अधिकांश व्यक्ति अपनी जीवन-शैली को अस्त-व्यस्त रखते है इस कारण रोगों की चपेट में आने लगते हैं। रोगी होने पर एलोपैथी अथवा अन्य चिकित्सकों से इलाज कराते हैं, परन्तु जीवन-चर्या को ठीक करने की ओर ध्यान नहीं देते। इस कारण रोग जिद्दी (chronic) होने लग जाते हैं। जब रोग घातक स्थिति तक पहुंच जाता है तभी आंख खुलती है व रोग के निवारण के लिए बहुत परेशानी उठानी पड़ती है। यदि हम पहले से ही सचेत रहकर अपनी जीवनचर्या पर नियन्त्रण रखें तो हम ऋषियों के अनुसार ‘जीवेम शरद: शतम्’ अर्थात् 100 वर्ष तक स्वस्थ जीवन जी सकते हैं। इसके लिए हमें निम्न सूत्रों को जीवन में अपनाना होगा।
1) प्रात:काल सूर्योदय से दो घण्टा पूर्व अवश्य उठें। ऋषियों ने इसे ब्रह्ममुहूर्त्त की संज्ञा दी है। इस समय की वायु में जीवनी शक्ति सर्वाधिक होती है। वैज्ञानिकों ने शोध किया है कि पेड़-पौधों की वृद्धि इस समय व संधिकाल (दिन-रात के मिलने का समय) में सबसे अधिक होती है।
2) प्रात: उठने के पश्चात् ऊषा पान (जलपान) करें। यह जल ताजा पी सकते हैं। यदि रात को ताम्र पात्र में जल
भरकर रख दें वह पीना अधिक लाभप्रद है। ताम्र पात्र को विद्युत रोधी लकड़ी, रबड़, प्लास्टिक के ऊपर रखें इससे पानी में ऊर्जा निहित हो जाती है। यदि सीधा जमीन या स्लैब आदि पर रख दें तो यह ऊर्जा जमीन में चली जाती है। शीत ऋतु में जल को हल्का गर्म करके पीयें व ग्रीष्म ऋतु में सादा (अधिक ठण्डा न हो) लें। जल की मात्रा इच्छानुसार लें। जितना पीना आपको अच्छा लगे- आधा किलो, एक किलो, सवा किलो उतना पी लें। जोर-जबरदस्ती न करें। कर्इ बार अधिक पानी-पीने के चक्कर में हृदय की धड़कन बढ़ती है या पेट में दर्द आदि महसूस देता है, अत: जितना बर्दाश्त हो उतना ही पानी पिया जाए।
3) जल पीकर थोड़ा टहलने के पश्चात् शौच के लिए जाएं। मल-मूत्र त्यागते समय दांत थोड़ा भींचकर रखे व मुंह बंद रखें। मल-मूत्र त्याग बैठकर ही करना उचित होता है।
4) मंजन जलपान करने से पहले भी कर सकते हैं व शौच जाने के बाद भी। ब्रुश से ऊपर-नीचे करके मंजन करें। सीधा-सीधा न करें। यदि अंगुली का प्रयोग करना हो तो पहली अंगुली तर्जनी का प्रयोग न करें। अनामिका (Ring Finger) अंगुली का प्रयोग करें, क्योंकि तर्जनी अंगुली से कभी-कभी (मन: स्थिति के अनुसार) हानिकारक तरंगे निकलती हैं जो दांतो, मसूड़ों के लिए हानिकारक हो सकती है। कभी-कभी नीम की मुलायम दातुन का प्रयोग अवश्य करें। इससे दांतों के कीटाणु मर जाते हैं यदि नीम की दातुन से थोड़ा-बहुत रक्त भी आए तो चिन्ता न करें। धीरे-धीरे करके ठीक हो जाएगा। कुछ देर नीम की दातुन करते हुए रस चूसते रहें उसके पश्चात् थोड़ा-सा रस पी लें। यह पेट के कीटाणु मार देता है। यदि पायरिया के कारण दाँतों से रक्त अधिक आये तो बबूल की दातुन का प्रयोग करें वह काफी नरम व दाँतों को मजबूती प्रदान करने वाली होती है। मंजन दोनों समय करना अच्छा रहता है- प्रात:काल व रात्रि सोने से पूर्व। परन्तु दोनों समय ब्रुश न करें। एक समय ब्रुश व एक समय अंगुलि से मंजन करें। अधिक ब्रुश करने से दाँत व मसूढ़े कमजोर होने का भय बना रहता है। मंजन करने के पश्चात् दो अंगुलि जीभ पर रगड़कर जीभ व हलक साफ करें। हल्की उल्टी का अनुभव होने से गन्दा पानी आँख, नाक, गले से निकल आता है।
