Saturday, January 12, 2013

दु:खों का मूल है इश्वर के प्रति अविश्वाश



इस संसार में समस्त दु: पापों के ही परिणाम है। मनुष्य अपने किये पापों का दण्ड भुगतता है या फ़िर दूसरों के पापों के लपेट में जाता है। दोनों प्रकार के दु:खों के कारण पाप ही होते हैं।यदि पापों को मिटाया  जा सके तो समस्त दु: दूर हो सकते हैं। यदि पापों को घटाया जा सके तो मानव जाति  के दु:खों में निश्चय  ही कमी हो सकती है। कुविचारों  और कुकर्मो  पर ​नियंत्रण  धर्म  बुद्धि  के विकसित  होने से ही संभव होता है। और यह धर्म   बुद्धि  परमात्मा पर सच्चे मन से विश्वास  रखने से उत्पन्न होती है। जो निष्पक्ष  न्यायकारी, परमात्मा को घट-घटवासी और सर्वव्यापी समझेगा, उसे सर्वत्र  ईश्वर ही उपस्थित   दिखाई  पड़ेगा, ऐसी दशा में पाप करने का साहस भी उसे कैसे होगा? पुलिस को सामने खड़ा देखकर तो दुस्साहसी भी अपनी हरकतें बंद कर देता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति परमात्मा को निष्ठा पूर्वक  कर्म फल देने वाला और सर्वव्यापी समझ लेगा, वह आस्तिक व्यक्ति पाप करने की बात सोच भी कैसे सकेगा?
ईश्वर के प्रति अविश्वास ही पापों की जड़ है, इस अविश्वास से प्रेरित होकर ही मनुष्य मर्यादाओं का उल्लंघन  करके  स्वार्थ और अहंकार की पूर्ति  के लिए स्वेच्छाचारी बन जाता है। आत्मनियंत्रण के लिए  ईश्वर-विश्वास अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है। व्यकितगत सदाचार और सामूहिक कर्त्तव्य परायणता के पालन के लिए ईश्वर विश्वास के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं हो सकता। लिए मनीषीयों ने मनुष्य के दैनिक आवश्यक कत्तर्व्यों में इर्श्वर उपासना को सबसे प्रमुख और अनिवार्य माना है। जो इसकी उपेक्षा करते है, उनकी भत्सर्ना की है और उन्हें कई प्रकार के दण्ड़ों का भय भी बताया है।
खेद है कि आज नास्तिकता की सत्यानाशी बाढ़ तेजी से बढ़ती चली जा रही है। भौतिकतावादी विचारधाराओं ने यह प्र​तिपा​दि किया है कि इर्श्वर तो आँखों से दिखाई पड़ता है और प्रयोगशालाओं की जाँच द्वारा सिद्ध होता है, इस​लि उसे मानने की आवश्यकता नहीं। अ​ति उत्साही लोग इतनी बात से बहक जाते है। तो वे कर्मफल पर विश्वास करते है, और उपासना की कोई आवश्यकता अनुभव करते है।
दूसरे प्रकार के ना​स्तिक इनसे भी गये-बीते हैं। वे अपने को आ​स्तिक कहते और किसी इर्श्वर को मानते भी है, पर उनका यह कल्पित इर्श्वर वास्त​वि इर्श्वर से भिन्न होता है। वे समझते हैं  कि इर्श्वर तो केवल पूजा-स्तु​ति ही चाहता है, इतने से ही प्रस्न्न होकर मनुष्य के पापों पर ध्यान नहीं देता। पूजा करने वालों के समस्त पाप किसी सामान्य धार्मिक कमर्काण्ड के कर लेने से दूर हो जाते हैं। साथ ही वे इर्श्वर से यह आशा रखते हैं कि वह जरा से पाठ-पूजन से बदले बिना योग्यता, पुरूषार्थ और लगन की जाँच कि मनमाना वरदान दे सकता है और उनकी समस्त कामनाओं की पूर्ती कर सकता है। यह लोग ऐसा भी सोचते हैं कि साधु, ब्राह्मण, परमात्मा के अ​धि निकट हैं, इस​लि य​दि उन्हें दान-क्षिणा देकर प्रसन्न कर लिया जाए तो अपनी तगड़ी सिफा​रि परमात्मा के यहाँ पहुँच जाती है और फि तुरन्त ही मनमाने वरदान पाने और पाप के दण्ड से बचने की सु​विधा हो सकती है। हम देखते है कि आजकल नाममात्र की आ​स्तिकता इसी विडम्बना की धुरी पर घूम रही है।
