लक्ष्मण मल्लाह व स्वामी भास्करानन्द
प्रत्येक समय में शिष्यों ने गुरूकृपा
को अपने अस्तित्व में फलित होते हुए देखा है। ऐसा ही एक उदाहरण लक्ष्मण मल्लाह का
है, जो अपने युग के प्रसिद्ध संत स्वामी
भास्करानन्द काशिष्य था। काशी निवासी सन्तों में स्वामी भास्करानन्द का नाम बड़ा
श्रद्धा से लिया जाता है। संत साहित्य से जिनका परिचय है, वे जानते हैं कि अंग्रेजी के
सुविख्यात साहित्यकार माकर् ट्वेन ने उनके बारे में कई लेख लिखे
थे। जर्मनी के सम्राट् कैसर विलियम द्वतीय, तत्कालीन
प्रिंस ऑफ वेल्स स्वामी जी के भक्तों में थे। भारत के तत्कालीन अंगे्रज सेनापति
जनरल लुकार्ट, तो उन्हें अपना गुरू मानते थे। इन सब
विशिष्ट महानुभावों के बीच यह लक्ष्मण मल्लाह भी था। जो न तो पढ़ा लिखा था और न
ही उसमें कोई विशेष योग्यता थी, लेकिन
उसका हृदय सदा ही अपने गुरूदेव के प्रति विह्वल रहता था।
भारत भर के प्राय: सभी राजा-महाराजा
स्वामी जी की चरण धूलि लेने में अपना सौभाग्य मानते थे। स्वयं मार्क ट्वेन ने
उनके बारे में अपनी पुस्तक में लिखा था-’ भारत
का ताजमहल अवश्य ही एक विस्मयजनक वस्तु
है, जिसका महनीय दृश्य मनुष्य को आनन्द से अभिभूत कर देता है, नूतन चेतना से उदबुद्ध कर देता है, किंतु स्वामी जी के समान महान् एवं
विस्मयकारी जीवन्त वस्तु के साथ उसकी क्या तुलना हो सकती है।’ स्वामी जी के योग ऐश्वर्य से सभी
चमत्कृत थे। प्राय: सभी को स्वामी जी अनेक संकट-आपदाओं से उबारते रहते थे, लेकिन लक्ष्मण मल्लाह के लिए, तो अपनी गुरूभक्ति ही पर्याप्त थी।
गुरूचरणों की सेवा, गुरू नाम का जप, यही उसके लिए सब कुछ था।
श्रद्धा से विभोर होकर उसने स्वामी
भास्करानन्द की चरण धुलि इकट्ठा कर एक डिबिया में रख ली थी। स्वामी जी के खड़ाँऊ
उसकी पूजा बेदी में थे। इनकी पूजा करना, गुरू
चरणों का ध्यान करना और गुरू चरणों की रज अपने माथे पर लगाना उसका नित्य नियम
था। इसके अलावा उसे किसी और योगविधि का पता न था। कठिन आसन, प्राणायाम की प्रक्रियाएँ उसे नहीं
मालूम थी। मुद्राओं एवं बंध के बारे में भी उसे बिल्कुल पता न था। किसी मंत्र का
उसे कोई ज्ञान न था। अपने गुरूदेव का नाम ही उसके लिए महामंत्र था। इसी का वह जाप
करता, यदा-कदा इसी नाम धुन का वह कीतर्न करने
लगता।
एक दिन प्रात: जब वह रोज की भाँति
गुरूदेव की चरण रज माथे पर धारण करके गुरूदेव का नाम जप करता हुआ उनके चरणों का
चिन्तन कर रहा था, तो उसके अस्तित्व में कुछ आश्चर्यकारी एवं
विस्मयजनक दृश्यावलि प्रकट हो गयी। उसने अनुभव किया कि दोनों भौहों के बीच गोल
आकार का शवेत प्रकाश बहुत ही सघन हो गय है। यूँ
तो यह प्रकाश पहले भी कभी-कभी झलकता था। यदा-कदा सम्पूर्ण साधनावधि में भी यह
प्रकाश बना रहता था, पर आज उसकी सघनता कुछ ज्यादा ही थी।
उसका आश्चर्य और भी ज्यादा तो तब हुआ, जब
उसने देखा कि गोल आकार के शवेत प्रकाश में एक हल्का सा विस्फोट
सा हो गया है और उसमें शवेत कमल की दो पंखुडियाँ खुल रही हैं।
गुरू नाम की धुन के साथ ही ये दोनों शवेत पंखुडियाँ खुल गयी और उसके अन्दर
से प्रकाश की सघन रेखा उभरी। इसी के पश्चात उसे अनायास ही अपने आश्रम में स्वामी
भास्करानन्द ध्यानस्थ बैठे हुए दिखाई दिए। योग विद्या से अनभिज्ञ लक्ष्मण
