भगवान सदाशिव साधकों को निर्देश देते
हैं कि अपने परम पूज्य गुरूदेव का आश्रय छोड़कर अन्य कहीं भी न भटको। वेदान्त एवं
तंत्र की किन्ही रहस्यमय उलझनों में मत उलझो। सदगुरु शरण में, सदगुरु
समर्पण में सब कुछ है। इस तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट स्वरों में बताते हुए
देवाधिदेव महादेव आदिमाता पार्वती से कहते हैं-
अभ्यस्तै: सकलै: सुदीर्घमनिलै:
व्याधिप्रदैर्दुष्करै:
प्राणायाम शतैरनेककरणै
र्दु:खात्मकैदुर्जयै:।
यसिमन्न्भ्युदिते विनश्यति
बली वायु: स्वयं तत्क्षणात्
प्राप्तुं तत्सहजं स्वभावमनिशम
सेवध्वमेकं गुरूम्।।
स्वदेशिकस्यैव शरीर चिन्तनं
भवेदनन्तस्य शिवस्य चिन्तनं।
स्वदेशिकस्यैव च नाम कीतर्नं
भवेदनन्तस्य शिवस्य कीतर्नंम ।।
गुरूदेव की आध्यात्मिक चेतना के रहस्य
को प्रकट करने वाले ये मंत्र अपने फलितार्थ में रहस्यमय एवं गूढ़ होते हुए भी
प्रक्रिया में अति सरल हैं। देवाधिदेव महादेव स्कन्दमाता जगदम्बा से कहते है, देवी! दुःख देने वाले, रोग उत्पन्न करने वाले, इन्द्रियो को पीड़ा पहुँचाने वाले, दुर्जय दीर्घश्वास की क्रिया रूपी
सैकड़ों की संख्या में प्राणायाम के अभ्यास का भला क्या सुफल है? अरे! जिनकी चेतना के अन्त:करण में उदय
होने मात्र से बलवान् वायु तत्क्षण स्वयं प्रशमित हो जाती है। ऐसे गुरूदेव की
निरन्तर सेवा करनी चाहिए,
क्योंकि इस गुरूसेवा से सहज ही
आत्मलाभ हो जाता है। अपने गुरूदेव के स्वरूप का थोड़ा सा भी चिन्तन भगवान् शिव
के स्वरूप के अनन्त नाम कीतर्न के बराबर है।
गुरूगीता के इन मंत्रों के अर्थ को
अधिक स्पष्ट रीति से समझने के लिए गुरूभक्ति साधना की एक सत्यकथा साधकों के
समक्ष प्रस्तुत है।
यह कथा आदिगुरू शंकराचार्य एवं उनके
शिष्य तोटकाचार्य से संबन्धित है। आचार्य शंकर उन दिनों बद्रीनाथ धाम में वेदान्त
दर्शन पर प्रसिद्ध भाष्य को लिख रहे थे। वेदान्त यानि कि ब्रहासूत्र पर यह
सुप्रसिद्ध भाष्य है। इसकी एक-एक पंक्ति में वेदान्त साधना एवं ब्रहाज्ञान के
अदभुत रहस्य सँजोये हैं। हिमालय के शुभ्र धवल शिखरों की छाँव में भगवान् नारायण
की पावन तपस्थली में उन दिनो आचार्य की लेखन पयस्विनी प्रवाहित हो रही थी।
आचार्य का प्राय: सम्पूर्ण दिन अपने एकान्त चिन्तन एवं लेखन में बीतता था। दिन
के अन्तिम प्रहर में सन्ध्या से पूर्व आचार्य अपने भाष्य के लिखित अंशो को
शिष्यो को पढ़ाते थे।
आदिगुरू भगवान् शंकराचार्य के शिष्यो
में पद्मपाद, सुरेशवर आदि परम विद्वान शिष्य थे।
विद्वान शिष्यो की इस मण्डली में एक मूढ़मती मंदबुधि, बेपढ़ा-लिखा एक बालक भी था। यह बालक
बिना पढ़ा-लिखा भले ही था, उसकी
बुद्धि भले ही तीव्र न थी,
परन्तु उसका हृदय आचार्य के प्रति
भक्ति से भरा था। आचार्य उसके लिए सर्वस्व थे। आचार्य की सेवा ही उसका जीवन था।
इसके अलावा उसे और कुछ भी न आता था। उसकी मूढ़ता और मंदबुद्धि पर कभी-कभी आचार्य
