Tuesday, March 8, 2016

तैलंग स्वामी part-vi

            यह स्वामी जी के इलाहाबाद रहने के समय की घटना है। एक दिन स्वामीजी नदी किनारे चुपचाप बैठे थे। कुछ लोग स्नान कर रहे थे और कुछ स्नान के बाद घर की ओर जा रहे थे। अचानक तेज हवा चलने लगी। बालू उड़ने लगा। नदी में लहरें नृत्य करने लगीं। देखते ही देखते मूसलाधार पानी बरसने लगा। जो लोग नदी किनारे थे, वे अपना-अपना सामान लेकर सुरक्षित स्थान की ओर भागने लगे।
            रामतरण भट्ठचार्य नामक एक व्यक्ति जो कि स्वामीजी से परिचित था, उनके पास आकर बोला-‘‘स्वामीजी पानी में क्यों भींग रहे हैं। चलिये, सामने की दुकान में बैठें।’’
            गणपति स्वामी रेत पर पद्यासन लगाये बैठे थे। उन्होंने कहा-‘‘मेरे लिए चिन्तित होने की जरूरत नहीं है। मुझे कोई कष्ट नहीं हो रहा है। तुम जा सकते हो।’’
            रामतरण ने पुनः कहा-‘‘पानी रुक जाने पर आ जाइयेगा। यहाँ भींगने से बीमार हो सकते हैं।’’
            स्वामीजी ने कहा-‘‘मैं यहाँ एक आवश्यक कार्य के लिए बैठा हँू। अभी जाना सम्भव नहीं है।’’
            इस भयंकर आंधी-पानी में कोई-सा आवश्यक कार्य है, यह रामतरण समझ नहीं सका। तभी स्वामीजी ने नदी की ओर इशारा करते हुए कहा-‘‘उधर देखो, एक नाव आ रही है जिस पर कुछ यात्री बैठे हैं। वह डूबनेवाली है। उन्हें अकाल-मुत्यु से बचाना है।’’
            रामतरण ने देखा- बहुत दूर यात्रियों से लदी एक नाव लहरों के थपेड़े से बुरी तरह डगमगा रही है। लेकिन वह समझ नहीं सका कि नाव के डूबने पर स्वामीजी यहाँ बैठे-बैठे कैसे बचायेंगे। कौतूहलवश वह देखने के लिए रुक गया और वर्षा में भींगता रहा। अचानक उसने देखा कि नाव सचमुच डूब गयी। इधर स्वामीजी अपनी जगह से गायब दिखाई दिये। कुछ ही क्षणों में उसने जो दृश्य देखा, उसे देखकर उसे अपार विस्मय हुआ। यात्री से लदी वह नाव पानी के ऊपर आ गयी है। नाव के एक छोर पर स्वामीजी बैठे दिखाई पड़ रहे थे।
            धीरे-धीरे नाव घाट पर आकर लग गयी। सभी यात्री स्वामीजी को प्रणाम करने के बाद चले गये। रामतरण ने स्वामीजी के पैर पकड़ते हुए कहा- ‘‘महाराज यह चमत्कार आपने कैसे किया। आपको कैसे मालूम हुआ कि नाव डूबनेवाली है और आप अपने आसन से अचानक गायब होकर नावपर दिखाई दिये। यह सब कैसे हुआ?’’
            गणपति स्वामी ने कहा- ‘‘यह कार्य कोई भी कर सकता है। इसके लिए केवल दृढ़ इच्छा-शक्ति चाहिए जो केवल भगवद्-कृपा से प्राप्त होती है। मैंने कुछ भी नहीं किया। मेरे मन में उन्हें बचाने की भावना उत्पन्न हुई, ईश्वर ने मेरे माध्यम से स्वयं किया, इसमें आश्चर्य की क्या बात है?’’