मल्लाह को यह सब अचरज भरा लगा। दिन में जब वह गुरूदेव का प्रणाम करने गया, तो उसने सुबह की सारी कथा कह सुनायी।
लक्ष्मण की सारी बातें सुनकर स्वामी जी मुस्कराए और बोले-बेटा! इसे आज्ञा चक्र
जागरण कहते हैं। अब से तुम जब भी भौहों के बीच में मन को एकाग्र करके जिस किसी
स्थान, वस्तु या व्यक्ति का संकल्प करोगे, वही तुम्हें दिखने लगेगा।
स्वामी जी के इस कथन के उत्तर में
लक्ष्मण मल्लाह ने कहा-’ हे गुरूदेव, मैं तो सदा-सदा आपको ही देखते रहना
चाहता हूँ। मुझे तो इतना मालूम है कि मैं आपके चरणों की धुलि को अपनी भौहों के
बीच में लगाया करता था। यह जो कुछ भी है, आपकी
चरण धुलि का चमत्कार है। अब तो यह नयी बात जानकर मेरा विश्वास हो गया है कि
गुरूचरणों की धुलि से शिष्य आसानी से भवसागार पार कर सकता है।, लक्ष्मण मल्लाह की यह अनुभूति हम सब
गुरूभक्तों की अनुभूति भी बन सकती है। बस उतना ही सघन प्रेम एवं उत्कट भक्ति
चाहिए। असम्भव को सम्भव करने वाली गुरूवर की चेतना की महिमा अनन्त है।
गरीबदास व संत रामदास काठिया बाबा
यहाँ पर एक सत्य घटना की चर्चा की जा
रही है। यह चर्चा अनेक शिष्यो के मनों को सत्प्रेरणाओं से भरेगी-ऐसा विश्वास है।
यह घटना महान संत रामदास काठिया बाबा के शिष्य गरीबदास के बारे में है। गरीबदास
पढ़े-लिखे तेा नहीं थे, पर उनके हृदय में अपने गुरूदेव के
प्रति अगाध भक्ति थी, लेकिन इस भक्ति के बावजूद बाबा रामदास
उनसे कठोरता व उपेक्षा का बर्ताव करते थे। आगन्तुक शिष्यो को बाबा के इस व्यवहार
पर बड़ा अचरज भी होता। वे सोचते कि सभी के साथ प्रेम भरी कोमल-मीठे बोल बोलने
वाले बाबा आखिर गरीबदास पर ही क्यों बात-बात पर बरसते हैं? पर किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि
उनसे कोई कुछ पूछे। लेकिन बाबा के इस बर्ताव से न तो गरीबदास की श्रद्धा कम हुई
और न ही उसका विश्वास डिगा।
एक बार तो जैसे बाबा रामदास ने कठोरता
की सारी सीमाएँ ही पार कर डाली। हुआ यूँ कि उन दिनों ब्रज परिक्रमा हो रही थी। 84 कोस की उस परिक्रमा में उसे काफी सामान लादकर चलना पड़ता
था। जहाँ यात्रा रूकती, वहाँ उसे थके-हारे होने पर भी 40-50 आदमियों का भोजन बनाना पड़ता। इतना
कठिन श्रम करने के बाद भी उसका नियम था कि वह सभी को खाना खिलाकर स्वयं भोजन
करता था। श्रद्धासिक्त भक्ति और अद्भुत विनयशीलता इसी को उसने अपनी भक्ति
की परिभाषा बना लिया था।
उस दिन गरीबदास ने यात्रा के पड़ाव पर
अपने नियम के अनुसार भोजन बनाया। सभी साधुओं व अभ्यागतों के साथ अपने गुरूदेव
बाबा रामदास का भी आदर सहित बुलाया और प्रेम सहित उसने उन्हें खाना परोसा। पर यह
क्या-आसन पर बैठते ही उन्होंने रोटी हाथ में ली और उसे दूर फेंकते हुए गरज कर कहा-
बेशरम मेरे लिए कच्ची रोटियाँ बनाता है, जबकि
रोटियाँ अच्छी तरह सिकी हुई थीं। इतना कहकर भी वह चुप नहीं रहे और अपनी लाठी उसके
सिर पर दे मारी। लाठी की चोट से गरीबदास के सिर से खून बहने लगा। हारा-थका वह
गुरूभक्त दर्द से बुरी तरह चीखा और बेहोश हो गया। बाबा रामदास का यह व्यवहार वहाँ
उपस्थित जनों में से किसी को अच्छा न लगा। पर इससे बेखबर बाबा मजे से एक ओर चलते
बने।
