यह भी गुजर
जायेगा
एक समय की बात है कि पर्शिया के महान बादशाह
ने अपने लिये एक विशेष रत्न-जड़ित अंगूठी बनवाने की सोची। अंगूठी के ऊपर वह कुछ
ऐसे शब्दों की नक्काशी करना चाहता था, जो उसे तकलीफ के समय हमेशा राहत दें। उसने अपनी प्रजा में
घोषणा करवार्इ कि जो व्यक्ति उस के लिये बुद्धिमता के सर्वोत्तम शब्दों का सुझाव देगा।
उसे बड़ा इनाम दिया जाऐगा। बहुत से लोग अपने-अपने सुझाव लेकर आये किन्तु बादशाह को
कोर्इ सुझाव पसन्द न आया। इतने में एक दरवेश महल में आया। राजा ने अपना सवाल उस
धर्मात्मा के सामने रखा। इस पर दरवेश ने जवाब दिया, हे राजन्! मैं आपको वे शब्द बताता हूँ, जिन्होंने दु:ख
के समय मुझे हमेशा चैन व तसल्ली दी है। वे शब्द हैं- ‘‘यह भी गुज़र
जायेगा।’’
ये शब्द राजा के दिल को इतने भा गये कि उसने
उन्हें अपनी अँगूठी पर खुदवा लिया। जब भी उसे कोर्इ उदासी या मुश्किल आती वह बस, अपनी अंगूठी की
तरफ देख कर वे शब्द पढ़ता। तुरन्त ही उसका हृदय हिम्मत व आस्था की भावना से भर
जाता।
राजा का दागदार
चोगा
पीपा एक अमीर व शक्तिशाली राजा
था। बहुत साल सांसारिक राग-रंग का जीवन बिताने के बाद, एक दिन उसकी सोयी
चेतना जाग उठी और अब उसे भोग-सुख और आराम से आगे भी कुछ दिखार्इ देने लगा। उसने
सोचा, ‘‘यह निश्चित है कि
मानव जन्म का उद्देश्य इन्द्रिय सुख को पाने से कहीं ऊंचा होगा। अभी मुझे ईश्वर को
पाने की साधना करनी चाहिये,
नहीं तो बहुत देर
हो जायेगी। उसके हृदय में एक में एक महान गुरु की खोज में जाने के लिये उत्कंठा
जाग उठी। यह ऐसा सच्चा संत पाना चाहता था जो उसकी बाँह पकड़ कर उस प्रियतम तक ले
जाए। ऐसा सदगुरु उसे कहाँ मिलेगा? ऐसे समय में राजा पीपा ने संत रविदास के बारे में सुना।
जिसे एक परिपूर्ण व्यक्ति एक सच्चा गुरू, भगवान का अत्यन्त प्रिय माना जाता था- किन्तु वह अधर्म जाति
का, पेशे से मोची था।
पीपा राजा असमंजस में थे। क्या वह इस महान
गुरु की कृपा दृष्टि माँगे?
