स्थावरं जंगमं चैव तथा चैव चराचरम्।
व्याप्तं येन जगत्सर्वम तस्मै
श्रीगुरवे नम:।।
ज्ञानशक्तिसमारूढस्तत्त्मालाविभूषित:।
भुक्तिमुक्तिप्रदाताय तस्मै श्रीगुरवे
नम:।।
अनेकजन्मसंप्राप्त-सर्वकर्मविदाहिने।
स्वात्मज्ञानप्रभावेण तस्मै श्रीगुरवे
नम:।
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं
तप:।
तत्त्वम् ज्ञानात्परं नास्ति तस्मै
श्रीगुरवे नम:।।
मन्नाथ: श्रीजगन्नाथो
मद्गुरूश्रीजगद्गुरू:।
ममात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे
नम:।।
परम आराध्य गुरूदेव इस जड़-चेतन, चर-अचर सम्पूर्ण जगत् में संव्याप्त
हैं। उन सदगुरु को नमन है। ज्ञान शक्ति पर आरूढ़, सभी तत्त्वों की माला से विभूषित गुरूदेव भोग एवं मोक्ष दोनों ही फल
प्रदान करने वाले हैं। उन कृपालु सदगुरु
को नमन है। जो अपने आत्मज्ञान के प्रभाव से शिष्य के अनेक जन्मों से संचित सभी
कर्मो को भस्मसात कर देते है, उन
कृपालु सदगुरु को नमन है। श्री गुरूदेव से
बढ़कर अन्य कोई तत्व नहीं है। श्री गुरू सेवा से बढ़कर कोई दुसरा तप नहीं है, उनसे बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं है, ऐसे कृपालु गुरूदेव को नमन है। मेरे
स्वामी गुरूदेव ही जगत् के स्वामी हैं। मेरे गुरूदेव ही जगत्गुरू हैं। मेरे आत्म
स्वरूप गुरूदेव समस्त प्राणियों की अंतरात्मा हैं। ऐसे श्री गुरूदेव को मेरा नमन
है।
सदगुरु महिमा का यह मंत्रात्मक
स्तोत्र अपने आप में अनेकों दार्शनिक रहस्यों को समाए हैं। इसमें श्रद्धा एवं
चिंतन दोनों का ही मेल है। सदगुरुदेव की पराचेतना न केवल सवर्व्यापी है, बल्कि शिष्य के सभी पूर्वसंचित कर्मो
को नष्ट करने में समर्थ है। सचमुच ही गुरूदेव से श्रेष्ठ अन्य कोई भी तत्त्व या
सत्य नहीं है, क्योंकि जो कर्म के गहनतम रहस्य को
जानते है, उनके लिए यह बड़ा ही स्पष्ट है कि
कर्मो के क्रूर, कुटिल कुचक्र से सदगुरु ही उबारने में
समर्थ होते है। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में कहा है- गुरू बिनु भव
निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।। यानि कि श्री गुरूदेव के बिना कोई
भी संसार सागर को नहीं पार कर सकता, फिर
भले ही ब्रहा अथवा शिव की भाँति ही समर्थ क्यों न हों।
इस सत्य को उजागर करने वाली एक सच्ची
घटना यहाँ पर कहने का मन है। इस घटना पर मनन करके श्री गुरूदेव की कृपा का अनुभव
किया जा सकता है। यह सत्यकथा रूसी संत गुरजिएफ एवं उनके एक शिष्य रूशिल मिनकोव
के बारे में है। गुरजिएफ महात्मा कबीर की भाँति बड़े अक्कड़-फक्कड़ संत हुए हैं।
वे परम ज्ञानी होने के साथ आध्यात्मिक रहस्यों के महान् जानकार थे। इस सब के
बावजूद उनका व्यवहार काफी अटपटा-बेबूझ और विचित्र सा होता था। उनके शिष्य समझ ही
नहीं पाते थे कि ये क्यों किसलिए ऐसा कर रहे हैं। पर शायद यही शिष्यो की
परीक्षा का उनका ढ़ंग था। इसी कसौटी पर वे शिष्यो की श्रृद्धा को जाँचा-परखा करते
थे। जो इस जाँच-परख में सही पाया गया, वही आध्यात्मिक ज्ञान के लिए सुयोग्य पात्र समझा
जाता था।
रूशिल मिनकोव ने अपने संस्मरणों में
लिखा है कि उनके साथ यह परीक्षा लगातार चौबीस सालों तक चलती रही। रूशिल लिखते
हैं कि वह लगभग साढ़े तेइर्स साल की आयु में