5) स्नान ताजे जल से करें, गर्म जल से नहीं। ताजे जल का अर्थ है जल का तापक्रम शरीर के तापक्रम से कम रहना चाहिए। छोटे बच्चों (5 वर्ष से कम) के लिए अधिक ठण्डा जल नहीं लेना चाहिए। शरद् ऋतु में भी जल का तापक्रम शरीर के तापक्रम से कम ही होना चाहिए, परन्तु बच्चों वृद्धों व रोगियों को गुनगुने जल से स्नान करना चाहिए। स्नान सूर्योदय से पूर्व अवश्य कर लेना चाहिए। रात्रि में पाचन तन्त्र के क्रियाशील रहने से शरीर में एक प्रकार की ऊष्मा (heat) बनती है जो शीतल जल में स्नान करने से शांत हो जाती है, परन्तु यदि सूर्योदय से पूर्व स्नान नहीं किया गया तो सूर्य की किरणों के प्रभाव से यह ऊष्मा और बढ़ जाती है तथा सबसे अधिक हानि पाचन तन्त्र को ही पहुंचाती है।
6) स्नान के पश्चात् भ्रमण (तेज चाल से), योगासन, प्राणायाम, ध्यान, पूजा का क्रम बनाना चाहिए। इसके लिए प्रतिदिन आधा से एक घण्टा समय अवश्य निकालना चाहिए। बच्चों को भी मंदिर में हाथ जोड़ने, चालीसा आदि पढ़ने का अभ्यास अवश्य कराना चाहिए।
7) भोजन दो बार करना चाहिए। भोजन करने का सबसे अच्छा समय प्रात: 8 से 10 बजे व सायं 5 से 7 बजे के बीच है। यदि कोर्इ भारी खाद्य पदार्थ लेना है तो प्रात: के भोजन में ही लें, क्योंकि पाचन क्षमता सूर्य से प्रभावित होती है। 12 बजे के आस-पास पाचन क्षमता सर्वाध्कि होती है, अत: 10 बजे किया गया भोजन बहुत अच्छे से पच जाता है। अन्न वाले खाद्य पदार्थ दो बार से अधिक न लें। 40 वर्ष की उम्र के पश्चात तो अन्न (भोजन) की आवश्यकता केवल दिन में एक बार ही रह जाती है।
8) शरीर से दिनभर में कोर्इ ऐसा शारीरिक परिश्रम (Physical Exercise) का कार्य अवश्य करें जिसमें पसीना
निकलता है इससे खून की सफार्इ हो जाती है।
9) भोजन के पश्चात् घण्टा दो घण्टा जल न पीएं। यदि आवश्यकता लगे तो भोजन के बीच अल्पमात्रा में पानी पीएं, क्योंकि अधिक जल पीने से पाचक रस मन्द हो जाते हैं।
10) भोजन पेट की भूख से तीन चौथार्इ करें। एक चौथार्इ पेट खाली रखें। जब पेट भरने लगे अथवा डकार आ जाए तो भोजन करना बन्द कर दें। ठूस-ठूस कर खाने से शरीर भारी हो जाता है।
11) सप्ताह में एक दिन इच्छानुसार स्वादिष्ट भोजन कर सकते हैं। पांच दिन सामान्य भोजन करें व एक दिन व्रत अवश्य करें। सामान्य भोजन में मिर्च मसालों का प्रयोग कम से कम करें।
12) घी का सेवन वही करें जो शारीरिक कार्य अधिक करते हैं। मानसिक कार्य करने वाले घी का सेवन अल्प मात्रा में ही करें।
13) 25 वर्ष की आयु तक इच्छानुसार पौष्टिक भोजन करें। 25 वर्ष से 40 वर्ष की आयु तक नियंत्रित भोजन करना चाहिए। 40 वर्ष के पश्चात् बहुत सोच-समझकर भोजन करना चाहिए।
