मानव जीवन अनेक प्रकार की विचित्रताओं
से परिपूर्ण हैं । भाँति-भाँति के लोग उनका स्वभाव खानपीन रहन सहन देखने को मिलता
हैं । शास्त्र कहते है कर्मों की गति बहुत गहन है (गहना कर्मणोगति) कब कोन सा
कर्मफल सामने आ जाए व व्यक्ति का जीवन आनन्दमय अथवा कष्टमय बन जाए इसका पता कोर्इ
बिरला सिद्ध पुरूष ही लगा सकता हैं । इसी कारण इसको गीता जी गहन कहती हैं जो कर्म
अब कर रहे है उसका फल कब और कैसे मिलेगा यह कहना भी कठिन हैं ।
तीन प्रकार के कर्म (क्रियमान, प्रारब्ध व संचित कर्म)
दुनिया में बहुत श्रेणी के प्रारब्ध है
। सामान्य तौर पर यह देखा गया है कि जिनके प्रारब्ध अच्छे हैं वे जीवन में खूब मौज
मस्ती करते हैं कम ही नियम संयमों का पालन करते देखे जाते है इसी को स्वर्गमय जीवन
कहा जा सकता हैं । धर्म, जप-तप, साधना में भी वो कम ही रूचि लेते हैं । दूसरी ओर जिनका प्रारब्ध खराब
है वो बेचारे किसी न किसी मुसीबत में उलझते रहते हैं । जप-तप नियम संयम, कीर्तन भजन आदि में रूचि लेते है, फिर भी जिस में सुख शांत्ति यदा कदा ही
आती हैं । युग ऋषि श्री राम आचार्य जी के अनुसार कभी-कभी परमात्मा व्यक्ति के जीवन
में हस्तक्षेप करके उसको जीवनलक्ष्य मोक्ष तक पहुँचाना चाहता है इस कारण उसके
प्रारब्धों के भुगतान में थोड़ी तीव्रता कर देता हैं । भक्त भगवान को पाने की
अकांक्षा करता हैं, समाधि अवस्था प्राप्त करना चाहता है यह
तभी सम्भव है जब पुराने जन्मों का लेखा-जोखा अर्थात भुगतान पूर्ण हो जाए । योग
मार्ग में कहा जाता है कि जिसकी कुण्डलीनी महाशक्ति, जाग्रत होती है पहले उसके कर्मो का भुगतान तीव्र गति से करती हैं ।
समुद्र मंथन के समय पहले विष निकला, बाद
में अमृत अर्थात् पहले खराब कर्मों का भुगतान तब मोक्ष रूपी अमृत की प्राप्ति। आज
हिमालय के ऋषियों के द्वारा विश्व कुण्डलिनी जागरण (अर्थात् समुद्र मंथन) की
प्रक्रिया की जा रही है जिससे विश्व का आध्यात्मिक रूपान्तरण सम्भव हो सके ।
लेखक ने अपने जीवन में बहुत प्रकार के
अनुभव लिए हैं । एक ओर कालेज लाइफ जहाँ युवक युवतियाँ पढ़ार्इ के साथ मोज मस्तियाँ, शराब कवाब सब कुछ करते हुए जीवन का
आनन्द लेते हुए दिखते हैं । दूसरी ओर लेखक के साथ जुड़े दुखी-समस्याग्रस्त लोगो का
एक बड़ा समूह-जो बेचारे जप-तप, नियम
संयम, योग, आयुर्वेद का आश्रय लेकर भी वो मजा नहीं ले पाते जो कालेज के
युवक-युवतियाँ लेते हैं । एक बुद्धिजीवी होने के नाते मुझको (लेखको) मानव जीवन से
जुड़ी इन सब विडम्बनाओं पर चिन्त्तन मनन करने की एक स्वभाविक आदत हैं । इसके पीछे
एक कारण ओर रहा हैं कि मैं स्वंय जीवन में अपने कठोर प्रारब्धों को भुगतता रहा
हूँ। बचपन में अपनी बीमारियों की समस्या, युवा
होने पर माता-पिता की अनेक कष्ट कठिनार्इयाँ व प्रौढ़ होने पर बच्चों व धर्मपत्नी
से जुड़े अनेक प्रकार के दुख कलेश । इतना सब कुछ होने पर भी एक ऐसा हृदय कि समाज व
संस्कृति के उत्थान के लिए अपनी ओर से पूरे दम खम के साथ प्रयास, यहाँ तक कि शरीर की सामर्थ्य से बाहर
जाकर भी कार्य करने की आदत । यह सब मुझको अनेक प्रकार की मुसीबतों में धकेलता रहा
। प्ररन्तु प्रभु कृपा से समस्याओं के समाधान निकलते रहें । इस दौरान मैंने एक बात
का अनुभव किया है कि यदि व्यक्ति खरा है, सच्चा
है, गलत नहीं करता, आत्मा परमात्मा के निर्देशों को सुनने, समझने व मानने को अकांक्षा रखता है, प्रयास करता है, तो परमात्मा का एक रक्षा कवच उसके
इर्द-गिर्द बन जाता है जो उसके व उसके आत्मीय परिजनों की रक्षा करता हैं । यदि
धरती भी फटेगी तो वह portion
जिस पर सच्चा व्यक्ति खड़ा हैं हल्की
दरार के साथ बची रहेगी । व्यक्ति, हिलेगा, काँपेगा परन्तु बिगडेगा कुछ नहीं । यह
विश्वास, यह श्रद्धा एक दिन में उत्पन्न नहीं हो
जाती अपितु समय व अनुभव के साथ आती हैं । अनेक बार स्वंय मैं व मुझसे जुड़े आत्मीय
परिजनों के जीवन में ऐसी परिस्थितियाँ बनी कि अब शरीर की रक्षा नहीं हो पाएगी ।
परन्तु किसी देव सत्ता ने मृत्यु के मुख से छुड़ा लिया । लगभग 25 वर्षो से मेरी माता जी बीमार चलती आ
रही हैं उनकी बीमारी ने मुझको आध्यात्मक मार्ग में बढ़ने के लिए मजबूर किया । लगभग
हर वर्ष एक समय ऐसा आता है जब वो जीवन मृत्यु के बीच संघर्ष करती हैं परन्तु
परमात्मा उनकी रक्षा करता रहा हैं । आज भी वो जीवित है व हमारे बच्चों के
पालन-पोषण में अपना योगदान देती हैं ।
भगवान के इस कर्ज को जीव कैसे चुका
सकता हैं? केवल हृदय से प्रार्थना कर सकता है कि
हे भगवान ये जीवन आपके किसी काम आ जाए ! कठिन प्रारब्धो के भुगतान के लिए व्यक्ति
को निम्नलिखित प्रकार का ज्ञान होना चाहिए प्रयास करने चाहिए ।
1. नियमित जप अथवा भजन/समर्पण
2. सादा जीवन व खान-पान
3. आयुर्वेद का ज्ञान
4.
हवन-यज्ञ में भागीदारी/संत्सग
5. संस्कृति व आध्यात्मिक साहित्य का अध्ययन
6. गौ सेवा
7. पीड़ित मानवता की सेवा
8. कठोर आत्म विश्लेषण
9. अनके कर्त्तव्य का र्इमानदारी से पालन
10.
उचित
आनन्द का समावेश/मर्यादापूर्ण ढंग से कभी-कभी
पार्टी, मौज मस्ती, करना चाहिए । जीवन की नीरसता को दूर करना आवश्यक हैं
।
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