Tuesday, January 22, 2013

आधुनिक समाज की व्यथा

शिक्षा की दृश्टि से, धन की दृश्टि से, अमुक की दृश्टि से, सब तरह से आदमी संपन्न होता जा रहा है, लेकिन र्इमान की दृश्टि से, अंतरंग की दृश्टि से इतना खोखला होता चला जा रहा है कि उसके उपर मुसीबतें आएँगी। नेचर हमारे उपर मुसीबतें पटक देगी। वह हमें क्षमा करने वाली नहीं है। हमारे रीर का स्वास्थ्य सुरक्षित रहने वाला नहीं है। हमको किसी से प्यार-मोहब्बत रहने वाली नहीं है। हम मरघट के प्रेत-पिशाच के तरीके से अब जिंदा रहने वाले हैं। मरघट के प्रेत-पिशाच के तरीके में एक ही बात होती है कि तो कोर्इ उसका होता है और वह किसी का होता है। प्रेत-पिशाचों में क्या फर्क होता है? बेटे, एक ही होता है, हर भूत के मन की ये बनावट होती है कि वह किसी का और कोर्इ उसका। तो महाराज जी! आपने देखे हैं कि भूत कैसे होते हैं? हाँ, हमने देखे है और आपको भी दिखा सकते हैं।
ये भूत-आपको कहाँ मिलेंगे? मित्रों! आप पाच्श्रात्य देशो में चले जाइए। वहाँ आपको प्रेत मिलेंगे, पिशाच मिलेंगे। कैसे? जो अशांत-ही-अशांत हैं। पैसा जिनके पास अंधाधुंध है, लक्जरी जिनके पास बहुत सारी है, टेजीविजन है, पीने को फलों को जूस है, लेकिन वे इतने अधिक अशांत है, टेंशन में हैं कि प्रेत-पिशाचों से कम नहीं हैं। कोर्इ उनका और वे किसी का। बीबी उसकी, भैया उसका। दोनों के दोनों वेशया और भडुवे हैं। जब तक दोनों आते हैं, तब तक तमाशा दिखाते है और जब मन भर जात है, तो एक-दूसरे का लात मारकर भगा देते हैं। हम ये किसकी बात कह रहे है बेटे, इसी को पिशाच कहते हैं। पाच्श्रात्य देशो में यही होता है।
मित्रो! इसका परिणाम क्या होगा? इसका परिणाम यह होगा कि हमारा  अंतरंग खोखला होता चला जाएगा। मित्रो! इससे आदमी के उपर मुसीबतें ही आएँगी, हम और आप जिस जमाने में रहते हैं, बेटे, हमारे प्राण निकलते हैं- उसे देखकर। जब हम भविष्य की ओर देखते हैं, विज्ञान की ओर देखते है, तब हमें खुशी होती है कि हमारे बाप-दादे कच्चे मकानों में रहते थे और हम पक्के में रहते हैं। हमारे बाप-दादों में से कोर्इ पढ़ा-लिखा नहीं था और हम सब पढ़े-लिखे हैं। सुविधाओं को देखते हैं, तो हमारे पास टेलीफोन है और बहुत सारी चीजें हैं, लेकिन जब उनके साफ-सुथरे जीवन को, उज्जवल चरित्र को देखते हैं, तो उस दृश्टि से हम किस कदर दिनों दिन घटते हुए चले जा रहे हैं, यह स्पष्ट दिखार्इ देता है।
       विवेकानंद के पास रामकृष्ण परमहंस जाया करते थे और कहते थे कि बेटा! हमारा कितना का हर्ज होता है? तू समझता नहीं है क्या? महाराज जी मैं बी करूँगा, एम करूँगा, नौकरी करूँगा। नहीं बेटे, तू नौकरी करेगा तो मेरा काम हर्ज हो जाएगा और हम जिस काम के लिए आए हैं और तू जिस काम के लिए आया है, सो उसका क्या होगा? नहीं महाराज जी! देखा जाएगा, पहले तो मैं नौकरी करूँगा। नहीं बेटे ऐसा नहीं हो सकता। एक दिन  रामकृष्ण परमहंस रोने लगे। उन्होंने कहा, बेटे तू नौकरी करेगा, तो मेरा काम हर्ज होगा। मित्रो! विवेकानंद चले गए और रामकृष्ण ने उन्हें क्या से क्या बना दिया। कर्इ आदमी कहते रहते हैं कि गुरूजी! हमको आशीर्वाद देकर आप विवेकानंद बना सकते हैं? बेटे, हम आपको बना सकते हैं। इसके लिए हम व्याकुल भी हैं और लालायित भी, लेकिन पहले तू किमत तो चुका। नहीं, महाराज जी! कीमत तो नहीं चुकाउँगा। आप तो आशीर्वाद दीजिए। बेटे, जो तू आशीर्वाद-ही आशीर्वाद माँगता है, वह जीभ की नोक से कह देने भर से आशीर्वाद नहीं हो जाता। उसे  आशीर्वाद नहीं कहते। आशीर्वाद के लिए आदमी को अपना पुण्य देना पड़ता है, मनोयोग देना पड़ता है, तप देना पड़ता है, श्रम देना पड़ता है। नहीं, महाराज जी! जीभ हिला देते हैं, सो वही आशीर्वाद हो जाता है। 
विचार परिवर्तन अनिवार्य
 हमको जनसाधारण के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण सेवा जो है, वह यह करनी पड़ेगी कि उनके विचार करने की शैली, सोचने की शैली का बदल देना पड़ेगा। अगर हम सोचने के तरीके को बदल देंगे, तो उनकी कोर्इ भी समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान  हो सके।
