Sunday, September 22, 2013

साधना समर - चुनौतियाँ और समाधान-VII

एक और विचार भारत की जनता के लिए बड़ा दुखदायी होता है। लोग भावना में आकर शीद्य्र ही इस आशा से दीक्षा ले लेते हैं कि गुरु उनके कष्ट दूर कर देगा। परन्तु कुछ वर्षो बाद उनको पता लगता है कि ऐसा तो कुछ नहीं हुआ परन्तु जिनको वो गुरु माने थे उनकी कुछ कमियों के वो हजम नहीं कर पा रहे है। कुछ कहें तो शास्त्र का भय न कहें तो आत्मा नहीं मान रही। भारत में व्यक्ति का जीवन इन्ही उधडेबुनों में अधिक खराब हो जाता हैं व्यक्ति मुफ्त में पाने के चक्कर मेंमुफ्त में पाप अथवा प्रारब्ध कटाने के चक्कर में कही तात्रिकोंकही ज्योतिषियोंकही पाखण्डियों ओर कही पण्डितों के भंवर में फंस कर तडफता रह जाता है।
प्रारब्धों को काटने के लिएपापों के शमन के लिए हमें त्याग और तप के मार्ग पर ही चलना पडे़गा। दुनिया का कोई गुरु किसी के पाप प्रारब्ध नहीं काट सकता हाँ इसके भुगतान में व्यक्ति की सहायता अवश्य कर सकता है। राजा दशरथ के श्रवण कु. के माता पिता ने श्राप दिया। जिसके चार-2 बेटे भगवान के अंश हो वह तडफ-तडफ कर मरा। क्यों नहीं उन्होंने उसके श्राप को रोक दिया।
पाण्डव अपनी ध्र्रुतक्रीड़ा की मूर्खता से अपना सब कुछ गँवा बैठे। कृष्ण स्वयं भगवान होकर भी उसको नही रोक सके। भगवान कहता है मैने मनुष्य को विवेक बुद्धि दी है क्यों नही उसका सदुपयोग करके जीवन के श्रेष्ठ बनाता।
एक बात में और स्पष्ट करना चाहूँगा कोई भी असली गुरु किसी गलत व्यक्ति की मदद कभी नही करता। गलत व्यक्ति को गलत गुरु ही टकरेगा। और यदि कोई व्यक्ति सही है अपनी आध्यात्मिक उन्नति का वास्तव में इच्छुक है तो असली गुरु उसकी सहायता अवश्य करेगा भले ही वह उसका शिष्य न हो। परमब्रह्म तक पहँुचे ऋषि इन छोटी बातों में भेद नहीं करते कि यह मेरा है यह तेरा है। इस तरह के भेदभाव तो छोटी मानसिकता के लेाग व गुरु ही कराते फिरते है। औलाद अगर लायक है तो अपने आप माँ बापचाचा ताऊमामा आदि अब उसके प्यार करेंगे उसके लिए व्यवस्था काटेगें। परन्तु नालायक से सभी दूर रहना पसन्द करते है।
     एक और बात धर्म का स्वरूप बिगाड़ देती है। व्यक्ति अपना मत अपनी चाह को धर्म पर आरोपित करना चाहता है। यदि व्यक्ति को हलवा पसन्द है तो वह कहेगा झटका भाई को सवा किलो हलवे का प्रसाद लगाओ व बंटवाओ। यदि व्यक्तिको माँस मदिरा पसन्द है तो वह देवी देवताओं पर बलि चढाने को धर्म में बढावा देने लगेगा। विश्व में अलग-2 स्थानों पर लोगों की रूचियाँ स्वभाव अलग-2 है वहाँ धर्म के स्वरूप भी उसी प्रकार के देखने को मिलते है। समाज यदि चापलूसी पसन्द है तो देवी देवताओं की भी बडाई व चापलूसी जमकर कर की जाती है जिससे वो प्रसन्न हो सकें। इसी कारण समाज में धर्म का स्वरूप विकृत हो जाता है। कभी-2 कोई दिव्य महापुरुष धरती पर आते है वो धर्म के सही रूप में परिभाषित करते है। लोगों के अपनी रूचियों अपने धन्धोंअपनी मान्याओं पर हो रहा आघाात सहन नहीं होता ओर वो दिव्य पुरुषों को दण्डित करने अथवा मारने की मूर्खता भी करते है।
     

