घटना सन् 2014 के प्रारम्भ की है जब मेरे अन्दर ‘साधना समर’ लिखने की प्रेरणा उत्पन्न
हो थी। बसन्त पंचमी 2014 को अचानक मैंने सकंल्प किया कि साधना के ऊपर एक छोटी लगभग
150 पष्ठों की पुस्तिका निकालेंगे। यह बात मैंने अपने सहयोगी विशाल को बतायी। वह सहमत
था कि पुस्तिका रखेंगे व गायत्री जयन्ती 2014 तक प्रकाशित कर देंगे। बसन्त पंचमी के
उपरान्त अचानक प्रवाह बहुत तेज हो गया मुझे दिन, रात, कोलज आदि के कार्यों का ठीक से
मन नहीं रहता था। खाना, पीना, नहाना इत्यादि का भी ध्यान नहीं रहता था। या तो जप चलता
रहता था या लेखन। स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा था व विचित्र मानसिक स्थिति
थी। ऐसी स्थिति में से सोचने लगा कि मुझे कोलज की नौकरी से रिटायरमेन्ट ;टत्ैद्ध ले
लेना चाहिए क्योंकि लेखन व जप के अतिरिक्त कुछ करने का म नही नहीं करता था। अपने उदार
स्वभाव के कारण मेरे पास कुछ भी ज्यादा पूँजी नहीं थी। फंड निकाल-निकाल कर या लोन लेकर
पुस्तके छपती थी। मेरे परिवार के एक सदस्य मन में यह भय आ गया कि बच्चों की उच्च शिक्षा
के लिए यदि धन की आवश्यकता पड़ी तो कहाँ से आएगी यदि नौकरी छूट गयी तो हमारे पास पैसो
की व्यवस्था नहीं थी क्योंकि साथ-साथ एक गौशाला भी सम्भाल रखी थी। जहाँ 50 से अधिक
लाचार गाय थी। तभी अचानक एक घटना घटी। एक उच्च साधक मुझसे मिलने आए। मैं ओर विशाल दोनों
कोलज में पुस्तक के कार्य में व्यस्त थे। 200 पृष्ठ पूरे होने जा रहे थे परन्तु लेखन
का प्रवाह अन्तःकरण में बह रहा था। मेरे कोलज के कमरे में को साधक ध्यान मगन हो गए।
कुछ समय पश्चात् उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि जिस पुस्तक का लेखन चल रहा है उसे हिमालय
की देवशक्तियों का आर्शीर्वाद प्राप्त है। वह एक मोटी पुस्तक बनेगी व योगी कथामृत की
तरह लोग उसे शौक से पंढे़गे। उन साधक का आश्वासन पाकर हम दोनों का मनोबल बढ़ गया साथ-साथ
चिन्ता थी कि मोटी पुस्तक छपवाने के लिए धन दो लाख रूपया (2000 प्रतियों के लिए) कहाँ
से आएगा। साथियों का सहयोग गौशाला के लिए पहले ही बहुत लिया जा चुका है। अब मैंने एक
नया कार्य प्रारम्भ किया। कुछ उत्तीर्ण छात्रा जो नौकरी कर रहे थे व मुझसे मिलने आते
थे उनसे मैंने दस-दस बीस-बीस हजार रूपये उधार माँगने प्रारम्भ किए। यह बात मेरे उस
परिवार के सदस्य को भी पता चल गयी कि अब तो उधार भी सिर पर चढ़ने लगा है। यह बात वह
सहन न कर पायें व मुझे इस तरह की मूर्खताएँ न करने की सलाह दी। मुझे उस समय किसी से
कुछ भी सुनना, बात करना अच्छा नही लगता था। मेरे सिर पर तो कोई ओर भूत सवार था। रात्रि
में कभी भी आँख खुलती तो लेखन प्रारम्भ हो जाता व घण्टो चलता। वह सदस्य अब विरोध पर
उतर आय कि सेहत की हानि, धन की हानि कर पता नहीं क्या होगा? उसकी मानसिकता का लाभ उठाकर
आसुरी शक्तियों ने उसको अपना माध्यम बनाना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे क रवह ताकतवर
व आक्रामक तेवर में आ गया। घर में कलह, अशन्ति व उत्पात बढ गए। मुझे अक्सर घर में लेखन
करते हुए ब्रहम दण्ड लेकर बैठना पड़ता था ताकि आसुरी प्रवाह को रोका जा सके। बच्चे
रोगी होने लगे, मेरा स्वास्थ्य बिगड़ने लगा अभी तो 40 प्रतिशत कर्मा शेष था। मेरी समझ
में नहीं आ रहा था कि इसे चालू रखा जाय तो बीच में छोड़ दिया जाय। एक दिन ऐसे ही वह
सदस्य मुझ पर क्रोधित हो रहा था कि मैंने दुःखी होकर पूज्य गुरुदेव से कातर प्रार्थना
की। अचानक एक असीम शन्ति का आभस हुआ। वह क्रोधित सदस्य भी शान्त हो गया व मेरे चरण
स्पर्श कर चला गया। उसके पश्चात् घर में पूर्ण शन्ति, सहृदयता व निरोगिता धीरे-धीरे
स्थापित होने लगी व पुस्तक के कार्य में तेजी आ गयी। किसी समय सन् 2005 में वह सदस्य
उच्च साधक था व गुरुदेव की कृपा से असाध्य रोगों को दूर कर सकता था। परन्तु धीरे-धीरे
कुछ लोगों के बहकावे में आकर साधना पथ से विचल गया। कहने का तात्पर्य है कि अनेक ऐसे
साधक मैंने देखे जो किसी समय साधना की उच्च अवस्था में थे परन्तु कुछ समस्याओं के चलते
आसुरी शक्तियों के चगंुल में फंस गए। यदि ऐसे साधको का वर्णन सविस्तार किया जाय तो
एक मोटी पुस्तक तैयार हो जाएगी। इस समय यह नहीं कहा जा सकता कि इसकी कोई उपयोगिता है
या नहीं। परन्तु इतना अवश्य है कि आसुरी शक्तियों इस प्रकार भ्रम उत्पन्न करती है कि
तनिक भी असावधानी हमारा पतन कर डालती है।
यह घटना यदि बुद्धि से सोचें तो एक मन गढ़न्त
विवरण लगता है। कि एक ही घर में देव प्रवाह व आसुरी प्रवाह दोनों कैसे सम्भव? जब गुरुदेव
ने मनुरा घर लिया था तो भूतो का निवास काफी समय तक बना रहा। ऐसा नहीं था कि गुरुदेव
के घर में प्रवेश करते ही सारे भूत एकदम भाग गए हों। आसुरी शक्तियाँ विघन उत्पन्न करने
के लिए सदस्य के एक मित्र के यहाँ डेरा डाले थी। जब वह सदस्य उस मित्र से मिलता था
तो वह प्रवाह तेज हो जाता था। अतः साधक अपना मित्र उच्च मानसिकता वाले लोगों को ही
बनाएँ।
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