपने जीवन पर से धो नही सकता। उसके लाख सँभल जाने , सुधर जाने पर भी समाज
उसके उस पूर्व पतन को भूल नही सकता और इच्छा होते हुए भी उस पर असंदिग्ध विश्वास
नही कर सकता। एक बार चारित्रिक पतन मनुष्य
को जीवन भर के लिए कलंकित कर देता है। इसलिए तो विद्वानों का कहना है कि मनुष्य का
यदि धन चला गया तो नहीं गया , स्वास्थ्य चला गया तो कुछ गया और यदि चरित्र चल गया तो सब
कुछ चला गया। इस लोकोक्ति का अर्थ है की
धन -दौलत तथा स्वास्थ्य आदि को फिर पाया
जा सकता है , किंतु गया हुआ
चरित्र किसी भी मूल्य पर दुबारा नही पाया जा सकता। इसलीये मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य है कि वह
संसार में मनुष्यता पूर्ण जीवन जीने के लिए हर मूल्य पर , हर प्रकार से , हर समय , अपनी चरित्र रक्षा के लिए
सावधान रहे।
जीवन एक वरदान
असुरों से सभी घृणा करते
है, क्योंकि उनकी
भावनाओं मे स्वार्थपरता और भोग लालसा इतनी प्रबल होती है। कि वे इसके लिये दूसरो
के अधिकार, सुख और सुविधाएं
छिन्न लेने में कुछ भी संकोच नही करते। उनके पास रहने वाले भी दुखी रहते है। और
व्यक्तिगत बुराईयों के कारण उनका निज का जीवन अशान्त होता ही है। दुख की यह अवस्था
किसी को भी सुखी नही होने देती।
हम सुख भोगने के लिये इस संसार में आये है
दुखों से हमे घृणा है, पर सुख के सही
स्वरूप को भी तो समझना चाहिये। इन्द्रियों के बहकावे में आकर जीवन पथ से भटक जाना
मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणी के लिये श्रेयस्कर नही लगता। इससे हमारी शक्तियां
पतित होती है। अशक्त होकर भी क्या कभी सुख की कल्पना की जा सकती है। भौतिक
शक्तियों से सम्पन्न व्यक्ति का इतना सम्मान होता है कि सभी लोग उसके लिये छटपटाते
है। फिर आध्यातिमक शक्तियों की तो कल्पना भी नही की जा सकती । देवताओं की सभी
नतमस्तक होते है। क्योकि उनके पास शक्ति का क्षय कोष माना जाता है । हम अपने
देवत्व को जाग्रत करे तो वैसे ही शक्ति की प्राप्ति हमें भी हो सकती हैं। तब हम
सच्चे सुख की अनुभूति भी कर सकेंगें और हमारा मानव जीवन सार्थक होगा। हमे असुरों
की तरह नही देवताओं की तरह जीना चाहिये। देेवत्व ही इस जीवन का सर्वोत्तम वरदान है
। हमें इस जीवन को वरदान की तरह ही जीना चाहिये।
Excellent wording sir.
ReplyDelete