के अन्य शिष्य उपहास भी कर लेते थे। पर इससे उसे कोई फर्क न पड़ता था। वह तो बस
गुरूगत प्राण था। गुरूसेवा के अलावा उसे और कोई चाह न थी। फिर भी आचार्य न जाने
क्यों उसे अपनी सायं कक्षा में बुलाना न भूलते थे।
एक दिन आचार्य की नियमित कक्षा का
समय हो गया था। पद्मपादाचार्य, सुरेशवराचार्य, हस्तामलकाचार्य आदि सभी भगवान्
शंकराचार्य के श्रीचरणों के समीप आ जुटे थे, किन्तु
आचार्य का वह सेवक शिष्य दिखाई नहीं दे
रहा था। आचार्य को उसी की प्रतीक्षा थी। वह रह-रहकर इधर-उधर देख लेते। कक्षा में
विलम्ब हो रहा था। उपस्थित शिष्यो में से प्रत्येक को प्रतीक्षा असहाय हो रही
थी। सभी को भारी उत्सुकता थी कि उनके गुरूदेव ने आज क्या लिखा है। यह उत्सुकता
अपने चरम बिंदु पर जा पहुँची, पर
कोई कुछ कह नहीं पा रहा था। अंत में
पद्मपाद ने साहस किया, पाठ
प्रारम्भ करने की कृपा करें भगवन्। मुझे अपने एक शिष्य की प्रतिक्षा है। आचार्य
ने उत्तर दिया। पर वह तो निरा विमूढ़ है भगवन्! उसका आना न आना दोनों ही एक जैसे
हैं। पद्मपाद के स्वरों में विनम्रता होते हुए भी एक खीझ थी।
आचार्य भगवत्पादशंकर से यह बात छुपी न
रही। उन्होंने यह जान लिया कि उनके इन विद्वान शिष्यो को अपनी विद्वता का कुछ
अभिमान हो आया है। शिष्यो का गर्वहरण करने वाले आचार्य शंकर मुस्कराए और एक क्षण
के लिए ध्यानस्थ हो गए। उनका वह शिष्य, जिसकी
उन्हें प्रतीक्षा थी, उन्हीं के वस्त्र धोने के लिए गया था।
यह उसका नित्य का कार्य था, किंतु
आज अचानक उसके अंत:करण में समस्त विद्याएँ एक साथ प्रकाशित हो गयी। वह गुरूकृपा
की इस अनुभूति पर कृतकृत्य हो गया। अपने कांधे पर गुरूदेव के धुले वस्त्रों को
लिए हाथ जोड़े तोटक छंदों में आचार्य की स्तुति करते हुए वह चला आ रहा था।
विदिताखिलशास्त्र सुधा जलधे, महितोपनिषत्कथितार्थनिधे।
हृदये कमले विमलं चरणं, भवशंकरदेशिक
मम शरणम्।।
करूणावरूणालय पालयमाम्, भवसागरदु:खविदून
हृदम्।
रचयाखिल दर्शन तत्त्वविदं, भव
शंकरदेशिकमम शरणं।।
तोटक छंद में स्व स्फुरित इस गुरू
वंदना को सुनकर वहाँ उपस्थित सभी अवाक् रह गए। उन्हें भारी अचरज तो तब हुआ, जब उसे आचार्य ने आदेश दिया-वत्स! आज
मेरे स्थान पर तुम इन्हें ब्रहासूत्र पर मेरे मन्तव्य को समझाओ। इतना ही नहीं, तुम इनके सम्मुख उन सूत्रों की
व्याख्या भी करो, जिन पर अभी मैंने भाष्य नहीं लिखा
है। तोटकाचार्य-जो आज्ञा गुरूदेव! कहकर आचार्य की आज्ञा का पालन कर दिखाया।
तोटकाचार्य की अनायास उदित हुई प्रखर प्रतिभा को देखकर सभी को इस सत्य की
अनुभूति हो गयी कि तोटकाचार्य पर गुरू कृपा बरस गयी है। त्राहिमाम गुरूदेव! कहते हुए सभी शिष्य आचार्य के चरणों में गिर पड़े। आचार्य ने उन्हें
निराभिमानी बनने की सलाह दी। सभी अनुभव कर रहे थे कि गुरू-कृपा से सब कुछ सम्भव
है।
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