यह प्रच्छन्न ना​विकता दिखा तो इर्श्वर विश्वास जैसी ही पड़ती है, पर इससे लाभ के स्थान पर हा​नि ही धि होती है। आ​स्तिकता का असली लाभ पाप से भय उत्पन्न करना है। इसके विप​रि जि मान्यता के अनुसार दस-पाँच मिनट में पूरे हो सकने वाले कमर्काण्डों द्वारा ही समस्त पापों का फल नष्ट हो सकने का आश्वासन दिया गया हो, उससे तो उलटे पाप के प्रति निर्भयता ही बढ़ेगी। जब पाप-फल से बच सकना इतन सरल मान लिया गया, तो दुष्कर्मो द्वारा प्राप्त होने वाले आकषर्णों को छोड़ना कौन पसंद करेगा? ऐसी मान्यता से प्रभावि होकर मध्यकालीन राजाओं और सरदारों ने बबर्र अत्याचार और अनै​ति आचरण करने के साथ-साथ पूजा-पाठ के भी बड़े-बड़े आयोजन कि थे। उन्होंने मं​दि भी बनवाये और भगवान को प्रसन्न करने वाले उत्सव आ​दि भी किये। पं​डितों और ब्राह्मणों को कथा-भजन करने के  लि वृ​त्तियाँ भी दीं। सम्भवत: वे यही समझते थे कि उनका पहाड़ के बराबर अनै​तिकता का कायर्क्रम इस प्रकार धन द्वारा रचा पूजा-पाठ की धूमधाम के पीछे छि जाएगा। पं​डितों और पुजा​रियों ने अपनी आजी​विका की दृ​ष्टि से ऐसे आश्वासन भी गढ़ कर रख् दि, जिससे कुमार्गामी व्य​क्ति थोड़ा-बहुत दान-पुण्य करते रहने को तत्पर रहें। दान-पुण्य की प​रिभाषा भी इन लोगों ने बड़े विचित्र ढंग से की कि केवल ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुये व्यक्ति को जो कुछ दिया जाएगा, वह अवश्य पुण्य माना जाएगा।
विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रकार की अज्ञानमूलक धारणा व्य​क्ति और समाज के लि हा​निकारक प​रिणाम ही उप​स्थि कर सकती है। पापों के दण्ड से बच निकलने का आश्वासन पाकर लोग च​रित्रगठन की उपेक्षा करने लगे, उनमें पापों का भय जाता रहा। ऐसी अनेक कथा-कहा​नियाँ गढ़ी गइर्, जिनमें  निकृष्ट से निकृष्ट कमर् जीवन भर करते रहने वाले व्य​क्ति केवल एक बार अनजाने-धोखे से- ‘‘नारायण’’ का नाम लेने से मुक्त हो गये इन कथाओं से सत्कमोर्ं की व्यथर्ता सिद्ध होती है और प्रतीत होने लगता है कि जीवन-शोधन के लि श्रम और त्याग करने की अपेक्षा थोड़ा-बहुत पूजा-पाठ कर लेना ही अ​धि सु​विधाजनक है। ऐसी शिक्षा देने वाला आध्यात्म वस्तुत: अपने लक्ष्य से ही भ्रष्ट हो जाता है।
आ​स्तिकता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य का सदाचारी और कत्तर्व्य परायण बनाना है। यदि  इस बात को भुलाकर लोग देवताओं को माँस, मदिरा या मिष्ठान की रिश्वत  देकर मनमाने लाभ प्राप्त करने की बात सोचने लगें तो यह माना जाएगा  की उन्होंने इर्श्वर को भी रिश्वत  लेकर उल्टा-सीधा, काम करने वाला मान लिया है। फिर  तप, त्याग, संयम, धमर् कत्तर्व्य आदि  के कष्टसाध्य मार्ग  की उपयोगिता  क्या रह जाएगी, जब इर्श्वर अपनी प्र​तिमा के दशर्न करने वाले, स्तु​ति गाने वाले और भोग लगाने वाले पर ही प्रसन्न होने लगा तो फि यही मागर् हर किसी का पसन्द आने लगेगा। फि कोइर् क्यों उस सद्धमर् के नाम पर कष्ट सहने की प्रस्तुत होगा जिसमें सवर्स्व त्याग और ति-ति कर जलने की अ​ग्निपरीक्षा में होकर गुजरना पड़ता है।
                       ( पुस्तक अमर वाणी से  )

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