पातजंलि योग दर्शन
किसी भी आध्यात्मिक गतिविधि के दो पक्ष होते है एक क्रिया पक्ष दूसरा भावपक्ष। जैसे प्राण के बिना शरीर का मूल्य नहीं होता वैसे ही भावपक्ष के बिना क्रिया पक्ष बेजान रहता है। परन्तु व्यक्ति मात्र क्रियापक्ष अथवा कर्मकाण्ड में ही उलझा रहता है व भषपक्ष को नहीं अपनाना चाहता। यदि हम भारत के योग के सन्दर्भ में बात करें तो इसका भवपक्ष हे महर्षि पातजंलि का योगदर्शन एंव यदि क्रिया पक्ष देखे तो वह मत्स्येन्द्रनाथ व गोरखनाथ जी द्वारा दिया हुआ हठ योग।
समाज में जो योग अथवा योगा के नाम से प्रचलित है वह बहुत ही छोटा पक्ष है जिसमें कुछ शरीर के क्रियाएँ व कुछ श्वास प्रश्वास की क्रियाएँ आती है। जनता इनके लाभों से ही सुखद अनुभव करती है व अपने सभी रोगी व समस्याओं के समाधान खोजती है। परन्तु यह पक्ष छोटी मोटी बीमरियों समस्याओं में लाभप्रद हो सकता है।

यही कोई व्यक्ति समस्याओं को जड से निबटारा करना चाहें अथवा अपनी आध्यात्मिक उन्नति करना चाहें तो उसे योग से सभी पक्षों का विस्तार से अध्ययन व हृदयगम करना पडे़गा। व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक उन्नति क्यों करना चाहता है इसका बड़ा स्पष्ट उत्तर है- मानव प्रकृति के बन्धनों में बंधा तडफ रहा होता है। दैहिक दैविक भौतिक तापो से त्रस्त रहता है। इसलिए जगत को दुःखरूप कहा गया है। परन्तु यदि व्यक्ति अपने प्रारब्धो को काटकर एक सीमा तक आध्यात्मिक उन्नति कर ले तो यही जगत व्यक्ति से लिए आनन्दरूप बन जाता है। प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि वह आनन्दमय बन सकेंनिरोग रह सकें जगत के सत्य से परिचित हो सकेे। महात्मा बुद्ध कहते है कि मानव जीवन के लक्ष्य के निर्वाण प्राप्त करनाअर्थात् एक ऐसी स्थिति अवस्था पाना जिसमें पहुँचकर सम्पूर्ण दुखे से निवृत्ति हो जाती है। शास्त्र कहते हे जीवन का लक्ष्य है मोक्ष अर्थात् सतचित्त आनन्द की प्राप्ति। यह तभी सम्भव है जब चित्त की वृत्तियों को विरोध सम्भव हो सकें। मानव स्वंय में आनन्दमय है परन्तु चित्त की वृत्तियाँ (वसनातृष्णाअंहता) उसे इधर-उधर भटकती रहती है। अब देखते है कि चित्र वृत्तियों के विरोध के लिए योग क्या ज्ञान विज्ञान है?

