4. मध्यम
गति
की
उपयोगिता
साधक की साधना में गति का चयन एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिन्दु है। यदि साधक अपनी पात्रता के अनुसार साधना के गति देता है तभी सफल रहता है अन्यथा दुर्गति भी हो सकती है। यह ठीक ऐसा है जैसे यदि कोर्इ व्यक्ति उत्तम स्वास्थ्य हेतु व्यायाम करना चाहे तो उसके लिए कितना व्यायाम करना उपयोगी रोगा यह जानना बहुत आवश्यक है। अनेक व्यक्ति व अन्य साधनों के लाभे के पढ़कर सामथ्र्य से बाहर कर बैठते हैं व अनेक कठिनार्इयों में उलझ जाते है कुछ लोगों के जीवन से हाथ धोते भी देखा गया है। यदि हमारी माँसपेशियााँ (Masales) कमजोर है तो अधिक व्याया माँसपेशियों के तोड भी सकता है। इसी प्रकार साधना की ऊर्जा के पचाना आसान कार्य नहीं है जो आसानी से पच जाय उतनी साधना की जाए।
कुल लोग साधना करते है तो उन्हें जड़ता अथवा निद्रा धेसे लगती है। साधना में तन्डा आना तो अच्छा है लेकिन जाड़ता आना ठीक नहीं है ऐसे व्यक्ति निष्काऊ कर्म भोग करके पहले योगी चेतन्यता लाँए। शरीर के भीतर उपयुक्त ऊर्जा चेतन्यता होने से ही आगे साधन के गति ही जा सकती है। कुछ लोग जोर जबरदस्ती कर ध्यान में बैठने का प्रयास करते है व हाथ पैरों में जडता एंव निद्रा के वशी भूत होने लगते है उन्हें ध्यान अधिक नहीं करना चाहिए। कुछ लोग ऊर्जा तो बना लेते है परन्तु उस ऊर्जा से तरह-2 के आवेशों में उलझकर अपने मन की शान्ति खो देते है। पाठक कृप्या परेशान न हों, आधा एक घण्टा प्रात एंव साँय ध्यान करना सभी के लिए उत्तम एंव लाभकारी हैं। परन्तु कुछ लोग तीन से छ: घण्टे तक प्रतिदिन जब ध्यान करना चाहते है। उन्हें करना अच्छा व आनन्दायक भी प्रतीत होता है। किन्तु साथ-2 अपने दैनिक जीवन में वो उत्त्ोजनाओं के शिकार होने लगते है। एक तरफ साधना का आनन्द व दूसरी ओर उत्त्ोजनाओं की कष्टप्रद स्थिति। न छोडते बनता न करते बनता। इसका कारण है कि उनमें ज्ञान और विशेष रूप से वैराग्य नहीं आ पाया हैं। कठिनार्इ यह है कि वैराग्य की भीतर से मनोभूमि विकसित करना वर्षो अथवा जन्मों के अभ्यास से ही सम्भव है।
इस सृष्टि में बहुत तरह की विचित्रताएँ देखने के मिलती है। बहुत से लोग ऊपर से वैरागी दिखते हुयी प्रतीत होते हैं परन्तु अन्दर से वासना, तृष्णा में उलझे होते है। इसमें भी दो श्रेणी के लोग होते है। एक सच्चे जो अपनी वासना, तृष्णा से भीतर ही भीतर संघर्ष कर रहे होते है कभी-2 फिसल भी जाते है। दूसरे वो जो तोक दिखाने के लिए वैराग्य का ढोंग करते है परन्तु भीतर की वासना तृष्णा के पूरा करने के मौक ढूंढते रहते है। ऐसे भी व्यक्ति होते है जो ऊपर से खाते पीते भोग विलास करते नजर आते है परन्तु भीतर से वैरागी होते हैं। इसका कारण कि पूर्व कर्इ जन्मों से उन्होंने ज्ञान वैराग्य की साधना की है। अब इस जन्म में वो भोग विलास में उलझ गए। यद्यपि ऐसे व्यक्ति जीवन का स्वर्गीय आनन्द लेते