साधना मार्ग का चयन एवं कठिनाईयां
संसार में जन्में प्रत्येक मनुष्य को ऐसे सुख की चाह आकृष्ट किए हुए है जो न कभी कम हो और न ही उस सुख का अन्त हो अर्थात् सनातन सुख, शक्ति और सौन्दर्य की चाह। एक शब्द में इसे स्वर्ग भी कहा जा सकता है। इस अनहद अनन्त सुख की प्राप्ति के नाम पर मनुष्य विकास की लम्बी सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है, भाँति-2 के पंथो एवं मत मतान्तरो की खोज करता है। जो प्रयास मनीषियों ने इस दिशा में किया है उनको मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। अथवा यह कहिए कि पथिक को दो अलग-2 रास्ते नजर आते है। कौन सा रास्ता उसको मंजिल तक पहँुचाएगा यह चयन उसको अपनी विवेक बुद्धि, ज्ञान और अनुभव के आधार पर करना होता है। ये दो मार्ग है- योग का व भोग का अर्थात् तपन का व पतन था; शास्त्र इसी को श्रेय व प्रेय का मार्ग कहते है। आज चारो ओर भोगवादी संस्कृति की होड मची है। लोग इसी को सुखी जीवन का आधार मान रहे है। यह भी कहा जा सकता है कि पश्चिम से आयी इस आँधी में व्यक्ति उड़ने के लिए विवश है।
भारतीय संस्कृति के गोखमय समय में लोग तप का, योग का श्रेय के मार्ग का चयन करते थे। भारत के लोग इतने समृद्ध, खुशहाल व उच्च प्रतिभा के धनी थे कि सम्पूर्ण विश्व के विद्याथ्र्ाी यहाँ आकर अपने को धन्य मानते थे। परन्तु उस समय लोग भोगो की नश्वरता व आत्मा की अमरता के सिद्धात पर बड़े अडिग रहते थे। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए अनेको कष्ट उठाने में नही हिचकिचाते थे। एक कठोनिपबद में बड़ी मार्मिक प्रश्न आता है। यमाचार्य एक आध्यात्म विद्या के परमज्ञाता दें। नचिकेता एक बालक उनके आश्रम में जाकर उनसे वह विद्या ग्रहण करना चाहता है। तीन दिन तक तो आश्रम में प्रवेश करने व आचार्य से मिलने की अनुमति नहीं मिलती। नचिकेता प्रवेश द्वार पर मुख्य प्यासा प्रतिक्षा कर रहा होता है। अब आचार्य उस बालक पर डनित होकर उसके आने का प्रयोजन पूछते है। बालक कहता है कि उसके आत्मज्ञान चाहिए। आचार्य कहते है कि वह मार्ग दुरूह है उस पर चतना काँटो पर चलने के समान है ऐसा करते है वो उसको लौकिक विद्याएँ सीखा देते है जिसमें उसके घर धन धान्य से परिपूर्ण रहें व वह एक सुखी गृहस्थ जीवन जिए। इसके लिए बालक स्पष्ट इन्कार कर देता है कि सभी भोग नश्वर है व उनसे कुछ हासिल नहीं होता मात्र जीवन में असन्तोष व अशान्ति बनी रहती है। जब तक इन्द्रियों व शरीर में दम रहता है व्यक्ति भोग विलास में डूबा रहता है। तत्पश्चात् रोगों व कुछ ओर भोग भीगने की तड़प से बैचेन रहता है। अत: वह इस मार्ग की ओर कदम नहीं बढ़ा सकता जहाँ मानव जीवन जोश अनमोल खाली चला जाए।
यमाचार्य
बालक की प्रतिभा व विवेक दृष्टि पर गर्व महसूस करते है व उसके पहली शिक्षा में पास होने के लिए बधार्इ देते है। अब नचिकेता पंचाग्नि विद्या की साधना द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त कर जीवन के धन्य बनाता है। सभी संस्कृतियों में दोनों मार्गो के समर्थक मिलते है। भारतीय संस्कृति में भी चर्वाक जैसे मनीषी है जो कहते है ‘यावम जिवेत सुखम् जिवेत, ऋण कृत्वा धृतं पिवेल’ परन्तु भारतीय संस्कृति के इतिहास योग व तप के मार्ग पर चलने वालो से भरा पड़ा है। इसी प्रकार यदि पश्चिम का बात करें तो वहाँ भी आत्मज्ञान के मार्ग पर चलने वाले काफी मिल जाएँगे जैसे- कार्ल जुगं, मेक्समुलर, सुकरात आदि।