14) भोजन से पूर्व अपनी मानसिक स्थिति शान्त कर लें। भोजन करते हुए किसी भी प्रकार के तनाव, आवेश, भय, चिन्ता के विचारों से ग्रस्त न हों। भोजन र्इश्वर का प्रसाद मानकर प्रसन्न मन से करें। भोजन को खूब चबा-चबा कर खाना चाहिए। आचार्य भाव मिश्र कहते हैं:-
र्इष्र्याभयक्रोध् समन्वितेन, लुब्धेन रुग् दैन्यनिपीड़ितेन।
विद्वेष युक्तेन च सेव्यमान, अन्नं न सम्यक् परिपाकमेति।।
अर्थात् भोजन के समय र्इष्र्या, भय, क्रोध्, लोभ, रोग, दीनता का भाव, विद्वेष रखने से खाया हुआ अन्न भली-भांति नहीं पचता है, जिससे रस रक्तादि की उत्पत्ति भी ठीक प्रकार शुद्ध रूप से नहीं होती है। अत: सुखपूर्वक बैठकर प्रसन्नता से धीरे-धीरे खूब चबा-चबा कर भोजन करना चाहिये।
15) दूध् या पेय पदार्थों को जल्दी-जल्दी नहीं गटकना चाहिए। धीरे-धीरे चूस-चूस कर पीना चाहिए। पेय
पदार्थों का तापक्रम न तो अधिक गर्म हो न ही अधिक शीतल।
16) चीनी व चीनी से बनी चीजों का प्रयोग कम से कम करना चाहिए। चीनी को सफेद जहर की संज्ञा दी गयी
है। शुगर की आवश्यक पूर्ति के लिए फलों का प्रयोग करना चाहिए।
17) आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य इन तीनों बातों से स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। आहार में मांस, अण्डा, शराब, मिर्च-मसाले व अधिक नमक से बचना चाहिए। निद्रा छ: से आठ घण्टे के बीच लेनी चाहिए व अश्लील चिन्तन से बचना ही ब्रह्मचर्य है।
18) जीवन आवेश रहित होना चाहिए। र्ईर्ष्या-द्वेष, बात-बात पर उत्तेजित होने का स्वभाव जीवनी शक्ति को भारी क्षति पहुंचाता है।
19) रात्रि को सोते समय मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का प्रयोग करना चाहिए। कीटनाशकों का कम से कम प्रयोग करना चाहिए। लम्बे समय तक मच्छरनाशक रसायनों के उपयोग से मनुष्य को सर्दी-जुकाम, पेट में ऐंठन और आंखों में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। ये लक्षण और विकृतियां पायरेथ्राइडस नामक कृत्रिम कीटनाशक के कारण होती हैं जो कीटों के तंत्रिका तन्त्र पर हमला करता है। सेफ्टी वाच समूह ‘सी.यू.टी.एस.’ ने अपने नए प्रकाशन ‘इज इट रियली सेफ’ में बताया है कि ये रसायन मानव शरीर के लिए बहुत-ही विषैले और हानिकारक होते हैं।
20) भोजन बनाते समय साबुत दालों का प्रयोग करना चाहिए। छिलका उतरी दालों का प्रयोग बहुत कम करना चाहिए। आटा चोकर सहित मोटा प्रयोग में लाना चाहिए। बारीक आटा व मैदा कम से कम अथवा कभी-कभी ही प्रयोग करना चाहिए। दाल, सब्जियों को बहुत अधिक नहीं पकाना चाहिए। आधा पका (half cook) भोजन ही पाचन व पौष्टिकता की दृष्टि से सर्वोत्तम है।
21) घी में तले हुए आलू, चिप्स आदि का प्रयोग कम से कम करना चाहिए। तलने के स्थान पर भाप द्वारा पकाना कहीं अधिक गुणकारी व सुपाच्य होता है।
22) व्यस्त रहें, मस्त रहें के सूत्र का पालन करना चाहिए। व्यस्त दिनचर्या प्रसन्नतापूर्ण ढ़ंग से जीनी चाहिए।
23) प्रात: उठते ही दिनभर की गतिविधियों की रूपरेखा बना लेनी चाहिए व रात्रि को सोते समय दिन भर की