            रामतरण की साधारण बुद्धि में यह बात नहीं आयी। उसने कल्पना की कि स्वामीजी अवश्य कोई अलौकिक पुरुष है। इस घटना के बाद से रामतरण बाबा की सेवा में लगा रहता था।
            इलाहाबाद में स्वामीजी चार वर्ष तक थे। रामतरण तथा कुछ अन्य भक्तों के अलावा स्वामीजी के बारे में अन्य किसी को कोई विशेष जानकारी नहीं हुई।
            सन् 1030 ई. में जब अवध का पतन होने लगा और इलाहाबाद में गृहयुद्ध प्रारम्भ हुआ तब स्वामीजी काशी चले आये। यहाँ नगर के दक्षिणी भाग स्थित एक सुनसान स्थान में आकर रहने लगे। उन दिनों जंगमबाड़ी के आगे सम्पूर्ण क्षेत्र जंगली इलाका था जो भद्रवन (भदैनी) के नाम से प्रसिद्ध था। अस्सी के समीप जहाँ तुलसीदास जी रहते थे, उन दिनों उसका नाम तुलसीदास का बाग था। यहाँ रहते समय स्वामीजी टहलते हुए कभी-कभी लोलार्क कुण्ड तक चले आते थे। स्वामीजी की भाषा और रंग-रूप देखकर लोग कहते तैलंगाना से एक बाबाजी यहाँ आये हुए हैं।
            स्वामीजी का वास्तविक नाम स्थानीय जनता नहीं जानती थी। तैलंगाना स्वामी के स्थान पर आपका नाम तैलंग बाबा, तैलंग स्वामीहो गया। यहाँ के लोगों के इस संबोधन से सम्पूर्ण भारत में यही नाम प्रचारित हुआ।
            एक दिन तैलंग स्वामी लोलार्क कुण्ड के समीप आये तो देखा-कुष्ठ रोग से पीडि़त एक आदमी दर्द से कराह रहा है। दयार्द्र होकर स्वामीजी ने पूछा- ‘‘यहाँ रास्ते में क्यों पड़े होत्र तुम्हें घर पर रहना चाहिए।’’
            रोगी ने कहा- ‘‘यहाँ मेरा घर नहीं है। मेरा घर अजमेर में है। इस रोग के कारण मुझे मेरे परिवार वालों ने घर से निकल दिया है। सभी मुझसे नफरत करने लगे तब मैं बाबा के दरबार में चला आया। यहाँ मरने से मुक्ति मिल जायेगी पता नहीं, किस जन्म का पापा भोग रहा हँू।’’
            स्वामीजी ने पूछा- ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’
            ‘ब्रह्मा सिंह ।
            ‘‘जाओ, कुण्ड में स्नान कर आओ। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करुँगा। घबराने की कोई बात नहीं है। सब ठीक हो जायगा।’’
            ब्रह्मा सिंह अति कष्ट से स्न्नान करके लौटा तब स्वामी जी ने उन्हें कुछ बेलपत्र देते हुए कहा- ‘‘इसे चबाकर खा जाओ। अब नित्य कुण्ड में स्नान करने के बाद मेरे पास चले आना। मैं पास ही में रहता हँू। जल्द ही यह रोग दूर हो जायगा।’’
            ब्रह्मा सिंह की आँखें प्रसन्नता स ेचमक उठीं। वह लगातार महीनों तक यह क्रिया करता रहा। उसने महसूस किया कि उसका रोग क्रमशः ठीक हो रहा है एक दिन श्रद्धा से गद्गद् होकर उसने बाबा से निवेदन किया- ‘‘आपने मुझे जीवनदान दिया है। आज से यह शरीर आपका है। कृपया मुझे सेवक के रूप में स्वीकार कर लें। मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा।’’
            कुछ दिनों बाद स्वामीजी तुलसी बाबा से हटकर वेदव्यास में आकर रहने लगे। एक दिन ब्रह्मा सिंह के साथ स्नान करने के लिए गंगा किनारे आये तो देखा-एक जगह भीड़ लगी हुई है। पास जाने पर मालूम हुआ कि एक बंगाली युवक जो कि अर्से से तपेदिक से परेशान था, शायद आज उसका काल आ गया है। खून की कै कर रहा है।
            तैलंग स्वामी ने कहा- ‘‘आप लोग जरा हट जाइये। मैं जरा उसे देखना चाहता हँू।’’ स्थानीय लोग बाबा से अच्छी तरह से परिचित थे। दो-चार लोगों को विश्वास हो गया कि शायद बाबा की कृपा पाकर यह स्वस्थ हो जाय या आराम मिले।
            तैलंग स्वामी ने पूछा-‘‘कहाँ रहते हो?’’