है परन्तु अपने अनेक जन्मों के तप के फल के भोग डालते हैं अर्थात् पुरानी कमार्ड खर्च कर डालते है। यह ठीक ऐसी ही है कि यदि अच्छा पाचन शक्ति वाला व्यक्ति दूध घी, मलार्इ खड़ी खा रहा है व ताकतवर बन रहा है। उसे देखकर एक दुबर्ल पाचन शक्ति वाला व्यक्ति भी उसकी नकल करना चाहता है तो उसके दस्त लग जाते हैं व बीमार हो जाता है। ऐसे में अल्प बुद्धि के व्यक्ति परमात्मा के दोष देने लग जाते है। वो कहते है कि A,B,C सभी भोज कर रहे है परन्तु मैं सावधानियाँ साधना करता हँू फिर भी परेशान हँू। किसके कैसे समझाया जाप जिसके पास bank balance है वह तो मजे करेगा ही। दूसरा मजदूरी मेहनत करके भी मजे नहीं कर पाता कठिनार्इ से गुजारा हो पाता है।
कहने का अर्थ यह है कि साधना मार्ग में भी सावधानी पूर्वक अपने मार्ग का चयन करें। A,B,C तो चार घण्टे निन्य ध्यान करते हैं आधा घण्टा सर्दियों में गंगा स्नान भी करते है। उनसे प्रेरणा लेकर में ठण्ड में जैसे ही गंगा जी में घुसा तो मेरे सारे शरीर में दर्द शुरू हो गया। कारण माँसपेशियाँव नसे सर्दी सहन न कर सकी न अकड कर दुखने लगी। अब तो अपने काम लायक भी नहीं रहा, बिस्तर पकडना पड़ा। सबके सबकुछ मिल तो सकता है परन्तु जल्दबाजी व अधीरता में व्यक्ति नुकसान उठा लेता है। आपने घटना सुनी होगी। वीर शिवाजी युद्ध में हाटकर जंगल में छिपते फिर रहे थे। रात्रि में एक बुढ़िया के झोपड़ी में शरण लेते है। बुढ़िया ने खिचड़ी बनार्इ व उनके खाने के परोसी। शिवाजी ने बीच से खिचड़ी में हाथ डाला व जला बैठे। बुढ़िया ने कहा, ‘हे मुसफिर तू भी लगता हे शिवाजी की तरह मूर्ख है जो बीच में हाथ डाल रहा है, किनारे से लेकर थोड़ी-2 खा’ शिवाजी की आँखे खुल गयी, उन्होंने धीरे-2 किनारे (Outside) के किलो पर कब्जा कर स्वयं के मजबूत बनाना शुरू किया।
यही बात साधना के क्षेत्र में भी है। युगऋषि भी राम आचार्य जी का मत है लोग कुण्डली जागरण-2 की इच्छा रखते है परन्तु यह नहीं देखते कि उसके सम्भाल भी पाँएगे या नहीं। यदि जोश में आकर सामथ्र्य से ज्यादा वजन उठा लिया तो थोडे हो समय में हे बोल जाएगी।
कर्इ बार हम किसी भी कार्य में सफल होने के चक्कर में जोश में आकर उसकी गति बढ़ा देते है। उस चक्कर में हम अपने खाने, पीने, निद्रा, स्वास्थ्य सबकी अवहेलना कर जाते हैं। कर्इ बार हम देव सत्ताओं का प्यार पाने के लिए भाुवक होकर कुछ ऐसे आदर्श अपनाने लगते है कि हम समाज में उपहास के पात्र बनने लगते है। इसमें व्यक्ति एक प्रकार के द्वन्द्व में फंस जाता है। वह चाहता तो है बहुत कुछ करना, मानना परन्तु समाज के उपहास का भय भी उसे परेशान करता है। लम्बे समय तक चलने वाले द्वन्द्व अच्छे नहीं होते। इसीलिए साधक वो आदर्श अपनाए जो सरलता से निभा सकें। स्वास्थ्य की कीमत पर अधिक आदर्शो में न उलझें। बहुत से व्यक्ति ऐसे देखे गए है जो अपने आप से अधिक संघर्ष करते-2 टूट जाते है। उनके मन की शान्ति गायब हो जाती है और हर समय का संघर्ष उनकी आदत बन चुकी होती है। इससे वो वातावरण में चिड़चिड़ाहट पैदा करते रहते हैं। जबकि साधक को गम्भीर व शान्त व्यक्तित्व चाहिए।
