कुछ दिनों बाद तैलंग स्वामी भदैनी से हटकर हनुमान घाट के पास आकर रहने लगे। इस घाट के समीप दक्षिण भारतीयों की बस्ती बस गयी थी। शाम के समय स्थानीय लोग बाबा के पास आते और उनका उपदेश सुनते थे। सामान्य लोगों को ईश्वर की महिमा का उपदेश देते हुए कहते थे-‘‘ईश्वर की महिमा अपरम्पार है। उनकी आरती करने के लिए चन्द्र-सूर्य के दीप जल रहे हैं, पवन चंवर कर रहा है, तरु-लता पुष्पराशि लेकर उन्हें सुगंध दे रहे हैं, सभी विहंग कीर्तन सुना रहे हैं, वज्र शंख निनाद करते हैं, भक्ति, श्रद्धा, शन्ति, करुणा, मुक्ति जिनकी पद सेवा करते हैं, वैराग्य, ज्ञान, योग, धर्म जिनके द्वारा के प्रहरी है जो जीव के कर्मानुसार फल का विधान कर रहे हैं। लोग उन्हें भले ही भूल जायँ, पर वे किसी का त्याग नहीं करते। जो माया, निद्रा, भंगकर जाग्रत करने के लिए सभी का आह्नान कर रहे हैं। स्वयं निर्गुण होते हुए भी त्रिगुणों से त्रिजगत् को बांधे हुए हैं। उनकी आराधना करना हम सबका धर्म है।’’
काशी में विभिन्न सम्प्रदाय के साधु-सन्त प्राचीनकाल से रहते आये हैं। नगर के लोग अपनी रुचि के अनुसार ऐसे संतों के यहाँ जाकर प्रवचन सुनते हैं, उनके भोजन-वस्त्र का प्रबन्ध करते हैं। उनकी अभ्यर्थना करते हैं। तैलंग स्वामी के निकट भी उनकी योग विभूति से प्रभावित होकर लोग आते थे। ऐसे ही लोगों में श्यामदास नामक एक युवक काशी आया। बचपन से ही इन्हें योग सीखने की लालसा थी। देश के कोने-कोने में स्थित तीर्थ स्थानों में गया। वहाँ के अनेक साधु सन्तों से मिला, परन्तु उसे कहीं सफलता नहीं मिली। काशी आने पर तैलंग स्वामी की चर्चा सुनकर उनके पास आने-जाने लगा। स्वामीजी अपने प्रवचनों में आध्यात्म की बातें बडे़ सरल ढंग से समझाते थे।
श्यामदास घर छोड़कर योग सीखने के उद्देश्य से यहाँ आया है, इस बात की जानकारी जब तैलंग स्वामी को ही गयी तब वे एक दिन उसे समझाते हुए कहने लगे-‘‘यह ठभ्क है कि आत्मज्ञान के लिए योग सीखना पड़ता है। इसके लिए गृहत्याग या अरण्यवास की आवश्यकता नहीं होती। इसके कुछ नियम हैं जिनका चिन्तन और तदनुरूप आचरण करने से योग-फल तथा आत्मज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार की कठिन साधना नहीं करनी पड़ती, केवल उसका अनुध्यान करने पर योगफल प्राप्त किया जा सकता है। इसे सरल योग कहते हैं। योग-फल प्राप्त करने के लिए जिन सब वृत्तियों का निरोध करना आवश्यक होता है, उनको किये बिना योग-फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। उन नियमों और प्रकारों को इस नियमावली में स्थान दिया गया है। इस प्रकार आचरण करने और हृदय में इस प्रकार के भावों को ग्रहण करने पर निश्चय ही योग-फल की प्राप्ति हो सकती है।’’
इतना कहने के बाद सहसा तैलंग स्वामी चुप हो गये। सामान्य श्रोताओं ने कोई प्रश्न नहीं किया, परन्तु श्यामदास जिज्ञासु प्रवृत्ति का होने के कारण पूछ बैठा- ‘‘कृपया उन नियमों को बताने का कष्ट करें।’’
तैलंग स्वामी ने कहा- ‘‘पहला, असंतुष्ट मनुष्य किसी को भी संतुष्ट नहीं कर सकता। जो सर्वदा संतुष्ट रहता है, वह सबको प्रफुल्ल कर सकता है।
दूसरा- जिह्ना पाप की बातें कहने में बहुत ही तत्पर रहती है, उसे संयत करना आवश्यक है।
तीसरा- आलस्य सब अनर्थों का मूल है। प्रयत्न करके इसका त्याग करना चाहिए।
चैथा- संसार धर्माधर्म की परीक्षा की भूमि है, सावधान होकर धर्माधर्म की परीक्षा करके कार्य का अवलम्बन करें।
पांचवां- किसी भी धर्म के प्रति अश्रद्धा न रखें, सभी धर्म का सार है, उनमे अवश्य ही सत्य निहित है।