साधना के मार्ग का चयन करना तो काफी लोग चाहते है परन्तु मार्ग की कठिनाइयों के कारण बीच में छोड़ जाते हैं। नचिकेता व बुद्ध जैसा दृढ़ कोर्इ-कोर्इ ही मिल पाता है जो बिना डगमगँए मंजिल पर पहँुच जाए। प्रारब्ध, परिस्थितियाँ व प्रयास इस दिशा में बड़ी भूमिका निभाते है कुछ व्यक्ति जटिल प्रारब्धो के कारण साधना पथ पर सफल नहीं हो पाते। कुछ अपनी परिस्थितियों में फँसे रहते है जैसे साधना के लिए उपयुक्त वातावरण न मिल पाना आदि। कुछ प्रयास ठीक ढंग से नहीं करते। उनको मार्गदर्शन ठीक नहीं मिल पाता। किसी ढोंगी गुरु आदि के चक्कर में फँस जाते है क्या कठिनार्इ एक साधक के जीवन में आती है एक प्रंसग के द्वारा समझाने का प्रयास किया जा रहा है।
बच्चों को गणित पढ़ार्इ जाती है। एक प्रश्न आता है-मैदान में पचास फुट ऊँचा एक घर है। उसकी छत पपर मिठार्इ का एक डिब्बा रखा है उसे प्राप्त करने के लिए एक बंदर उस पर चढ़ता है। पहली छलांग में बंदर दो फुट चढ़ जाता है। लेकिन दीवालें बहुत चिकनी हैं इसलिए वह डेढ़ फुट नीचे खिसक आता है इतने में उसे पन्द्रह मिनट लग जाते हैं। दूसरी छलांग में वह दो फिट दो इंच चढ़ जाता है किन्तु उसी तरह वह एक इंच अधिक अर्थात् एक फिट सात इंच नीचे खिसक आता है। इस बार भी उसे पन्द्रह मिनट लगे। इसी तरह हर बार वह पहले से 2 इंच अधिक ऊपर चढ़ जाता है और खिसकने में एक इंच अधिक लग जाते है। बताओ उसे ऊपर तक पहँुचकर मिठार्इ का डिब्बा प्राप्त करने में कितना समय लगेगा? मनुष्य भी उस बंदर की तरह है जो दो फुट ऊपर छलाँग लगाता है पर मन और इन्द्रियों की चिकनी तृष्णा उसे फिर डेढ फुट नीचे धकेल देती है।
साधको के जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि वो सामान्य लोगों की नकल करके अपने लिए मुसीबते बढ़ाते है। धरती पर पशु, पक्षी, कीट, वृक्ष अनेक प्रकार के वर्ग है इसी प्रकार मानव व देव मानव दो अलग-2 वर्ग हैं। साधक देव मानव की श्रेणी में आते हैं उन्हें सामान्य मानवो की तरह नहीं सोचना चाहिए, न वैश्य protocal अपनाना चाहिए। उदाहरण के लिए कुत्त्ो, बिल्ली भक्ष्य अमक्ष्य सभी खा जाते है व स्वस्थ्य रहते हैं वो नंगे स्वतन्त्र घूमते है परन्तु फिर भी वासना के आवेश से बचे रहते हैं। यदि मानव उनकी नकल करें व वैसा ही बनने की सोंचे तो उनको रोज बीमरियाँ लगी रहेंगी व वो जीवित नहीं रह पाएँगे। ऐसे ही यदि देव मानव जन साधारण की नकल करके वैसी जीवनचर्या अपनाना चाहें तो उनका जीवन कठिनार्इ में पड़ जाएगा। यही कारण है कि साधना करने वाले व्यक्ति अनेक बार दुखों समस्याओं से उबर नहीं पाते।
इसके पीछे स्पष्ट वैज्ञानिक कारण है जैसे-2 चेतना का विकास होता है व्यक्ति को खान पीन रहन सहन में अधिक पवित्रता की आवश्यकता होती है। साधक की चेतना अधिक संवेदनशील होती है जिस कारण उस पर अच्छा बुरा सभी तरह का प्रभाव अधिक पड़ता है। साधक मन्त्र जप अथवा योग साधना द्वारा अपनी चेतना को अधिक संवेदनशील बना लेता है परन्तु खान पीन रहन सहन व दैनिक जीवन में अपने आस पास के वातावरण व लोगों की नकल करता है। यह इसके लिए दु:खदायी हो जाता है। कुछ उदाहरण यहाँ देना चाहेंगे। पूज्य गुरुदेव श्री राम आचार्य जी ने एक साधक को कहा कि तुम अपना भोजन स्वयं बना कर खाना। वह भोजन यदि किसी ओर के हाथ का करते है तो तरन्तु रोगी हो जाते है।