यही बात व्यक्ति के वैवाहिक जीवन के सन्दर्भ में लघु होती है। काम वासना से निरन्तर संघर्ष बहुत से व्यक्तियों के लिए लाभप्रद नहीं रहता अपितु उनकी प्रकृति को अधिक वासनात्मक बना देता है। एक छोटी सी घटना का जिक्र यहाँ सर्वथा उचित है। एक बार एक व्यक्ति एक सिद्ध पुरुष के पास जाकर बोला ‘मैने शंकर जी की बहुत उपासना की परन्तु उनके दर्शन नहीं कर पाया। इस चक्कर में घर में पत्नी व बच्चों से भी क्लेश रहने लगा क्योंकि गृहस्थी के लिए उचित समय न निकाल पाने के कारण घर में गरीबी व तंगी बढ़ गयी।’ सन्त उसकी समस्या समझ गए। उन्होंने कहा कि रात्रि तीन घण्टे नौ से बाहर एक मन्त्र का जप करना जिससे उसे महादेव प्रसन्न होकर वर देंगे। परन्तु यदि इस मन्त्र का जप करते बन्दर का ध्यान आया तो भगवान रूष्ट होंगे व गरीबी ओर बढ़ जाएगी। वह व्यक्ति प्रसन्नतापूर्वक मन्त्र लेकर घर की ओर रवाना हुआ। परन्तु शीघ्र ही उसका ध्यान इस नकारात्मक बात की ओर गया कि बन्दर का ध्यान नहीं आना चाहिए अन्नथा गरीबी बढ़ जाएगी। यह बात उसे परेशान करने लगी। जब रात्रि के नौ बजे तो वह मन्त्र मूल गया व बन्दर ही बन्दर उसके नजर आने लगे। प्रात:काल पुन: सन्त के पास गया व अपनी दुविधा प्रकट की। सन्त ने कहा कि यदि वह बन्दर वाली बात न कहता तो उसको बन्दर का ध्यान न आता। सन्त ने उसे समझाया कि वह व्यक्ति चिन्तित तो सदा गरीबी से रहता है फिर भगवान के दर्शन कैसे करेगा। अत: सम्पर्क आचरण करें। अपनी गरीबी दूरे करने के लिए भी उचित पुरुषार्थ करें फिर भगवान का भजन करें उसे सफलता मिलेगी। मन तो वासना के ताने वाने बुनता रहता है। व्यक्ति चाहता है कि वह ब्रहम ज्ञान को अर्जित कर लें। यह कैसे सम्भव है व्यक्ति विवाहित जीवन जीते हुए साधना करें तभी सफल हो पाएगा।
सन्यास का मार्ग मात्र बिरले साधक ही चुन सकते हैं । जिनका मन निष्काम कर्म करते-करते पवित्र हो गया है संसार की आसरिक्तयों गौण पड़ती जा रही है वही यह मार्ग अपनाने की सोचें । परन्तु जिनके मन में द्वन्द्व है, संषष्ज्ञ्र हैं कभी मन इधर दौड़ता है कभी उधर उनके लिए सन्यास एक सिरदर्द बन जाता है । ऐसे व्यक्ति के लिए भगवद्गीता कहती हैं-
संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुम् अयोगत: । 5/6
अनुकरण है महाबाहो यह सन्यास दु:खप्राप्ति का मार्ग बनकर रह जाता है । जन सामान्य इस मार्ग के दु:ख, कष्ट , प्रचण्ड झंझावातें के उलझ सकते हैं वह मार्ग सुपात्र ही चुन सकते हैं। परन्तु सुपात्रों के लिए यह परम आनन्द व मोक्ष का द्वारा खोल देता हैं । अत: पहले गृहस्थ आश्रम का मार्ग अपनाकर सन्यास के नायक मनोभूमि का निर्माण करना उचित हैं ।