गतिविधियों का विश्लेषण करना चाहिए। यदि कोर्इ कभी गलती प्रतीत होती हो, तो भविष्य में उस त्रुटि को दूर करने का संकल्प लेना चाहिए।
24) शयन के लिए बिस्तर पर मोटे बाजारू गद्दों का प्रयोग न करें, हल्के रूर्इ के गद्दों का प्रयोग करें।
1) प्रात:काल सूर्योदय से दो घण्टा पूर्व अवश्य उठें। ऋषियों ने इसे ब्रह्ममुहूर्त्त की संज्ञा दी है। इस समय की वायु में जीवनी शक्ति सर्वाधिक होती है। वैज्ञानिकों ने शोध किया है कि पेड़-पौधों की वृद्धि इस समय व संधिकाल (दिन-रात के मिलने का समय) में सबसे अधिक होती है।
2) प्रात: उठने के पश्चात् ऊषा पान (जलपान) करें। यह जल ताजा पी सकते हैं। यदि रात को ताम्र पात्र में जल
भरकर रख दें वह पीना अधिक लाभप्रद है। ताम्र पात्र को विद्युत रोधी लकड़ी, रबड़, प्लास्टिक के ऊपर रखें इससे पानी में ऊर्जा निहित हो जाती है। यदि सीधा जमीन या स्लैब आदि पर रख दें तो यह ऊर्जा जमीन में चली जाती है। शीत ऋतु में जल को हल्का गर्म करके पीयें व ग्रीष्म ऋतु में सादा (अधिक ठण्डा न हो) लें। जल की मात्रा इच्छानुसार लें। जितना पीना आपको अच्छा लगे- आधा किलो, एक किलो, सवा किलो उतना पी लें। जोर-जबरदस्ती न करें। कर्इ बार अधिक पानी-पीने के चक्कर में हृदय की धड़कन बढ़ती है या पेट में दर्द आदि महसूस देता है, अत: जितना बर्दाश्त हो उतना ही पानी पिया जाए।
3) जल पीकर थोड़ा टहलने के पश्चात् शौच के लिए जाएं। मल-मूत्र त्यागते समय दांत थोड़ा भींचकर रखे व मुंह बंद रखें। मल-मूत्र त्याग बैठकर ही करना उचित होता है।
4) मंजन जलपान करने से पहले भी कर सकते हैं व शौच जाने के बाद भी। ब्रुश से ऊपर-नीचे करके मंजन करें। सीधा-सीधा न करें। यदि अंगुली का प्रयोग करना हो तो पहली अंगुली तर्जनी का प्रयोग न करें। अनामिका (Ring Finger) अंगुली का प्रयोग करें, क्योंकि तर्जनी अंगुली से कभी-कभी (मन: स्थिति के अनुसार) हानिकारक तरंगे निकलती हैं जो दांतो, मसूड़ों के लिए हानिकारक हो सकती है। कभी-कभी नीम की मुलायम दातुन का प्रयोग अवश्य करें। इससे दांतों के कीटाणु मर जाते हैं यदि नीम की दातुन से थोड़ा-बहुत रक्त भी आए तो चिन्ता न करें। धीरे-धीरे करके ठीक हो जाएगा। कुछ देर नीम की दातुन करते हुए रस चूसते रहें उसके पश्चात् थोड़ा-सा रस पी लें। यह पेट के कीटाणु मार देता है। यदि पायरिया के कारण दाँतों से रक्त अधिक आये तो बबूल की दातुन का प्रयोग करें वह काफी नरम व दाँतों को मजबूती प्रदान करने वाली होती है। मंजन दोनों समय करना अच्छा रहता है- प्रात:काल व रात्रि सोने से पूर्व। परन्तु दोनों समय ब्रुश न करें। एक समय ब्रुश व एक समय अंगुलि से मंजन करें। अधिक ब्रुश करने से दाँत व मसूढ़े कमजोर होने का भय बना रहता है। मंजन करने के पश्चात् दो अंगुलि जीभ पर रगड़कर जीभ व हलक साफ करें। हल्की उल्टी का अनुभव होने से गन्दा पानी आँख, नाक, गले से निकल आता है।