बच्चा भी विभिन्न ऊर्जाओं के लिए संवेदनशील होता है। मेरे बचपन की बात है हमारे घर के आगे पीपल का एक पेड़ था। एक बार हमारे घर मिठार्इ आर्इ, उसको खाकर मेरा चार वर्ष का छोटा भार्इ रोने लगा व चुप कराने पर भी थोड़ा चुप होता फिर रोने लगता। रात्रि दस बजे उसको लेकर एक परिचित पिण्ड़त जी के पास गए उन्होंने झाड़ा व कहा मीठा घर में आए तो एक पीस पहले पीपल पर चढ़ा दिया करो। बच्चा शान्त हो गया व हम उस नियम का पालन करने लगें। हमारी जानकारी में एक बच्चा है जो देखने में बहुत सुन्दर दिव्य व स्वस्थ था तथा अपनी दादी के साथ घूमता था। दादी जगह-2 मन्दिरों व तीर्थो में पोते के साथ घूमती थी। बच्चे के माता पिता बड़े पद पर आसीन है व धर्म साधना की गुत्थियों श्रद्धा नहीं रखते थे। अचानक वो बच्चा बीमार रहने लगा। उसका इलाज चलता रहता था। हम प्रतिवर्ष अखण्ड जप करने उनके घर जाते थे। जब हमज प करने उनके घर गए तो हमने विशेष रूप से बच्चे के लिए प्रार्थना की। हमारी ढोली के एक साधक को बच्चे के रोग के कारण का आभास हुआ। उनके माता पिता को बताया गया कि ऐसा-2 एक देव मन्दिर है वहाँ यह बच्चा गया व वहाँ एक तन्त्रिक बैठा था उसने प्राणवान बच्चा देखकर उसके चक्रो से ऊर्जा चूस ली। दादी तुरन्त चिल्लायी हाँ हम वहाँ गए थे व जब उस मन्दिर में घुसे तो यह बच्चा अचानक सहम गया ओर जिद करने लगा, ‘‘दादी वापिस चलो, अन्दर नहीं जाना है।’’ इस पर दादी के बहुत आश्चर्य हुआ कि यह बच्चा बड़ा प्रसन्न होकर मन्दिरों में जाता है परन्तु न जाने क्यों यहाँ परेशान हो रहा है। दादी ने बच्चे से तबियत आदि के बारे में पूछा परन्तु बच्चा एक ही बात की रट लगा रहा था कि अन्दर नहीं जाना है, घर वापिस जाना है। दादी ने छोटे बच्चे को गोदी चढ़ाया व जबरदस्ती मन्दिर ले गयी। इस कारण यह समस्या उत्पन्न हुयी। देव शक्तियों ने उसके लिए कुछ समाधान भी सुझाए परन्तु माता पिता जो चिकित्सकों पर अधिक विश्वास करते थे उन्होंने तपाक से उत्तर दिया अभी दिल्ली के सबसे बड़े डाक्टर को दिखाया है लाभ हो रहा है व चिन्ता की बात नहीं बच्चा ठीक हो जाएगा। यह मात्र वर्ष भर पुरानी घटना है। सभी प्रकार के दिल्ली के उच्च चिकित्सक उसका इलाज कर रहे है। परन्तु रोग का निदान नहीं हो पा रहा है।
कहने का अर्थ है कि जो आत्माएँ संवेदनशील है देव वर्ग की है उनके चक्र जागृत व खुले होते है उनके चक्रो से ऊर्जा चूसना आसान होता है। सामान्य बच्चा प्राणवान होते हुए भी चक्र जागृत न होने से चक्रो से ऊर्जा का आवागमन कम होता है इस कारण ऊर्जा को चूसना बहुत कठिन हो जाता है। एक और उदाहरण यहाँ देना उचित रहेगा। एक बार हम शाँतिकुँज आश्राम में एक बहुत पुराने व अनुभवी कार्यकर्ता से कुछ चर्चा कर रहे थे। मैंने जिज्ञासवश उनसे प्रश्न किया कि हम 1991 से देवस्थापना कार्यक्रम घर-2 में कर रहे है क्या देवात्माएँ आयी नहीं अथवा आयी तो अपने स्वरूप में नहीं उभर पायी। क्या कारण रहा? उन्होंने तपाक से उत्तर दिया कि देवआत्माएँ आयी ओर आकर चली गयी अर्थात् अपनी आयु पूरी न कर बीच में परलोक सिधार गयी। यह उत्तर सुनकर में दु:ख ओर अचम्भे के मारे कुछ आगे कह सुन न सका। बाद में मैंने इस पर काफी मन्थन किया तो कुछ तथ्य उभर कर सामने आए जो बहुत ही कष्टदायी है। देवआत्माएँ ने मान लीजिए गायत्री परिवार के हम जैसे कार्यकर्त्ताओं के घर जन्म लिया।