अध्यात्म के कुछ मूलभूत सिद्वान्त है। योग ग्रन्थउपनिषदभागवद् गीता सभी शास्त्र भाँति-2 से मनुष्य को उसी दिशा में ले जाने का प्रयास करते है। यदि हम सरल शब्दो में कहें तो हमें तीनो बातो का जीवन में ध्यान रखना होगा- निःस्वार्थतापवित्रता एंव भगवान को समर्पण अर्थात् हम निःस्वार्थी बनेपवित्र बने एंव ईश समर्पित जीवन जीने का प्रयास करें। जो जितना इस दिशा में प्रगति करेगा उतना अपनी आत्मिक उन्नति करता चला जाएगा। इसमें भी सबके पहला सिद्धान्त (निःस्वार्थत) सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जैसे-2 व्यक्ति निःस्वार्थ होगाअल्प प्रयास से पवित्र होता जाएगा। धीरे-2 उसमें ईश्वर के प्रति समर्पण का भी उदय होगा।
कहते है विज्ञान परमात्मा के अस्तित्व के नहीं मानता। परन्तु विश्व के बड़े निःस्वार्थ वैज्ञानिक प्रभु की सत्ता को स्वीकार करते रहे है। हो सकता है अपने जवानी शोध के प्रारम्भ में के ईश्वर के न मानते है। परन्तु अनुभव बढ़ने पर उन्होंने किसी सर्वोपरि सत्ता के अस्तित्व के स्वीकार किया है। उदाहरण के लिए अब्बर्ट आंइसटाइन जब भी जहाज आादि में सफर करते थे एक माला अपने साथ रखते थे व जप करते थे। एक बार बर्लिन हवाई अड्डे पर वो जहाज में बैठे व अपनी माला निकालकर जप करने के तैयार हुए। समीप बैठे युवक ने उनको टोका कि वो इन रूढि़वादी परम्पराओं के घर विरोधी है व एक ऐसे दल का नेतृत्व करता है जो लोगो के इन बातों से हटाकर वैज्ञानिक उन्नति करने की प्ररेणा देता है। इतना कहकर युवक ने अपना कार्ड उनकी ओर बढ़ाया। आंइस्टीन ने उससे पूछा आप किस वैज्ञानिक को अपना आदर्श मानते हो तो युवक ने तपाक रे उत्तर दिया, ‘अल्बर्ट आंइस्टीन के। यह सुनकर आईस्टीन महोदय ने अपना कार्ड युवक की ओर बढ़ाया व उसे समझाया अध्यात्म ओर विज्ञान दोनों ही सत्य की खोज में जुटे है। विज्ञान के साथ-2 अध्यात्म भी बहुत जरूरी है अन्यथा अकेला विज्ञान विश्व के लिए विनाकारी भी सिद्ध हो सकता है।
कहने का तात्पर्य है कि लगभग सभी बड़े वैज्ञानिक निःस्वार्थ रहे है। बहुत बड़े स्तर पर व्यक्ति पहँुच ही सकता है ज बवह स्वार्थी न हों। लोभी व्यक्ति तो माया के चक्कर में इधर-उधर भटकता रहता है। जो लोग पेशन ;च्ंेेपवदद्ध के लिए काम करते है पैसे के लिए नहीं वही कुछ आश्चर्यजनक कार्य करने में सक्षम होते है।
भारत की भूमि सदा से ही त्यागी तपस्वी लोगो की भूमि रही है। यहाँ ऋषिमुनियोगी सदा से ऊँचे आदर्शो से भरा निःस्वार्थ जीवन जीते आ रहे है। परन्तु आज के लोगो का घटिया जीवन देखकर बड़ी शर्त आती है और यह सोचने के मजबूर करती है कि क्या हम उन्ही के वंशज है?’ भेड़ो के झुण्ड में भटके शेर के बच्चे अपने के भेड मानने लगते है। मुगलोअग्रेजो के आक्रमण के बावजूद व पश्चिम के भोग विलास की आँधी में आज भी हम अपना अस्तित्व बचा कर रखने में समर्थ है। इतना ही नहीं पूरे विश्व को ज्ञान दान एंव उनकी कयपलट कर सकते है। अब वो समय आ गया है जब एक नही हजारो विवेकनन्द हर देश की धरती पर अवतरित हो चुके है। धीरे-2 वो अपने असली स्वरूप के पहचान रहे है।
    ऋषि पातजंलि अपने योग दर्शन में सर्वप्रथम पाँच यम व पाँच नियमों  का वर्णन करते है। सृष्टि के संचालन व विघि व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिन अनुशासनों का पालन कठोरता पूर्वक करना होता है उन्हें यम के कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार यम सृष्टि को सन्तुलित व नियन्त्रित करने वाले देवता है। यदि यम की उपेक्षा प्रारम्भ हो गयी तो विनाश आ जाएगाधरती पर जीवन का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। अतः किसी भी प्रकार का व्यक्ति हो यम सबके लिए अनिवार्य ;उमदकंजवतलद्ध है अन्यथा जीवन में दुर्गति होगी। यम के अन्तर्गत पाँच बाते आती है। सत्यअंहिसाब्रह्मचर्यअपरिग्रह एवं अस्तेय ;दवद.ेजमंसपदहद्ध। 
यदि हम सच बोलना छोड़ते रहे तो पूरे विश्व में कोई एक दूसरे पर विश्वास ही नहीं करेगा सब जगह धोखा घड़ी होने से जीवन संकटो से भर जाएगा। यदि हमने अंहिसा के महत्त्व नहीं दिया तो चारो ओर मरधर मच जाएगी। इसी प्रकार यदि ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्वा नहीं रही तो चारो ओर कमुकता फैल जाएगी ओर जीवनी शक्ति का हवस हो जाएगा। इसी प्रकार धरती के संसाधन ;तमेवनतबमेद्ध सीमित है। यदि एक व्यक्ति जरूरत से ज्यादा उपभोग करेगा तो दूसरा भूखा मरेगा। इसलिए आवश्यकतानुसार सीमा के भीतर सामान प्रयोग करें। जैसे यदि लकड़ीजल आदि के अनावश्यक बरबादी करेगें तो संकट खड़ा हो जाएगा। अतः सुखी रहने के लिए आवश्यकताएँ कम करें। इस ;चीपसवेवचीलद्ध के अपरिग्रह कहते है अस्तेय का अर्थ है हक हलाल की कमाई करें। किसी दूसरे के मत पर अपनी नीयत न खराब करें।
हमारी विडम्बना यह है कि हम झूठ कपट में डूबे रहते है स्नगनतपवदे सपमि जीना चाहते हैपसीना नहीं बहातेश्रम से जी चुराते है। कोई रोग आता है तो आसनप्राणायाम करके ठीक करना चाहते है। जब तक आधार भूत सिद्धान्तों पर व्यक्ति नहीं चलेगा उसके कष्टोरोगों से मुक्ति नहीं मिलेगी। यदि हमने ब्रहमचर्य का पालन नहीं किया व कपाल भाँति ज्यादा लगा लिया तो यह हमारे लिए खतरनाक भी सिद्ध हो सकता है। व्यक्ति के तोकिक्र जीवन के पश्चात् आध्यात्मिक जीवन की बारी आती है। जो व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति करना चाहते है उन्हें पाँच नियमों पर चलना होगा-शौचसन्तोषतपस्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान।

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