पुराणों में कथा है युवराज कालभीति एवं महार्षि हरिद्रुम की। यह कथा बड़ी ही प्रेरक एवं मर्मसपर्शि है। युवराज कालभीति बड़े ही विशाल साम्राज्य के उतराधिकारी थे। उनके पिता सम्राट वीरमर्दन का यश चतुर्दिक फैला हुआ था। सम्राट ने युवराज कालभीति की शिक्षा व सस्कारों का उचित प्रंबंध किया था। संभवत: उच्चकोटि की इसी स्थिति के कारण युवराज कालभीति को वैराग्य हो गया। उन्होंने तप साधना करने की ठानी। शास्त्रों के अध्ययन व साधु संग से उन्हें जगत की नश्वरता का ज्ञान हो गया था। अब उन्हें तलाश थी, केवल एक सुचोग्य मार्गदर्शक की। उन्होंने जब अपने पिता सम्राट वीरमर्दन से अपनी मन:स्थिति की चर्चा की तो वह बोले-“ पुत्र! तुम्हारे शुभ विचारों से मैं सहमत हूँ। मानव जीवन तो होता ही है भगवत्प्राप्ति के लिए, पर विचारों की श्रेष्ठता के साथ कुछ और भी आवश्यक है।“
‘‘यह कुछ और क्या है पिताश्री?’’- कालभीति ने पूछा। उतर में सम्राट वीरमर्दन ने कहा-’’ इस कुछ और के बारे में तुम्हें महार्षि हरिद्रुम बताएँगे।’’ कालभीति ने कहा-’’ पिताजी मैंने सोचा है कि मैं उनसे दीक्षा प्राप्त करके संन्यास लूँगा। ‘‘ सम्राट वीरमर्दन ने इस कथन पर अपनी सहमति प्रदान की। पिता से सहमति प्राप्त कर युवराज कालभीति ने अरण्य की ओर प्रस्थान किया। लंबी यात्रा करके वह महर्षि हरिद्रुम के आश्रम पहूँच गए। प्रणाम-अभिवादन के बाद उन्होंने अपना आने का मंवव्य बताया। युवराज कालभीति की सारी बातें सुनकर महर्षि हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स! तुम्हारे उद्देश्य से मैं पूर्णतया सहमत हूँ, परंतु अभी तुम्हारा विवेक अपरिपक्व है, इसलिए संन्यास हेतु तुम्हें अभी समय की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।’’
हरिद्रुम की इस बात ने कालभीति को आहत किया। उन्होंने कहा-’’ हे महर्षि! सांसारिक भोगों के प्रति मेरी दोषदृष्टि है। मुझे उनकी चाहत नहीं है। ‘‘ इस पर हरिद्रुम ने कहा-’’पुत्र! समय तुम्हारे सामने सत्य स्पष्ट करेगा, अभी मैं यही कह सकता हूँ।’’महर्षि के इस कथन से निराश कालभीति ने उसी वन में तप करने की ठान ली। वह वहीं कुटी बनाकर तपक रने लगे। ऐसा करते हुए उन्हें कुछ मास ही बीते थे कि वहाँ से एक दिन साँझ समय एक राजकुमारी की काफिला निकला। राजकुमारी ने देखा कि एक युवा व्यक्ति पास में कुटिया बनाए तपस्या में लीन है। वह युवा और कोई नहीं, युवराज कालभीति ही थे। वह राजकुमारी सौम्यदर्शना एक बड़े साम्राज्य की इकलौती वारिस थी। राजकुमारी सौम्यदर्शना पहली ही नजर में युवराज कालभीति से अतिशय प्रभावित हो गई ।