5) स्नान ताजे जल से करें, गर्म जल से नहीं। ताजे जल का अर्थ है जल का तापक्रम शरीर के तापक्रम से कम रहना चाहिए। छोटे बच्चों (5 वर्ष से कम) के लिए अधिक ठण्डा जल नहीं लेना चाहिए। शरद् ऋतु में भी जल का तापक्रम शरीर के तापक्रम से कम ही होना चाहिए, परन्तु बच्चों वृद्धों व रोगियों को गुनगुने जल से स्नान करना चाहिए। स्नान सूर्योदय से पूर्व अवश्य कर लेना चाहिए। रात्रि में पाचन तन्त्र के क्रियाशील रहने से शरीर में एक प्रकार की ऊष्मा (heat) बनती है जो शीतल जल में स्नान करने से शांत हो जाती है, परन्तु यदि सूर्योदय से पूर्व स्नान नहीं किया गया तो सूर्य की किरणों के प्रभाव से यह ऊष्मा और बढ़ जाती है तथा सबसे अधिक हानि पाचन तन्त्र को ही पहुंचाती है।
6) स्नान के पश्चात् भ्रमण (तेज चाल से), योगासन, प्राणायाम, ध्यान, पूजा का क्रम बनाना चाहिए। इसके लिए प्रतिदिन आधा से एक घण्टा समय अवश्य निकालना चाहिए। बच्चों को भी मंदिर में हाथ जोड़ने, चालीसा आदि पढ़ने का अभ्यास अवश्य कराना चाहिए।
7) भोजन दो बार करना चाहिए। भोजन करने का सबसे अच्छा समय प्रात: 8 से 10 बजे व सायं 5 से 7 बजे के बीच है। यदि कोर्इ भारी खाद्य पदार्थ लेना है तो प्रात: के भोजन में ही लें, क्योंकि पाचन क्षमता सूर्य से प्रभावित होती है। 12 बजे के आस-पास पाचन क्षमता सर्वाध्कि होती है, अत: 10 बजे किया गया भोजन बहुत अच्छे से पच जाता है। अन्न वाले खाद्य पदार्थ दो बार से अधिक न लें। 40 वर्ष की उम्र के पश्चात तो अन्न (भोजन) की आवश्यकता केवल दिन में एक बार ही रह जाती है।
8) शरीर से दिनभर में कोर्इ ऐसा शारीरिक परिश्रम (Physical Exercise) का कार्य अवश्य करें जिसमें पसीना
निकलता है इससे खून की सफार्इ हो जाती है।
9) भोजन के पश्चात् घण्टा दो घण्टा जल न पीएं। यदि आवश्यकता लगे तो भोजन के बीच अल्पमात्रा में पानी पीएं, क्योंकि अधिक जल पीने से पाचक रस मन्द हो जाते हैं।
10) भोजन पेट की भूख से तीन चौथार्इ करें। एक चौथार्इ पेट खाली रखें। जब पेट भरने लगे अथवा डकार आ जाए तो भोजन करना बन्द कर दें। ठूस-ठूस कर खाने से शरीर भारी हो जाता है।
11) सप्ताह में एक दिन इच्छानुसार स्वादिष्ट भोजन कर सकते हैं। पांच दिन सामान्य भोजन करें व एक दिन व्रत अवश्य करें। सामान्य भोजन में मिर्च मसालों का प्रयोग कम से कम करें।
12) घी का सेवन वही करें जो शारीरिक कार्य अधिक करते हैं। मानसिक कार्य करने वाले घी का सेवन अल्प मात्रा में ही करें।
13) 25 वर्ष की आयु तक इच्छानुसार पौष्टिक भोजन करें। 25 वर्ष से 40 वर्ष की आयु तक नियंत्रित भोजन करना चाहिए। 40 वर्ष के पश्चात् बहुत सोच-समझकर भोजन करना चाहिए।
14) भोजन से पूर्व अपनी मानसिक स्थिति शान्त कर लें। भोजन करते हुए किसी भी प्रकार के तनाव, आवेश, भय, चिन्ता के विचारों से ग्रस्त न हों। भोजन र्इश्वर का प्रसाद मानकर प्रसन्न मन से करें। भोजन को खूब चबा-चबा कर खाना चाहिए। आचार्य भाव मिश्र कहते हैं:-
र्इष्र्याभयक्रोध् समन्वितेन, लुब्धेन रुग् दैन्यनिपीड़ितेन।