इधर जब गरीबदास को होश आया, तो उन्होंने बड़ी आतुरता से अपने
गुरूदेव बाबा रामदास को ढूँढ़ा और उनके चरणों पर सिर रखते हुए बोला-हे मेरे
कृपालु गुरूदेव, हे मेरे आराध्य! मुझसे अपराध हो गया, क्षमा करें भगवन्! शिष्य की गहरी
श्रद्धा आज विजयी हुई। परम कठोर बर्ताव करने वाले उसके गुरूदेव आज मातृवत् हो
उठे। उसे उन्होंने अपनी छाती से लगाते हुए कहा-बेटा! सदगुरु की कठोरता में ही उनका
प्रेम है। जो इसे जानता है- वही सच्चा शिष्य है। मेरी कठोरता से तेरे
जन्म-जमान्तर के कर्म समाप्त हो गये हैं। अब तू मेरे आशीवार्द से परमहंसत्व
प्राप्त कर धन्य हो जायेगा। गुरू की कृपा की यह महिमा अनन्त है।
सुरेंद्र नाथ बनर्जी व संत सूर्यानंद गिरी
यह सत्य घटना बंगाल के महान साधक सुरेंद्र
नाथ बनर्जी के बारे में है। बनर्जी महाशय उन दिनों सर्वेयर के पद
पर कायर्रत थे। इस पद पर उनकी आमदनी तो ठीक थी। पर पारिवारिक जीवन समस्याओं से
घिरा था। इन विषमताओं ने उन्हें विचलित कर दिया था। ऐसे में उनकी मुलाकात
महान् संत सूर्यानंद गिरी से हुई। सुरेंद्र नाथ के विकल मन ने संत की शरण में
छाँव पाना चाहा। इसी उद्देशय से वह उन संन्यासी महाराज की कुटिया में गए और
दीक्षा देने की प्राथर्ना की।
इस प्राथर्ना को सुनकर संन्यासी महाराज
नाराज हो गए और उन्हें डपटते हुए बोले- ‘आज
तक तुमने सत्कर्म किया है,
जो मेरा शिष्य बनना चाहते हो। जाओ
पहले सत्कर्म करो।’ उनकी इस झिड़की को सुनकर सुरेंद्रनाथ
विचलित नहीं हुए और बोले-आज्ञा दीजिए महाराज! संन्यासी सूर्यानंदगिरी ने कहा-इस
संसार में पीडित मनुष्यो की संख्या कम नहीं है। उन पीडितों की सेवा करो। जो
आज्ञा प्रभो! सुरेंद्र नाथ ने कहा- मैंने सम्पूर्ण अन्तस् से आपको अपना गुरू माना
है, आपके द्वारा कहा गया प्रत्येक वाक्य
मेरे लिए मूलमंत्र है। आपके द्वारा प्रत्येक अक्षर मेरे लिए परा बीज है।
ऐसा कहकर सुरेंद्रनाथ कलकत्ता- चले आए
अभावग्रस्त, लाचार, दु:खी मनुष्यो की सेवा करने लगे। उन्हें अस्पताल ले जाकर भर्ती करने
लगे। निराश्रितो के सिरहाने बैठकर सेवा करते हुए वे गरीबों के मसीहा बन गए।
धीरे-धीरे पास की सारी रकम समाप्त हो जाने पर वे कुली का काम करने लगे। उससे जो
आमदनी होती, उससे अपाहिजों की सहायता करने लगे।
ऐसी दशा में उनके कई वर्ष गुजर गए। इस बीच संन्यासी सूर्यानंद गिरी से उनकी कोई
मुलाकात नहीं हुई।
एक दिन जब वे कुली का काम करके जूट
मिल से बाहर निकले, तो देखा कि सामने गुरूदेव खड़े हैं।
सुरेंद्र के प्रणाम करते ही उनसे गुरूदेव ने कहा-सुरेंद्र, तुम्हारी परीक्षा समाप्त हो गयी है, अब मेरे साथ चलो। इस आदेश का
शिरोधार्य करके वे चुपचाप गुरू के पीछे-पीछे चल पड़े। गुरूदेव उन्हें बंगाल, आसाम पार कराते हुए बर्मा के जंगलों
में ले गए। यहीं से उनकी साधना का क्रम शुरू हुआ। गुरू-कृपा से वह महान् सिद्ध
संत महानन्द गिरी के नाम से प्रसिद्ध हुए। परवर्ती काल में जब कोई उनसे साधना का
रहस्य जानना चाहता, तो वे एक बात कहते, ‘मंत्र मूलं गुरोवाक्यं’ गुरू वाक्य मूल मंत्र है। इसकी साधना से सब कुछ स्वयं ही हो जाता है।
सचमुच ही गुरूदेव की महिमा अनन्त व अपार है।
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