दूसरी तरफ यह भी
सोचता कि एक राजा हो कर, एक अधर्म जाति के शिक्षक
से मार्ग दर्शन कैसे ले? क्या उनकी अपनी
प्रजा ही उनसे घृणा नहीं करेगी? किन्तु उनके हृदय में ईश्वर-प्राप्ति की लालसा तीव्र से
तीव्र होती गर्इ और अंत में एक दिन उन्होंने उस संत के पास जाने का फैसला किया।
बिल्कुल अकेले, किसी संगी-साथी
के बिना वे संत के पास पहुंचे और सम्मानपूर्वक सिर झुका कर, हाथ जोड़ कर
मिले।
अपने चमड़े के थैले में पानी भर कर संत कहीं
से लौटे थे। यह बात उनके दिल को छू गर्इ कि एक राजा होकर भी वह उसके दीन निवास
स्थान पर उससे मिलने आया। संत ने सोचा, ‘‘मुझे आशीर्वाद के रूप में अवश्य कुछ देना चाहिये।’’ वह आदमी धन्य है
जिसे संत कुछ आशीर्वाद में देना चाहे। संत क्या कुछ नहीं दे सकते? राजा पीपा ने
अपना सिर झुकाया हुआ था, संत रविदास ने
उसे हाथ खोलने को कहा। वह राजा के हाथों में अपने चमड़े के थैले से पानी उंडेलना
चाहते थे, जब कि राजा अपनी
ही शंकाओ की वजह से विचलित
था।
वह सोच रहा था, ‘‘मै राजा हूँ, देश पर शासन करने के लिये
जन्मा हूँ। मेरा ऊँचा नाम है, यश है। मैं इस अधर्म जाति के व्यक्ति के हाथों से पानी कैसे
पी लूँ?’’ राजा ने अपने हाथ
होठों से लगा लिये ताकि ऐसा लगे कि वह पानी पी रहा है। संत पानी उंडेलने लगा-
किन्तु पीपा ने उस पानी को अपने चोगे की लम्बी बाहों में जाने दिया, और पानी का एक
घूँट तक नहीं चखा। राजा अपनी इस चतुरार्इ पर बड़ा खुश था। संत को भी इस बात का पता
न चला।
राजा ने सोचा एक मोची के हाथ से पानी पीने
का जो लांछन उस पर लगना था,
उससे तो वह बचा।
राजा अपने महल में वापिस लौट आया और जब उसने
अपना चोगा उतारा तो देखा कि उसकी बाहों पर कुछ दाग थे। उसने अपने नौकरों को आदेश
दिया कि चोगे को धुलवा कर साफ करवाया जाये।
वह चोगा राजा के धोबी को दिया गया। वह धोबी
दाग-धब्बे मिटाने में माहिर था। उसने अपनी पुत्री को बुलाकर वह चोगा साफ करने को
कहा। उन दिनों दाग निकालने की धोबियों का निराला ही ढंग था। वे दाग वाले स्थान से
कपड़े को चूस चूस कर थूक देते थे जब तक कि दाग निकल न जाता। राजा के चोगे के साथ
भी लड़की ने ऐसा ही करना शुरू किया। उसने दाग को चूसा किन्तु उसे ऐसा
लगा जैसे किसी ने थूक को बाहर फेंकने से उसे रोका है। तो दाग को चूस-चूस कर निगलने
लगी। जैसे ही उसने निगला,
उसकी अन्तर दृष्टि
जागृत हो गर्इ- उसने अपने भीतर एक सुन्दर ज्योति देखी। उसे बोध हो गया। नये प्रकाश
से वह उज्जवल हो गर्इ और ज्ञान भरे शब्द बोलने लगी। वह सचमुच बदल चुकी थी।
उसका पिता व पड़ोसी उसके इस बात से चकित थे।
वे उसके आगे सम्मानपूर्वक सिर झुकाते क्योंकि वह ईश्वर की कृपा दृष्टि से संत बन
गर्इ थी।
उसके बारे में सारे राज्य में खबर फैल गर्इ
और सैंकड़ों लोग उसकी मामूली सी कुटिया की तरफ उमड़ कर आने लगे ताकि उसके दर्शन
करें और ज्ञानमय शब्द भी सुनें।
शीघ्र ही राजा पीपा को भी इसके बारे में पता चला। वह उसे मिला तो
लड़की बोली, “हे महाराज़! मुझ
पर यह सारी कृपा आपके द्वारा दी हुर्इ है। आपका चोगा केवल साफ करने से ही मेरी
काया पलट हुर्इ है।“
उसने राजा के दागदार चोगे की सारी कथा सुनार्इ।
राजा सुनकर सुन्न रह गया। वह सोचने लगा कि आशीर्वाद की दौलत उसने कैसे खो दी - खोर्इ
क्या, बल्कि फेंक दी!