विद्वेष युक्तेन च सेव्यमान, अन्नं न सम्यक् परिपाकमेति।।
अर्थात् भोजन के समय र्इष्र्या, भय, क्रोध्, लोभ, रोग, दीनता का भाव, विद्वेष रखने से खाया हुआ अन्न भली-भांति नहीं पचता है, जिससे रस रक्तादि की उत्पत्ति भी ठीक प्रकार शुद्ध रूप से नहीं होती है। अत: सुखपूर्वक बैठकर प्रसन्नता से धीरे-धीरे खूब चबा-चबा कर भोजन करना चाहिये।
15) दूध् या पेय पदार्थों को जल्दी-जल्दी नहीं गटकना चाहिए। धीरे-धीरे चूस-चूस कर पीना चाहिए। पेय
पदार्थों का तापक्रम न तो अधिक गर्म हो न ही अधिक शीतल।
16) चीनी व चीनी से बनी चीजों का प्रयोग कम से कम करना चाहिए। चीनी को सफेद जहर की संज्ञा दी गयी
है। शुगर की आवश्यक पूर्ति के लिए फलों का प्रयोग करना चाहिए।
17) आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य इन तीनों बातों से स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। आहार में मांस, अण्डा, शराब, मिर्च-मसाले व अधिक नमक से बचना चाहिए। निद्रा छ: से आठ घण्टे के बीच लेनी चाहिए व अश्लील चिन्तन से बचना ही ब्रह्मचर्य है।
18) जीवन आवेश रहित होना चाहिए। र्ईर्ष्या-द्वेष, बात-बात पर उत्तेजित होने का स्वभाव जीवनी शक्ति को भारी क्षति पहुंचाता है।
19) रात्रि को सोते समय मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का प्रयोग करना चाहिए। कीटनाशकों का कम से कम प्रयोग करना चाहिए। लम्बे समय तक मच्छरनाशक रसायनों के उपयोग से मनुष्य को सर्दी-जुकाम, पेट में ऐंठन और आंखों में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। ये लक्षण और विकृतियां पायरेथ्राइडस नामक कृत्रिम कीटनाशक के कारण होती हैं जो कीटों के तंत्रिका तन्त्र पर हमला करता है। सेफ्टी वाच समूह ‘सी.यू.टी.एस.’ ने अपने नए प्रकाशन ‘इज इट रियली सेफ’ में बताया है कि ये रसायन मानव शरीर के लिए बहुत-ही विषैले और हानिकारक होते हैं।
20) भोजन बनाते समय साबुत दालों का प्रयोग करना चाहिए। छिलका उतरी दालों का प्रयोग बहुत कम करना चाहिए। आटा चोकर सहित मोटा प्रयोग में लाना चाहिए। बारीक आटा व मैदा कम से कम अथवा कभी-कभी ही प्रयोग करना चाहिए। दाल, सब्जियों को बहुत अधिक नहीं पकाना चाहिए। आधा पका (half cook) भोजन ही पाचन व पौष्टिकता की दृष्टि से सर्वोत्तम है।
21) घी में तले हुए आलू, चिप्स आदि का प्रयोग कम से कम करना चाहिए। तलने के स्थान पर भाप द्वारा पकाना कहीं अधिक गुणकारी व सुपाच्य होता है।
22) व्यस्त रहें, मस्त रहें के सूत्र का पालन करना चाहिए। व्यस्त दिनचर्या प्रसन्नतापूर्ण ढ़ंग से जीनी चाहिए।
23) प्रात: उठते ही दिनभर की गतिविधियों की रूपरेखा बना लेनी चाहिए व रात्रि को सोते समय दिन भर की
गतिविधियों का विश्लेषण करना चाहिए। यदि कोर्इ कभी गलती प्रतीत होती हो, तो भविष्य में उस त्रुटि को दूर करने का संकल्प लेना चाहिए।
24) शयन के लिए बिस्तर पर मोटे बाजारू गद्दों का प्रयोग न करें, हल्के रूर्इ के गद्दों का प्रयोग करें।
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