हम लोग अक्सर एक प्रकार की खींचातानी व ligpulling का आवरण (aura) अपने चारो ओर चाहे अनचाहे उत्पन्न कर लेते है। हमारे भीतर इस प्रकार के मानो का उदय हो जाता है कि दूसरा उससे अच्छा प्रवचन न कर पाए, दूसरा मुझसे अच्छी कथा न कहे, मुझसे अच्छा साधक न बने, दूसरा मेरी गदृी तक न पहँुच पाए इससे एक प्रकार की negative energy हमारे चारों बढवे लगती है। हम तो बड़े है उसे सहते रहते है परन्तु हमारी मासूस सन्तान जो उच्च संवेदनशील आत्मा है उसके घेरे में आ जाती है। इस गलत ऊर्जा के प्रभाव से बच्चे की जीवन संकट में पड़ जाता है यदि वह जीवित रहता है तो भी अपनी प्रतिभा से हाथ धो बैठता है। सामान्य जनो के साथ ऐसा नहीं होता विभिन्न विभागों में लोग एक दूसरे की खींचातानी करते है परन्तु उनकी सन्तानें देव आत्माएँ नहीं होती इस कारण negative energy का उन पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता।
यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि देव आत्मा अधिक संवेदनशील होती है व उस पर negative व positive दोनों ही ऊर्जाओं का बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि देवआत्माओं को थोड़ा सभी दिव्य वातावरण मिलें तो के शक्तिका भण्डार अपने भीतर भरने लगते है व उनकी growoth (वृद्धि) बहुत तेजी से होती है।
साधक को जो सहन लगे, जो उसकी आत्मा कहे उसी अनुसार चले। जब में युवा था तो संगति के दोस्तो को अश्लील बाते करने की आदत थी। मैं वहाँ से कट लिया करता था। मेरे साथी इसका कारण पूछते तो में कहता इन बातों से मुझे भटकने व पतन का भय रहता है। इस पर वो कहते आप तो योगी है फिर भी आप पर इनका प्रभाव पड़ता है। इस पर में हँस कर कहता कि योगी तो आप लोग है जो smoking करते है, नशा करते है, सब प्रकार की बाते करते है फिर भी मस्ती भरा जीवन जी रहे हो। सामान्य युवा अश्लील फिल्में देखते है सब कुछ करते है वो फिर भी अपना कैरियर अच्दा बना ले जाते है। परन्तु साधना करने वाले युवा पर वासना का नशा अधिक हावी होने का भय रहता है क्योंकि उसकी चेतना अधिक संवेदनशील होती है। यह ठीक इस प्रकार है जैसे राम बोला का विवाह हुआ तो वह अपनी पत्नी के मोह में इतने फँसे कि एक रात भी उसके बिना नहीं रह पाए। वह मायके गयी तो रात्रि में ही उसके मायके पहँुच गए। उसकी पत्नी ने झिड़का कि मेरे हाड माँस के इस देह से इतना प्यार करते हो अरे इतना प्यार यदि प्रभु श्री राम से करते तो हम सबका उद्धार हो गया होता। बात चुभ गयी उल्टे पाँव वापिस लोटे तो काम के स्थान पर राम हावी होने लगा। वही राम बोला महान सन्त गोस्वामी तुलसीदास के नाम से सदा के लिए अमर हो गए। इसी प्रकार विवहित दम्पत्ति यदि साधक स्तर के है तो यदि उन्हें अलग-2 बैड़ पर सोना अनुकूल लगे तो वैसा ही करें। सामान्य दाम्पत्तियों की नकल न करे अन्यथा नुकसान हो सकता है। कर्इ बार पति पत्नी में से एक साधक स्तर का होता है व दूसरा भोगवादी प्रवृति का। ऐसे संयोग में साधक की साधना उभर नही पाती या फिर वह कठोर अनुशासन का पालन करें। जैसे अलग कमरे में सोए। अन्यथा दूसरे की भोग लालसा साधक के ऊपर हावी होने का भय रहता है।