जो ज्ञान व चेतना उसकी हो सकती थी, उसने गवां दी, केवल अपने दंभ व घमंड के कारण।
हममें से कितने
बासी खाना खाते हैं?
विशाखा एक सुन्दर
व गुणी लड़की थी। धनी व्यापारी निगारा ने उसे अपनी पुत्र-वधु के रूप में खास चुना
था। वह स्वयं एक धनी व्यक्ति की पुत्री थी और अपने देश में बाहरी व भीतरी सौन्दर्य
से अनुपम थी। एक दिन निगारा बढ़िया दलिया व शहद का स्वादिष्ट भोजन कर रहा था। एक
भद्र और नम्र पुत्र-वधु होने के नाते, भोजन करते ससुर से कुछ दूरी पर खड़े होकर वह उन्हें पँखा कर
रही थी। उस समय उनके द्वार पर एक बौद्ध भिक्षु भिक्षा माँगने आया। निगारा ने अपने
भोजन से आँखें ऊपर उठाकर भिक्षु को देखा, किन्तु उसने न उठने का प्रयत्न किया, न भिक्षु को
भिक्षा देने का, क्योंकि वह स्वयं
बौद्ध धर्म का नहीं था।
विशाखा को अपने ससुर के इस अनुदार व्यवहार
से ठेस लगी। वह द्वार पर खड़े भिक्षु के पास गर्इ और बोली, ‘‘पूजनीय प्रभु, कृपया आप अपना
समय यहाँ बर्बाद न करें। ससुर जी भोजन कर रहे हैं, वह बासी है और आपके खाने लायक नहीं है। कृपया
आप पड़ोस के घर में जायें,
जहाँ वे शायद आपको भोजन दें।’’
निगारा ने जब ये शब्द सुने तो गुस्से से लाल-पीला
हो गया। वह गरज कर बोला,
‘‘ऐसा बोलने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुर्इ? इसी क्षण मेरे घर से निकल जाओ, मैं दोबारा
तुम्हारी शक्ल देखना नहीं चाहता।’’
विशाखा ने धीमे से उसे कहा, ‘‘आप ही तो अपने
बेटे की शादी के लिये मेरा हाथ माँगने आये थे। आप इसके लिये मेरे पिता के पास आये
थे। अब यदि आप मुझे वापिस भेजना चाहते हैं तो आपको मेरे पिता से कहना होगा कि आकर
मुझे ले जायें। इस शहर के बुद्धिमान लोगों को मेरी किस्मत का फैसला करने दीजिये।
फिर निगारा शहर के विद्वानों के पास गया।
उन्होंने विशाखा की कही बात की कड़े शब्दों में शिकायत की। कहा, “मैं एक माननीय और
धनी नागरिक हूँ। उसकी यह कहने की हिम्मत कैसे हुर्इ कि मैं बासी खाना खाता हूँ।“
उन्होंने विशाखा से पूछा, ‘‘बेटी, तुमने ऐसे बेढंगे
शब्द क्यों बोले?’’
विशाखा ने कबूल करते हुए कहा: ‘‘हे विद्वान-जन, यह सच है कि
मैंने भिक्षु से कहा था कि ये बासी खाना खा रहे हैं। किन्तु बासी से मेरा मतलब था
कि ये अपने पिछले कर्मों का फल खा रहे थे। परन्तु वे अब ऐसा कुछ नहीं कर रहे थे
जिससे उन्हें भविष्य में कर्म करने के लिये फल मिलें।‘‘
विद्वान-जन उसका उत्तर सुन कर आश्चर्यचकित
रह गये। वे उससे सम्मानपूर्वक बोले, ‘‘तुम्हारे शब्द बिल्कुल सत्य है ।’’
निगारा की तरफ सम्बोधन करके बोले, “तुम सचमुच
सौभाग्यशाली हो कि तुम्हें इतनी बुद्धिमति पुत्र-वधु मिली है। उसे घर ले जाकर, उससे अच्छा
व्यवहार करो।“
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