समाज में दो प्रकार के वर्ग है एक वर्ग
वो है जिनक अर्थ तन्त्र मजबूत है अथवा ठीक है उन्हें अपनी रोजी रोटी-गुजर बसर की
चिन्ता नहीं हैं । ऐसा वर्ग यदि आध्यात्मिक उन्नति करना चाहें तो विभिन्न आक्षरों
में कथा कीर्तन व ध्यान केन्द्रों में बिना tension के भाग ले सकता है। क्योकि उसके पास इतने जमा पूंजी है की यदि कुछ
माह अथवा वर्ष वो न भी कमाएँ तो उसके लिए कोई समस्या नहीं है ।
समाज में एक वर्ग और है जो गरीब माना
जाता हैं जो hand to
month हैं । यदि यह
वर्ग कहीं आश्रम आदि में सेवा अथवा समय लगाना चोंह तो इनकी रोजी रोटी की समस्या
पैदा हो जाती हैं। सन्त रैदास एक ऐसे सिद्ध पुरूष हुए हैं जो गरीबी में रहकर भी
ब्रह्म ज्ञानी का पद पा गए । उनका कहना है कि जो गरीब हो वो अपने मन को पवित्र
करने का प्रयास करें । अपनी मेहनत मजदूरी करें काम धन्धा करते रहें, साथ-साथ आत्म विश्लेषण द्वारा अपने मन
को स्वच्छ भी बनाते रहें । मन को दोष दुर्गुजो, कुविकारो
से मुक्त करते रहें । इससे उनकी चेतना धीरे-धीरे परमात्मा चेतना की ओर उन्मुख होने
लगेगी ।
सत्य ही है आदमी दुनिया भर के साधन-भजन
करता है परन्तु अपनी सरलता,
निष्कपटता नहीं बचा पाता । इस कारण
बहुत प्रयास करने पर भी उनकी उन्नति नहीं हो पाती हैं । पहले ब्रह्मज्ञानी लोग भी
बड़ा सादा जीवन जीते थे । रैदास जी अपना चर्मकार का कार्य करते थे व लोगों की मदद
करते रहते थे । कबीर अपना जुलाहे का काम करते थे व समाज सुधार के प्रयास भी करते
थे । आज परम्परा बदल गयी है । सभी बह्मज्ञानी बड़े-बड़े आश्रमों में रहते हैं।
कभी-कभार प्रवचन आदि के लिए बाहर आते है बड़े-बड़े सेठो अथवा पदाधिकारियों के लिए
ही उनके द्वार खुलते हैं । लेकिन सन्त रैदास सन्त कबीर अति उच्च अवस्था प्राप्त
होकर भी सामान्य जीवन जीते थे ।
वास्तव में सन्त रैदास का जीवन हम सबके
लिए अनुकरणीय है जो जहाँ भी है जैसे भी है अपने मन को पवित्र करता चले अपना कार्य
र्इमानदारी और लगन से करता चलें तभी मन की पवित्रता सम्भव हैं। यदि मन पवित्र हो
गया तो भगवती गंगा को भी उनके कठौती (पात्र) में प्रकट होना पड़ेगा । संसार की सारी
प्रकृति उसके अनुकूल हो जाती है ग्रह नक्षत्र सब कुछ अपनी दशा सही कर लेते हैं ।
राजा, प्रजा, मन्त्री सभी को शुद्ध मन वाले व्यक्ति के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता
है चाहे वो किसी भी जाति का हो अथवा कोर्इ भी कार्य क्यों न करता हो ।
इस प्रकार समाज में ऊँचा नीचा, जाँति-पाँति सब कुछ अर्थहीन है श्रेष्ठ
वही है जिसका मन पवित्र हैं । आइए हम भी अपने मन को पवित्र बनाएँ ।
सन्त रैदास ने ठुकराया पारस पत्थर
सन्त रैदास काशी में गंगा के घाट के
निकट छोटी सी झोंपड़ी में अपनी पत्नी के साथ रहते थे। झोपड़ी के बाहर बैठकर जूते
गाँठने का काम करते थे। कमार्इ कम होने से उनका जीवन अभावग्रस्त था। एक बार एक