गुरजिएफ से मिले थे। बातचीत एवं श्र्द्धा की अभिव्यक्ति के क्रम में
उन्होंने कहा- गुरूदेव मैं अध्यात्म विद्या पाना चाहता हूँ। शिष्य की इस चाहत पर
गुरजिएफ बोले- ठीक है मिलेगी, पर
देख, पाँव जमाकर इस कोठरी में रहना। जो भी
हो उसे सहना, भागना मत। पीड़ा, परेशानी, अपमान, तिरस्कार सभी कुछ यदि तू सहता रहा, तो समझ तू वह सब पा जाएगा जिसकी तुझे
चाहत है। अपने, गुरू के इस कथन पर मिनकोव ने हाँ भर
दी। हालाँकि उसे उस समय भविष्य में आने वाली परेशानियो का कोई अंदाजा नहीं था।
गुरजिएफ के शरीर छोड़ते ही उस पर एक के
बाद एक नए-नए वज्रपात होना शुरू हो गए। सालों-साल चलने वाली शारीरिक व्याधियाँ, जैसे-तैसे घिसट-घिसट कर चलाता जीवन।
हालाँकि मिनकोव अपनी पीड़ाओं के बावजूद किसी अन्य की सहायता करने से चूकता नहीं था।
जिनकी वह सहायता करता उसमें पुरुष-स्त्रियाँ , बच्चें सभी शामिल थे। अपनी सारी सहायताओं एवं सभी अच्छे कर्मो के
बदले उसे वंचना ही मिली। प्रत्येक सत्कर्म के बदले दुष्परिणाम! जब तब लगने वाले
चारित्रिक लांछन उसे प्राय: पीड़ाओं में डुबोए रखते, पर करता भी क्या? श्री
गुरूदेव को वचन दिया था। ऐसी ही विपत्तियो से जूझते-जूझते अठारह वर्ष बीत गए।
हालाँकि संकट यथावत् थे।
उसके मन में शकाएँ घर करने लगी, क्योंकि शरीर छोड़ने के बाद गुरजिएफ ने उसे स्वप्न में भी दर्शन नहीं दिए
थे। पर इस उन्नीसवें साल में गुरजिएफ की एक अन्य शिष्या ने उसे बताया कि अभी 6 वर्षो की सघन पीड़ाएँ सहनी है।
गुरूदेव यही चाहते हैं। 6 सालों के सघन मानसिक यातना एवं कठोर
श्रम के बाद ही तुम्हारे जीवन में प्रकाश का अवतरण होगा। मिनकोव ने 6 वर्ष भी बिताए और अपने निष्कर्ष में
कहा कि आज मैं गुरूदेव की कृपा को अनुभव कर रहा हूँ, जो कर्मजाल शायद अनेकों जन्मों में भी
न कटता, उन्होंने मात्र चौबीस सालों में ही काट
दिया। सदगुरु जिस पर जितना ज्यादा कठोर है, समझो
उस पर उतने ही अधिक कृपालु हैं। मिनकोव की ये बातें रहस्यमय होते हुए भी सदगुरु की करूणा को जताती हैं।
4-शिष्य को हर पल इस सत्य का ध्यान रखना
चाहिए कि सच्चे शिष्य व साधक के लिए गुरू भक्ति ही साधना है और यही सिद्धि है।
जब कोई शिष्य इस सत्य को भूल जाता है, तो
उसकी साधना में भटकाव के दौर आते है। कभी यह भटकाव किन्हीं सिद्धियों को पाने
की लालसा में होता है, तो कभी अन्य किसी सांसारिक
आकांक्षाओं के कारण। लेकिन कृपालु सदगुरु अपने शिष्य को इस भटकाव से बचाते है, बचाते है और उबारते-उद्धार करते हैं।
इस प्रसंग में एक बड़ी प्यारी कथा है। यह कथा उत्तर भारत के सुविख्यात संत बाबा
नीम करौरी व उनके विदेशी शिष्य रिचडर् के बारे में है। इन रिचडर् को बाबा ने
अपने शिष्य के रूप में अपनाया था और नाम दिया था रामदास। इन रामदास में अपने गुरू
के प्रति भक्ति तो थी, किंतु साथ ही कहीं सिद्ध-शक्ति की
आकांक्षा भी छुपी थी। एक बार वह एक स्वामी जी के साथ दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे
थे। बातों ही बातों में उन्होंने अपनी सिद्ध-शक्ति की चाहत के बारे में स्वामी जी
को बताया। स्वामी जी ने उन्हें एक शक्तिशाली शिव मंत्र की दीक्षा दी और बताया कि
इस मंत्र का जाप करने से वह अपार सम्पति व शक्ति का स्वामी हो जाऐगा। रामदास को शक्ति