राजकुमारी ने अपने पिता को अपनी मनोदशा के बारे में बताया। पुत्री के प्रेम में विवश उसके पिता ने कालभीति के सामने सौम्यदर्शना के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव सुनकर कालभीति ने कहा-’’राजन्! यह संभव नहीं है। मेरे जीवन का उद्देश्य तप है। इसमें विवाह जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है।’’ यह सुनकर सौम्यदर्शना के पिता ने कहा-’’वत्स! तुम्हारे कथन का तुम्हारे लिए औचित्य हो सकता है, पर मैं तो एक पुत्री का पिता हूँ। तुम मुझे पिता-तुल्य मानकर हो सके तो मेरा एक निवेदन स्वीकार कर लो।’’ कालभीति ने कहा-’’ आप संकोच त्यागकर अपना मंतव्य कहें। ‘‘उतर में सौम्यदर्शना के पिता ने कहा-’’ तुम अपनी सारी बातें मेरी पुत्री को समझा दो।’’ कालभीति ने इस पर हामी भर दी।
इसके बाद कालभीति और सौम्यदर्शना परस्पर मिलने लगे। प्रारंभ में कालभीति ने सौम्यदर्शना को वैराग्य की बातें कहीं। जीवन के सुखों की नश्वरता समझाई , लेकिन जैसे-जैसे समय बीता उसके मन में सौम्यदर्शना के प्रति आसक्ति बड़ने लगी। उसके द्वारा अर्जित किया हुआ ज्ञान संस्कारबल के सामने क्षीण होने लगा। कुछ समय बाद उन दोनों का विवाह हो गया और कालभीति सौम्यदर्शना के राज्य का राजा बन गया। विवाह के एक वर्ष बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई । यह सब होने के बाद भी कालभीति का मन यदा-कदा तप के लिए छटपटाने लगता। सौम्यदर्शना भी अब उस पर विशेष ध्यान नहीं देती थी। उसका मन अपने पुत्र में रम गया था। समय बीतता गया। उसका पुत्र अब किशोर से युवा होने लगा।
तभी एक दिन महर्षि हरिद्रुम ने उसके महल के द्वार पर आकर आवाज दी। वह जब दौड़कर बाहर पहुँचा, तब उसने हरिद्रुम को देखकर प्रणाम किया। इस पर उसे आशीष देते हुए हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स! अब तुम साधना के योग्य बन चुके हो। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हे दीक्षा दे सकता हुँ। ‘‘ महर्षि हरिद्रुम की बात सुनकर उसकी आँखों में आँसू आ गए। हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स अब तुम्हारे कर्म, संस्कार क्षीण हो चुके है। तुमने इस अवधि में जो अनुभव पाए है,वही तुम्हारा यथार्थ ज्ञान है। जो ज्ञान तुम्हें इसके पूर्व था, वह केवल रटा हुआ था। उसमें अनुभव का अमृत नहीं था।’’ कालभीति को यथार्थ बात समझ आ गई ।
महर्षि हरिद्रुम ने उसे प्रबोध कराते हुए कहा-’’ वत्स! पढ़े हुए अथवा सोचे हुए विचार प्रेरित तो करते है, परंतु संस्कारों से मुक्ति के लिए कठिन तप के साथ कर्म-मार्ग आवश्यक है। तुमने कर्ममार्ग पर चलकर धर्माचरण करते हुए स्वंय को शुद्ध कर लिया है। अब तुम तप की उच्च कक्षा में प्रवेश क अधिकरी हो।’’ हरिद्रुम की सभी बातें कालभीति की समझ में आ चुकीं थी। उसे यह बोध हो गया, केवल विचार पर्याप्त नहीं है, विचारों के साथ संस्कारों को भी क्षीण करना पड़ता है, तभी ज्ञान सार्थक हो पाता है।