सारी समस्याओं का निदान, समाधान जरूर हो जाएगा, यदि आदमी इस बात पर विश्वास कर ले कि आहार और विहार, खान और पान, संयम और नियम, ब्रहाचर्य, इनका पालन कर लेना आवश्यक है तो मैं आपको यकिन दिलाता हूँ कि अस्पताल को खोले बिना, डाक्टरों को बुलाए बिना, इंजेक्शन लगवाए बिना और अच्छी कीमती खुराक का इन्तजाम किए बिना हम सारे समाज को निरोग बना सकते हैं। आदमी की स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान हम जरूर कर सकते हैं। हमारी लड़कियाँ पढ़ी-लिखी  हो, गाना-बजाना  आता हो और हमारी स्त्रियाँ सुशिक्षित  हों, उन्होंने एम  पास  किया हो, लेकिन हमने एक-दूसरे के प्रति प्रेम, निश्ठा और वफादारी की शिक्षा दे दी, तो फिर जंगली हों तो क्या, गँवार हों तो क्या, आदिवासी हों तो क्या, भील हों तो क्या, कमजोर हो तो क्या, गरीब हों तो क्या? उनके झोपड़ों में स्वर्ग स्थापित हो जाएगा। उनके बीच में मोहब्बत और प्रेम, निष्ठा और सदाचार हमने पैदा कर दी तब? तब हमारे घर स्वर्ग बन जाएँगे।
अगर ये सिद्धांत हम पैदा करने में समर्थ  हो सके, तब फिर चाहे हम सबके घर में एक रेडियो लगवा दें, टेलीविजन लगवा दें। हर एक के घर में हम एक सोफासैट डलवा दें और बढ़िया से बढ़िया बेहतरीन खाने-पीने की चीज का इन्तजाम करवा दें, फिर हमारे घरों की और परिवारों की समस्या का कोर्इ समाधान  हो सकेगा। परिवारों की समस्याओं का समाधान जब कभी भी होगा, तो प्यार से होगा, मोहब्बत से होगा, र्इमानदारी से होगा, वफादारी से होगा। इसके बिना हमारे कुटुम्ब दो कौड़ी के हो जाएँगे और उनका सत्यानाश हो जाएगा। फिर आप हर एक को एम  करा देना और हर एक के लिए बीस-बीस हजार रूपये छोड़कर मरना। इससे क्या हो जाएगा? कुछ भी नहीं होगा। सब चौपट हो जाएगा।
मित्रो! सामाजिक समस्याओं की गुथियो के हल, विचारों के परिवर्तन से होंगे। कौन मजबूर कर रहा है आपको कि नहीं साहब दहेज लेना ही पड़ेगा और दहेज देना ही पड़ेगा। अगर इन विचारों को और रीतियों को बदल डालें, ख्यालातों को बदल डालें, तो  जाने हम क्या से क्या कर सकते है और कहाँ से कहाँ ले जा सकते हैं। हमारे पास सबसे बड़ा काम मित्रो, जनता की सेवा करने का है। इसके लिए हम धर्मशाला नहीं बनवाते, हम चिकित्सालय नहीं खुलवाते, अस्पताल नहीं खुलवाते और हम प्रसूतिगृह नहीं खुलवाते। हम ये कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को परिश्रमशील होना चाहिए ताकि उसे किसी प्रसूतिगृह में जाने की और किसी नर्सिंग होम में जाने की आवश्यकता  पड़े। लुहार होते हैं, आपने देखे है कि नहीं, गाड़ी वाले लुहार, एक गाँव से दूसरे गाँव में रहा करते हैं। उनकी औरते घन चलाती रहती हैं। घन चलाने के बाद उन्हें यह नहीं पता रहता कि बच्चा कोख में से पैदा होता है या पेट में से पैदा होता है। आज बच्चा पैदा हो जाता हैं, कल-परसों फिर काम करने लगती है। उनको नर्सिंग होम खुलवाने की और डिलिवरी होम खुलवाने की जरूरत नहीं है। हमको प्रत्येक स्त्री और पुरुष को यही सिखाने की जरूरत है कि हमको मेहनती और परिश्रमशील होना चाहिए। परिश्रमशील होने का माददा लोगों के दिमागों में हम स्थापित कर सकें, तो मित्रो हमारे घरों की समस्याएँ, परिवारों की समस्याएँ, समाज की समस्याएँ और सारी समस्याएँ जैसे बेर्इमानी की समस्याएँ आदि कोर्इ समस्या ऐसी नहीं है, जिसका हम समाधान  कर सकते हों।                                                                                                                                                                                                                                                                                    

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