लोभ तो था ही सो वह लगातार कई हफ्ते तक मंत्र को जाप करते रहे। इस मंत्र जाप के
प्रभाव से शरीर के बाहर होने व सूक्ष्म शरीर से भ्रमण की शक्ति मिल गयी।
बस फिर क्या था रामदास का कौतुकी मन
जाग उठा और सूक्ष्म शरीर से निकल कर भ्रमण करने लगे। इसमें उन्हें आंनद आने लगा।
इस क्रम में उनकी यात्रा अन्य सुक्ष्म लोक-लोकान्तरों में भी होने लगी। एक बार जब
वह अपनी इस प्रक्रिया के दौरान किसी अन्य लोक में पहुँचे, तो वहाँ उन्हें अपने सदगुरु बाबा नीम
करौरी दिखाई दिये। रामदास को अचरज भी हुआ और हर्ष भी। वे हर्षोन्माद में बाबा नीम
करौरी की ओर दौड़ पड़े। बाबा उस समय अपने तख्त पर एक कम्बल ओढ़े बैठे थे। उनके आने
पर उन्होंने कम्बल से अपना मुँह ढक लिया और तीन बार ऐसी फूँक मारी जैसे कि कोई
मोमबत्ती बुझा रहा हों। उनकी इस फूँक से
रामदास को महसूस हुआ कि जैसे हर फूँक के साथ उनका शरीर फूलता जा रहा है, मानो उनकी किसी आन्तरिक नली में हवा
भरी जा रही हो। तीसरी बार की फूँक के बाद रामदास ने स्वयं को अपने स्थूल शरीर में
पाया और वह अपने उसी स्थान पर थे, जहाँ
उनकी नियमित साधना हो रही थी। लेकिन इस समूची प्रक्रिया में एक अचरज घटित हुआ
कि दक्षिण भारत की यात्रा में स्वामी जी ने उन्हें जो मंत्र दिया था, उसकी शक्ति समाप्त हो गयी थी। यही नहीं
उनके मन में उस मंत्र के जपने की इच्छा भी मर गयी थी।
इस........ तमाशे से उनके मन में थोड़ी
उलझन भी पैदा हुई और वह इस उलझन को सुलझाने के लिए अपने सदगुरु बाबा नीम करौरी के
पास गये। उन्हें आते हुए देखकर बाबा हँस पड़े और बोले-चल बता कैसी चल रही है तेरी
साधना और कैसा है तू? उनके पूछने से ऐसा लग रहा था, जैसे वे कुछ भी जानते न हों। हालाँकि
रामदास को मालूम था कि अंतर्यामी गुरूदेव को सब कुछ ज्ञात है। फिर भी उन्होंने
स्वामी जी के मंत्र की कथा,
अपनी साधना और सूक्ष्म भ्रमण के अपने
अनुभव के बारे में उन्हें ब्योरेवार बताया। साथ ही यह भी बताया कि किस तरह
गुरूदेव बाबा नीम करौरी ने उनकी सारी शक्ति समाप्त कर दी।
रामदास के इस कथन पर बाबा बोले-बेटा!
शिष्य तो बच्चा होता है,
उसकी अनेकों चाहतें भी होती हैं और ये
जो चाहते है-वह कभी ठीक होती हैं, तो
कभी निरी बचकानी। गुरू को इन सब पर ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं उसका शिष्य भटक
न जाये। कहीं उसे कोई नुकसान न हो। तुम्हारे साथ जो हुआ, वह तुम्हें नुकसान से बचाने के लिए
हुआ। तुम्हारी साधना अभी कच्ची है। तुम्हारे सूक्ष्म शरीर में अभी पर्याप्त ऊर्जा
नहीं है। ऐसी स्थिति में सूक्ष्म शरीर से भ्रमण करने पर अन्य लोकों के निवासी
तुम्हें नुकसान पहुँचा सकते है। यहाँ तक कि तुम्हें अपने यहाँ कैदकर सकते हैं।
ऐसी स्थिति आने पर तुम्हारे सूक्ष्म शरीर
का सम्बन्ध स्थूल शरीर से टूट जायेगा और न केवल तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी, बल्कि तुम्हारी तप-साधना भी अधुरी रह
जायेगी। तम्हारे साथ मैंने जो कुछ भी किया, वह
तुम्हें इसी अप्रत्याशित स्थिति से बचाने के लिए किया। अपने सदगुरु की इस कृपा
को अनुभूत करके रामदास की आँखें छलक आई। सचमुच ही सदगुरु के बिना और कौन सहारा
है।
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