इनके बीच के एक ओर कड़ी है जो आज के युग के लिए बहुत ही उपयुक्ता है वह है गृहस्थ सन्यासी की तरह रहना । लाहिडी महाश्य गृहस्थ थे सामान्य धोती कुर्त्ता व पहनते थे नौकरी करते थे । एक बार वो एक बहुत बड़े फिट पुरूष त्रेलंग स्वामी को मिलने गए । स्वामी जी अपने हजारों शिष्यों के साथ बैठे थे । उनको आना देखकर स्वामी जी जो उठ खड़े हुए व सम्मान पूर्वक लोहड़ी जी को बैढ़ाया । शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गृहस्थ के इतना सम्मान क्यों । स्वामी जी ने बताया कि जिसके पाने के लिए मुझ वर्षो तक कठिन साधना करनी पड़ी व रोटी का भी त्याग करना पड़ा, जी गृहस्थ में रहते हुए भी उसी परम पद पर प्रतिष्ठित हैं मुझमें व इनमें कोई भेद नहीं आज के युग में जहां खान-पान व पहनावा इतना अधिक प्रदूषित हो गया है गृहस्थ सन्यासी की भूमिका सर्वोत्तम जान पड़ती है ।
युग ऋषि श्री राम आचर्य जी के उनके गुरू महायोगी सर्वेश्वरा नन्द जी ने गृहस्थ सन्यासी की तरह रहने का आदेश दिया । आचार्य जी का जीवन एक गृहस्थ के लिए की अनुकरणायं है व एक सन्यासी के लिए इतना सुन्दर गृहस्थ जिससे आश्रय परम्परा की हजारों शिष्य उस परम्परा के लाभान्वित हुए । दूसरी ओर इतना प्रचण्ड तप, इतना बड़ा पुरूषार्थ लोक कल्याण के विभिन्न इतिहास में ऐसा उदाहरण कठिनता से ही देखेन को मिलता है । यह किसी भी सन्यासी का आदर्श हो सकता है । युग के अनुकूल धर्म व परम्पराओं का निर्वाह सर्वोत्तम होता है । ब्रहमचारी को नगें पेर रहना चाहिए यह सोचकर बिनोबा जी ने चप्पल जूता त्याग दिया । शीघ्र ही उनके पता चला कि यह युग के अनुकूल नहीं है इसमें दुख अधिक है व लाभ कम ।
इसी प्रकार भावावेष में आकर सन्यास लेना युगानुकूल नहीं हैं अत: सोच समझकर मात्र परिपक्व मानसिकता वाल श्रेष्ठ साधक ही सन्यास ग्रहण करें ।
5. मौलिकता
का
त्याग न करें
व्यक्ति
ने अच्छे प्रवथन दिए अच्छी कथा को उसने यह सोचना प्रारम्भ कर दिया कि में तो सबसे बढ़िया कथा कर सकता हँू। अरे भार्इ! इस सृष्टि में भगवान ने सबके कोर्इ न कोर्इ प्रतिभा ही है। कोर्इ अच्छा डाक्टर हे कोर्इ अच्छा इन्जीनियर हे तो कोर्इ अच्छा अध्यापक। मान लीजिए X ओर Y दो व्यक्ति है। X बहुत प्रतिष्ठित डाक्टर है व Y एक सामान्य व्यक्ति है परन्तु अच्छा गृहस्थ है। X व Y के बच्चे एक स्कूल में एक ही कक्षा में पढ़ते है। Y का बच्चा कक्षा में प्रथम आता है X व का बच्चा सामान्य अंको से उतीर्ण होता है। के बड़ा कष्ट होता है। धीरे-2 Y का बच्चा प्रतिष्ठित डाक्टर हो जाता है X का बच्चा सामान्य व्यक्ति बन जाता है। किसको सफल माना जाए किसको नहीं। Y के बड़ा आत्म सन्तोष है कि उसका बच्चा बड़ा लायक निकला। X परेशान है कि इतना बड़ा डाक्टर होने के बाद औलाद सामान्य निकली।