            तभी भीड़ में से किसी ने कहा- ‘‘केदार घाट के पीछे एक बंगाली के मकान में रहता है नाम है सीतानाथ वंद्योपाध्याय।’’
            स्वामीजी उसके पास बैठकर छाती सहलाने लगे। थोड़ी सी राहत महसूस होने के बाद वह उठकर बैठ गया।
            स्वामीजी ने कहा- ‘‘अभी बैठे रहो । तुम्हारा कष्ट दूर हो जायगा।’’
            इतना कहने के पश्चात् तैलंग स्वामी नदी किनारे से थोड़ी सी मिटृी लाकर बोले-‘‘लो थोड़ा-सा खा लो। बाकी मिटृी का प्रलेप छाती पर लगा लो। नित्य स्नान करने के बाद यहीं गंगा की मिटृी का प्रलेप लगाते रहना आराम हो जायगा।’’
            कुछ दिनों बाद सीतानाथ पूर्णरूप से स्वस्थ हो गया। कृतज्ञता प्रकट करने के लिए स्वामीजी के पास आकर उसने कहा- ‘‘स्वामीजी, अगर आप कृपा न करते तो मैं मर ही जाता। बड़ी कृपा होगी, अगर आप मुझे मंत्र देकर शिष्य बना लें। मैनंे अभी तक दीक्षा नहीं ली है।’’
            स्वामीजी ने कहा- ‘‘मैं किसी को दीक्षा नहीं देता। मेरा कोई शिष्य भी नहीं है। ब्रह्मा सिंह मेरे साथ रहता है, इससे पूछा लो। यह केवल मेरी सेवा करता है।’’
            इस उत्तर को सुनकर सीतानाथ चुप हो गया, फिर कुछ कहने का साहस नहीं हुआ।
            हरिश्चन्द्र घाट स्थित श्मशान काशी का प्राचीन श्मशान है चैक स्थित महाश्मशान के आसपास बस्तियाँ बस जाने के कारण मणिकर्णिका घाट पर प्राचीन श्मशान आ गया था। यही वजह है कि बाहर से आने वाले अधिकांश शव हरिश्चन्द्र घाट पर आने लगे।
            एक दिन ब्रह्मा सिंह को साथ लेकर तैलंग स्वामी श्मशान की ओर आये। कुछ देर बाद अनेक लोग एक शव को लेकर किनारे उतारने लगें शवयात्रियों के पीछे एक महिला जोर-जोर से रोती हुई आ रही थी। ज्यों ही शव को भूमि पर लोगों ने रखा त्योंही उक्त महिला उससे लिपट गयी। बड़ी मुश्किल से उस महिला को शव से अलग किया जा सका।
            स्वामीजी ने ब्रह्मा सिंह को शव यात्रियों के पास घटना की जानकारी के लिए भेजा तो पता लगा कि मृत व्यक्ति की पत्नी शव के साथ सती होना चाहती है। निस्सन्तान ब्राह्मणी है। दूसरी जाति की होती तो पुनर्विवाह कर लेती।
            सारी बातें सुन लेने के बाद स्वामीजी उक्त महिला के पास आये। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले-‘‘शान्त हो जा बेटी।’’
            स्नेह भरे इस शब्द को सुनते ही महिला ने एक बार स्वामीजी की ओर देखा और फिर उनके चरणों पर अपना मस्तक रखती हुई बोली- ‘‘मैं अब जीना नहीं चाहती। बाबा जी, इन लोगों को समझाइये। अब मैं किसके लिए जीऊँ?’’
            स्वामीजी ने कहा- ‘‘मेरा पैर तो छोड़ तुझे तो अभी जीवित रहना है। पति की सेवा करनी है।’’
            ‘पति की सेवा करनी है?’ यह बात सुनते ही महिला ने चीखकर पूछा- ‘‘क्या?’’
            उपस्थित लोग विस्मय से बाबा को देखने लगे। तभी तैलंग स्वामी ने शव के नाभिस्थल में पैर का अंगूठा लगा दिया। क्षण भर बाद लाश कुनमुनाने लगी। स्वामीजी ने कहा- ‘‘इसके बंधन खोल दो।’’
            लोग शव के बधन खोलने लगे। शेष लोग चकित दृष्टि से शव को जीवित होते देखने में लगे रहे। स्वामीजी चुपचाप अन्तर्धान हो गये। महिला, जीवित ब्राह्मण तथा साथ आये लोगों में कोई अपनी कृतज्ञता प्रकट नहीं कर सका।
           

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