छठां- दरिद्र को दान दो। धनी को देना व्यर्थ है, क्योंकि उसे आवश्यकता नहीं, इसीलिए वह आनन्दित नहीं होता।
सातवां- साधु का सहवास ही स्वर्ग तथा असत्संग ही नरकवास का मूल है।
आठवां- आत्मज्ञान, सत्पात्र में दान और संतोष का आश्रय करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
नौवां- जो शास्त्र को पढ़कर तथा उसके अभिप्राय को जानकर उसका अनुष्ठान नहीं करते, वे पापी से अधम है।
दसवां- किसी भी कार्य के अनुष्ठानों के मूल में धर्म होना चाहिए, नहीं तो सिद्ध नहीं होगी।
ग्यारहवां- कभी किसी की भी हिंसा न करो। सत् या असत् उद्देश्य से कभी किसी प्राणी का वध न करो।
बरहवां- जो आदमी पाप-कलंक को बिना धोये, मिताचारी और सत्यानुरागी बिना हुए गेरुआ वस्त्र धारण कर ब्रह्मचारी बनता है, वह धर्म का कलंक स्वरूप है।
तेरहवां- बिना छप्पर के घर में जैसे वर्षा का पानी गिरता है, चिन्तन रहित मन में भी उसी प्रकार शुत्र प्रवेश करते हैं।
चैदहवां- पापी लोग इहकाल में अनुतापाग्रि से दग्ध होते हैं, वे जब-जब अपने कुकर्मों को याद करते हैं तब-तब उनके प्राणों में अनुताप जाग उठता है।
पन्द्रहवां- (क) मननशीलता अमरत्व की प्राप्ति का मार्ग है, मनन-शून्यता मृत्यु का मार्ग है।
(ख) गर्व न करो, कामोपभोग का चिन्तन न करो।
सोलहवां- शत्रु शत्रु का जितना अनिष्ट नहीं कर सकता, कुपथगामी मन मनुष्य का उससे भी अधिक अनिष्ट करता है।
सतरहवां- मधु मक्षिका जिस प्रकार पुष्प के सौदन्र्य अथवा सुगन्ध का अपचय न करके मधु संग्रह करती है, तुम भी उसी प्रकार पाप में लिप्त न होकर ज्ञान प्राप्त करो।
अठारहवां- यह पुत्र मेरा है, यह ऐश्वर्य मेरा है, अति अज्ञानी लोग भी इस प्रकार चिन्तन करके क्लेश पाते हैं। वह स्वयं अपने लिए नहीं है तब पुत्र और सम्पत्ति किस प्रकार अपने हो सकते है।
उन्नसवां- कम ही लोग भवसागर पार होते हैं, अधिकांश लोग तो धर्म का ढोंग रचकर किनारे पर ही दौड़-धूप करते है।
बीसवां- संग्राम में जिसने लाखों मनुष्यों को जीत लिया है, वह मनुष्य वास्तविक विजयी नहीं है। जिसने अपने आपको जीत लिया है, वही वास्तविक विजयी है।
इक्कसवां- पाप मुझ पर आक्रमण नही कर सकता- यह सोचकर निश्चिन्त मत रहो। एक-एक बूंद से जल का घड़ा भर जाता है, वैसे ही निर्बोध मनुष्य क्रमशः पापमय हो जाते है।
बाइसवां- किसी को कठोर वचन मत बोलो। कठोर वचन कहने से कठोर बात सुननी पड़ेगी। चोट करने पर चोट सहनी पडे़गी। रुलाने से रोना पड़ेगा।
तेइसवां- जो लोग वासना को नहीं जीत सकते, उनका मन नंगे बदन, जटा-धारण, भस्म लेपन, उपवास, मृत्तिका शय्या इत्यादि से पवित्र नहीं हो सकता।
चैबीसवां- दूसरों को जैसा उपदेश देते हो, स्वयं भी वैसा बन जाओ। जिसने अपने को वशीभूत कर लिया है, वह दूसरे को भी वश मे कर सकता। अपने को वश में करना कठिन है।
पचीसवां- पाप और पुण्य सब निज कृत होते हैं। कोई आदमी दूसरे को पवित्र नहीं कर सकता।
छब्बीसवां- यह जगत् जल बुद-बुद, मृग मरीचिका के समान है जो इस जगत् को तुच्छ जानता है, मृत्यु उसे नहीं देख पाती।
सत्ताइसवां- दौड़ती हुई गाड़ी के समान उत्तेजित क्रोध को जो संयत कर सकता है, वह यथार्थ सारथि है। दूसरे लोग केवल रास पकड़े हुए हैं।
अठाइसवां- प्रेम के बल से क्रोध को जीतो, मंगल के द्वारा अमंगल को जीतो तथा सत्य के द्वारा मिथ्या को जीतो।
उन्तीसवां- गुरु जो उपदेश दें, उसे मन लगाकर सुनो और पालन करो।
तीसवां- व्यर्थ मत बोला करो, जो अधिक बोलता है, वह निश्चय ही अधिक झूठ बोलता है। जहाँ तक हो, बातें कम करने की चेष्टा करो। उसके साथ ही शन्ति प्राप्त होगी।
No comments:
Post a Comment