Saturday, March 2, 2013

चेतना के विविध आयामों की खोज - In Search of Various Dimensions of Human Consciousness


जीवन का लक्ष्य - भारतीय ऋषियों की अनमोल देन
जीव जगत बड़ा विचित्र है। एक ओर पशु योनि है जो आहार, निद्रा, भय और मैथुन तक सीमित है। जानवर बेचारा भोजन खोजता है, सोता है, डरता है और बच्चे पैदा करता है उसकी सामर्थ्य यहीं तक है उसका जीवन इन चार क्रियाकलापों में ही उलझा हुआ है। दूसरी ओर मानव योनि है जिसको सृष्टि का अनुपम उपहार कहा जाता है।
प्रश्न उठता है क्या वह भी यहीं तक सीमित है? नहीं मानव को परमात्मा ने एक ओर  सामर्थ्य दी है वह है उसकी सोचने, समझने, जानने की क्षमता। मानव प्रकृति के रहस्यों को खोजता है, अपनी सुविधाओं के साधन निर्मित करता है वह प्रकृति पर नियन्त्रण करने का भी प्रयास करता है। ज्ञान विज्ञान का यह दिव्य अनुदान केवल मानव के ही पास है।
मनुष्यों में जो साधन सम्पन्न हैं एवं विवेकवान है उनके भीतर एक प्रश्न बार-बार उठता है - इस जीवन का लक्ष्य क्या है? व्यक्ति क्यों जन्म लेता है? क्या मृत्यु ही जीवन का अन्त है या इससे परे भी कुछ है? क्या मानव भी पशु की तरह स्वादिस्ट भोजन, अच्छी नींद, शत्रुओ से रक्षा व वासनाओं की पूर्ति से अपना जीवन होम दें?
यह बड़े सौभाग्य की बात है कि भारत की धरती पर इस दिशा में सर्वाधिक खोज हुर्इ है। भारत का प्राचीन आर्ष साहित्य इन्ही ज्वलन्त प्रश्ननो व उसके समाधानों से भरा पड़ा है। तत्व ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान, आत्म ज्ञान, मोक्ष प्राप्ति, निर्वाण आदि शब्द मानव की उसी जिज्ञासा का उत्तर देने हेतु प्रयुक्त हुए हैं। English में इनको Enlightenment,  Super Consciousness, Occult Sciences, Meta Physics, Sc. of Soul आदि शब्दों के द्वारा वर्णित किया जा सकता है।
भारत में इसको अध्यात्म विद्या के नाम से जाना जाता है और जो विद्वान इस विद्या में पारंगत (माहिर) थे उनको ऋषि की उपाधि दी जाती थी। ऋषियों ने अपना पूर्ण जीवन इसी खोजबीन में खपा डाला। जहाँ पश्चिम eat, drink and be marry के सिद्धान्त पर चलता है वहाँ भारत के ऋषियों ने यह जान लिया था कि व्यक्ति यदि एक सीमा में अधिक भोग विलास - आमोद प्रमोद में उलझा तो यह अन्तत: समाज के लिए दु:खदायी हो जाएगा। हाँ मर्यादा पूर्ण भोग अथवा त्याग के साथ भोग उचित है।
ऋषियों ने मानव के सामने दूसरा महान लक्ष्य रखा जिससे उसकी चेतना सांसारिक भोगों व अहंकारों में उलझकर अपना व सम्पूर्ण संसार का विनाश न कर दें। यह लक्ष्य है - आत्मज्ञान। इस विषय में ऋषियों का कथन है कि यह तभी मापा जा सकता है जब मानव अपनी चेतना को एक नये आयाम (new dimension) की ओर ले जाए। मानवी चेतना मन, बुद्धि, अहंकार में फंसी हुर्इ है। ऋषि कहता है कि मानवी चेतना का एक ओर आयाम भी है जो उसे प्रकृति के बन्धनों से मुक्त कर सकता है, जीवन मरण के रहस्यों को सुलझा सकता है। परन्तु इस आयाम में चेतना को तभी ले जाया जा सकता है जब वह मन, बुद्धि, अहंकार के चंगुल से छूटे। यह सब चेतना की जागृति, चेतना के विस्तार का ही खेल है। जैसे वनस्पति जगत में चेतना की सामथ्र्य अल्प है, यदि पेड़ पौधों को धून न मिले, जल, खाद न मिले तो समाप्त हो जाते हैं इधर उधर घूमकर अपने राशन पानी का जुगाड़ नहीं कर पाते। कोर्इ कुल्हाड़ी मारे तो उसका प्रतिरोध नहीं कर सकते उससे बचाव नहीं कर सकते। पशु जगत में चेतना उससे अधिक सामर्थ्य रखती है। इधर उधर घूमकर अपना भोजन पानी व शत्रुओ से बचाव करते हैं। मनुष्य लोक में चेतना बहुत सामर्थ्यवान है - बड़े-बड़े भवन, वाहन, मोबाइल मानव ने क्या क्या नहीं खोजा? ऋषि कहते हैं कि इससे अग्रिम एक लोक ओर है जिसको देव लोक, ब्रह्मलोक कहा जाता है वहाँ चेतना इससे भी अधिक ज्ञानवान, सामर्थ्यवान हो जाती है।
हमारे शास्त्र कहते हैं कि सम्पूर्ण जगत पंचकोषो से विनिर्मित है अनमय कोष, प्राणमय कोष, मतोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष। वनस्पति जगत में चेतना अधिकतर अनमय कोष तक सीमित है। अत: पेड़े पौधे आकार में विशाल होते हैं। पशु जगत में चेतना प्राणमय कोष में अधिक बसती है। इसलिए पशु अधिक क्रियाशील (दौड़-भाग - उलझ कूद) रहता है।
मानव योनि में मनोमय कोष की प्रधानता है इसलिए मनुष्य सोच समझ, तर्क वितर्क, खोज बीन में लगा रहता है।
इससे ऊपर के कोष विज्ञानमय कोष में जिसकी चेतना प्रवेश करती है उनको योगी, सिद्ध पुरुष कहा जाता है वो मानवों में अधिक शक्तिशाली होते हैं अतीन्द्रिय सामर्थ्य उनके पास होती है।
आनन्दमय कोष में जाने पर जीव प्रकृति के बन्धनों से पूर्ण मुक्त होकर पूर्ण आनन्द को प्राप्त होता है वह आहार, निद्रा, भय, मैथुन के झंझट से मुक्त हो जाता है इसलिए इस अवस्था को जीवन मुक्ति कहा जाता है।
जीव मैथुन क्यों करता है? आमोद-प्रमोद के लिए। यदि व्यक्ति पहले ही आनन्दित है तृप्त है तो ऐसा कार्य क्यों करेगा? जिसको भूख नहीं है वह भोजन क्यों करेगा?
इसी प्रकार एक ऐसी अवस्था मनुष्य प्राप्त कर सकता है जिसको परा शान्ति, परम आनन्द, सम्पूर्ण दु:खों से निवृति कहा जा सकता है। यही ऋषियों ने मानव जीवन का लक्ष्य बताया है। यही भारत भूमि की महान खोज, महान उपहार है सम्पूर्ण विश्व के लिए।

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