रसायनविद उनसे मिलने आए व उनके सत्संग से आनन्द और शान्ति में निमग्न हो गए।
उन्होंने उनके अभाव को दूर करने के लिए एक पारस पत्थर भेंट किया कि आपको जब भी
आवश्यकता पड़े इच्छानुसार स्वर्ण बना लीजिए। परन्तु रैदास जी ने उनकी भेंट स्वीकार
नहीं की उन्होंने कहा ‘‘मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है मैं अपनी
कमार्इ से ही घर गृहस्थी चला लेता हूँ। खून पसीने की कमार्इ से जो आनन्द मिलता है
वह दुनिया के सभी सुखों से श्रेष्ठ है। हाँ यदि आपको यह पत्थर देना ही है तो आप
यहाँ के राजा को दे दीजिए क्योंकि उसे अपने शौक मजे के लिए हर वक्त रूपयों की
जरूरत पड़ती है मेरी निगाह में वह मुझसे अधिक गरीब है। या फिर यह सेठ जी को दे
दीजिए जो रात दिन पैसों के पीछे पागल रहते हैं व गरीबों का खून चूसते हैं।"
उनकी इस बात से वैज्ञानिक अति प्रसन्न हुए व उनकी महानता को नमन करते हुए यह
शिक्षा लेकर चले गए। परिश्रम की कमार्इ ही सभी सुखों का सार है, मुफ्त का धन अन्तत: कष्ट का कारण बनता
है। इसलिए सदैव मेहनत से ही आजीविका चलानी चाहिए।
संत रैदास के लिए कर्म ही पूजा थी
संत रैदास की उत्कृष्ट भक्ति जग
विख्यात है। वे अपना कार्य करते हुए र्इश-स्मरण करते रहते थे। उन्होंने कभी अपना
काम छोड़कर र्इश्वर को नहीं भजा। उनके लिए उनका काम ही भगवान की पूजा थी। अनेक लोग
उनकी भक्ति का यह स्वरुप देखकर उनका उपहास उड़ाते थे, किंतु रैदास लगन से अपने काम में जुटे
रहते। उनके लिए काम और प्रभु-भजन एक ही सिक्के के दो पहलू थे। एक दिन उनके घर
कोर्इ साधु आया। संयोग से उस दिन सोमवती अमावस्या थी। रैदास ने साधु का यथोचित
सत्कार किया। फिर उससे बात करते हुए अपने काम मे लग गए। साधु ने शुभ दिन का हवाला
देते हुए उनसे गंगा स्नान का आग्रह किया। रैदास ने काम खत्म कर चलने का कहा। साधु
मान गया, किंतु रैदास का काम जल्दी समाप्त नहीं
हुआ। उन्हें साधु को प्रतिक्षा कराना उचित नहीं लगा। अत: उन्होंने साधु से कहा- 'महात्माजी! मेरे भाग्य में शायद गंगा
स्नान नहीं हैं, इसलिए आप मेरे पैसे भी ले जाकर गंगाजी
का चढ़ा दीजिएगा।' साधु ने उनसे पैसे लिए और गंगा स्नान
करने के लिए चला गया। गंगा स्नान के बाद साधु ने सुर्य अर्ध्य दिया और गंगा में
खड़े होकर रैदास का नाम लेकर उनके पैसे चढ़ाए। साधु का विस्मय हुआ जब उसे ऐसी
अनुभूति हुर्इ मानो गंगा मां ने दोनों हाथ बाहर निकालकर संत रैदास की भेंट स्वीकार
की। उसने वापस लौटकर रैदास का यह बात बतार्इ, तो
उन्होंने विनम्र भाव से कहा- 'संभवत:
यह मेरे कर्तव्य-पालन का प्रतिफल होगा। गंगा मां को मैं यहीं से नमन करता हूं।' सार यह है कि कर्तवय-पालन में ही सच्ची
भगवदभक्ति निहित है, न कि धार्मिक आड़म्बरों में! र्इश्वर
का कर्मशीलता प्रिय है।
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