ऐसा क्यों? हम अपने ऊपर एक कलेवर ओढ लेते है उसके दम्भ में अपने जीवन के अन्य पक्षों के नकार देते है। अत: कभी भी अपने ऊपर किसी प्रकार की ego के हाथे होने दें। नहीं भार्इ, मैं ही गायत्री परिवार में सबसे बड़ा साधक हँू। कही जाता हँू तो कुछ भी नहीं खाता पिता, लोगों में मरेा बड़ा सम्मान है। एक बार किसी धनवान के यहाँगए तो उसको खुश करने के चक्कर में चाय समोसा खा लिया। छुपने की कोशिश तो की परन्तु बात फेल गयीं। विवाद के घेरे में आ गया। प्रवचन अच्छे से अच्छा करें, साधना अच्छी से अच्छी करें परन्तु रहें सामान्य। सामान्य बने रहने का एक सरल उपाय है आप हृदय से चाहें कि आपके सामने वाला भी अच्छा प्रवचनकर्ता बने, अच्छा साधक बनें। उसके लिए भगवान से प्रार्थना करे। यह न सोचें कि मंत्र में ही महान हँू केवल में ही ऐसा कर सकता हँू, केवल में ही अच्छी कुर्सी सम्भाल सकता हँू।
यदि व्यक्ति ने अपनी भौतिकता-सरलता खो दी तो उसके अन्दर भाँति-2 की ग्रन्थियाँ बननी प्रारम्भ हो जाँएगी जो उसकी प्रतिभा, उसके स्वास्थ्य व साथ-2 उसके परिवार को भी ले डूबेगे। इसलिए ऋषि कहते है सबका भला हो, सबको सन्मार्ग पर चलाओं सबको प्रतिमावात बनाओं। हे परमात्मा मेरे गायत्री परिवार में सब प्रतिभाशाली हों, मैं तो कुछ भी नहीं आने वाली देन पीढ़ी मुझसे की ज्यादा सक्षम हो। हे गुरुदेव अब में वृद्ध हो चुका हँू कब तक इस कुर्सी का बोस ढ़ोता रहूँगा इससे चिपक रहूँगा। मुझे आत्मज्ञान की राह दिखाओं जो मेरा असली जीवन लक्ष्य है। इस कुर्सी के लिए कोर्इ श्रेष्ठ पात्र भेज दो। अब इस कुर्सी पर बैठते-2 मेरी कमर दुखने लगी है अत: दया करें प्रभु मुझमें ज्ञान वैराग्य उदय हो जिससे में परिव्रज्या व साधना का पावन पथ अपनाकर अपना परलोक भी सुधार सकँू। हे परमात्मा में अब तृप्त हो गया हँू। तूने मुझे धन वैभव, मान सम्मान, प्रतिभा, सुखी परिवार सब दिया। परन्तु मैं तुझ तक नहीं पहँुचा, योग पथ नहीं अपना सका, इन्ही मे उलझ कर रह गया। सामान्य व्यक्ति ओर मुझमें क्या अन्तर हे वह अपनी घर गृहस्थी से चिपक कर अपना जीवन बेकार कर लेता है तो में कुर्सी बचाने के चक्कर में दाँव पर दाँव खेले जा रहा हँू।
आय था गुरु की शरण में बड़ा उद्देश्य लेकर लेकिन घटिया व घिनौनी हरकतों में उलझ गया हँू। परिव्रज्या परम्परा का अर्थ हैजो जहाँ है वहाँ से हट जाए। जैसे स्क पानी सडने लगता है वैसे एक जगह चिपका व्यक्ति भी अपने आस पास के वातावरण के प्रदूषित करने लगता हैं।
कही पर देख लीजिए जहाँ बीस पचास लोग चार पाँच से अधिक एक जगह टिके वहाँ groupise व राजनीति होनी प्रारम्भ हो जाएगी। इसलिए सरकारी अधिकारियों के तबादले होते है। राजनीति में लोग एक सरकार के अधिक समय नहीं बर्दाशत करते। परन्तु धर्माधिकारी घर की सुख सुविधा छोड आश्राम की सुख सुविधाओं में उलझ कर रह जाते है इसलिए हर तीन वर्ष पश्चात् हर जगह कुछ परिवर्तन होता रहे तो सभी कार्य सुचारू रूप से चलते है व व्यक्ति भी आध्यात्मिक उन्नति कर पाता है।
निवेदन
यही है कि व्यक्ति अपनी भौतिकता न छोड़े। मैं ही सबसे अच्छा प्रवचन दे सकता हँू, मैं ही सबसे बड़ा साधन हँू मै ही इस कुर्सी के लायक हँू, ये सब भवनाएँ मनुष्य साधना में विघ्न पैदा करती है व उसको नर्क के गर्त में धकेलती हैं।
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