चारों ओर भोग विलास का वातावरण होने से साधक के काफी सावधानी रखनी पड़ती है। यहाँ में अपना एक अनुभव बाटँना चाहँूगा। हमारे NIT का वातावरण बहुत दूशित है परन्तु मेरा कमरा जहाँ में अकेला बैठता हँू बड़ा ही दिव्य रहता है उस कमरे में मुझे सदा ऐसा लगता है कि देव शक्तियाँ रहती है। पुस्तको का लेखन, टाइप, भाषा शोधन इसी कमरे में होता है। कमरे में मुझे बड़ी शाँति व प्रसन्नता महसूस देती है क्योंकि मेरी मन यहाँ अक्सर उच्च भूमि में रहता है। लड़के व लड़कियाँ (विद्याथ्र्ाी) कमरे में आते रहते है क्योंकि मेरे सरल व नम्र स्वभाव से उनको लाभ मिलता है। कुछ गिने चुने विद्याथ्र्ाी ऐसे है वो जब भी कमरे में आते है मेरी ऊर्जा निम्नगामी हो जाती है व में उनकी बहुत कम बात करके उनको कमरे से जाने के लिए बोलता हँू। कुछ girls student अधिक बात करना व सम्पर्क बढ़ाने की इच्छुक रहती है परन्तु उन्हे भी टालना पड़ता है। कंडयो में वासनात्मक भाव अधिक होने से उन्हें सहन करना कठिन हो जाता है। सार यह है कि आप अपना दैनिक जीवन तो जीते है लेकिन यह साधना रूपी बच्चा जो गोदी में पल रहा है इसका हर घड़ी ध्यान रखना हमारी जिम्मेदारी हो जाती है। यह बच्चा भी इतना प्यारा है कि इसको छोड़ते भी नहीं बनता तो जीवन नीरस हो जाता है जो एक बार साधना की उच्च अवस्था में पहँुचा वह वही रहना चाहता है नीचे नहीं आना चाहता।
नरेन्द्र के स्वामी रामकृष्ण परमहंस यह अद्वितीय रस चरवा देते है। नरेन्द्र कर्इ दिन तक ध्यान में भाव समधि का आनन्द ले रहे थे। अब रामकृष्ण से प्रार्थना करते है मुझे इसी अवस्था में बने रहने दीजिए। ठाकुर कहते है चाबी उनके पास है पहले माँ का काम करो। हम गायत्री परिजनों में से बहुतो के गुरु सत्ता ने अपने शक्तिपात द्वारा यह मजा चरवाया है व हमारी आत्मा सदा इसी स्थिति में रमण करने के लिए प्रयासरत रहती है। देव सत्ताएँ जब शक्तिपात धरती है तो व्यक्ति कुछ दिनों के लिए परम आनन्द व ध्यान की स्थिति में बच रहता है। परन्तु कुछ दिन बाद उसके कु:संस्कार अथवा मोह, भय आदि उसको उस स्थिति से नीचे ला पटकते है। अब व्यक्ति पुन: उस स्थिति के पाने के लिए अपने उन कु:सस्कारों से संघर्ष करता है। वह आनन्द उसे अन्यव कही नहीं मिलता। जो मजा तुरीयावस्था में है वह किसी कुर्सी अथवा धन अथवा संसारिक भोग में कहाँ? यह तो वही जानता है जिसने चरवा है। मीरा बार्इ जी कहती हें-’घायल की गति घायल जाने’ एक जगह कहती हे-’सूली ऊपर सेज हमारी किस विधि मिलना होय’। नि:सदेह यह मंजिल तो सूली पर चलने के पश्चात् ही प्राप्त होती है। इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षुरस्य धारा’ अर्थात् घुटे की धार पर चलने के समान है। परन्तु जीवन लक्ष्य को पाने के लिए आनन्द अमृत्व का पान करने के लिए हमें काँटों का पथ स्वीकार है।
एक साधक एक सच्चे योद्धा के समान वीर होना चाहिए जो पथ की बाधाओं का निडरता पूर्वक सामना करके आगे बढ़ता चला जाय। एक कायर कैसे मोक्ष रूपी श्रेष्ठ उपहार पा सकता है। परन्तु जो जैसा भी है जहाँ भी हे वहाँ से आगे बढ़े परमात्मा की अँगुली पकड़कर आगे बढ़े वो हमारी कमियों को दूर करते चले जाएँगे। हमे इतना आत्मबल मनोबल प्रदान करेंगे। कि हम साधना के श्रेष्ठ ओम दिव्य पथ का चयन करने में सक्षम हो सके। समाज की भेडा चाल में उलझकर अपने जीवन के बरबाद न करें। यही प्रार्थना कि प्रभु का दिव्य प्रकाश, दिव्य ज्ञान व आनन्द हम अपने अन्त:करण में धारण करते हुए लक्ष्य की मंजिल पर इसी जीवन में पहँुच सकें।
जय गुरुदेव जय श्री राम