साधना
के
सात
सोपान एवं चक्रव्यूह भेदन
1. उत्तम स्वास्थ्य
2. उचित जीविकोपार्जन की व्यवस्था
3. प्रारब्ध भोग का भुगतान
4. साधनात्मक वातावरण
5. मानसिक क्लेश का समाधान/उचित मनोभूमि का निर्माण
6. पारिवारिक व सामाजिक विघ्न
7. सूक्ष्म जगत की आसुरी शक्तियों से संघर्ष
सुनते है महाभारत में कौरवों ने चक्रव्यूह की रचना की जिसके सात द्वार होते थे। जिसमें अन्दर घुसना तो सरल था परन्तु बाहर निकल पाना कठिन।
प्रारब्ध
भुगतान
जब तक व्यक्ति पुराने कर्मो का भुगतान न कर लें एवं नए न बढ़ाए तब तक लक्ष्य प्राप्ति कठिन है। साधक को समत्व में रहने का निर्देश दिया जाता है। कारण यह है कि प्रारब्ध भुगतान में जीवन में उल्टी सीधी परिस्थितियाँ आएगी। जितना सम रहकर उनको सह लिया जाए उतना अच्छा अन्यथा नया कर्मफल का बोझ वदना प्रारम्भ हो जाएगा।
उदाहरण
के लिए प्रारब्घ वश यदि जीवन में अपमान का समय आए। कर्इ दिन साधक को अपमान की परिस्थितियों का सामना करना पड़े। यदि उसमें बदले की भावना आ गयी तो वह उसी में उलझ जाएगा। यदि negativity (नकारात्मक ऊर्जा) का घेरा बन गया तो नया प्रारब्ध तैयार हो जाएगा। इसलिए जहाँ आवश्यकता हो प्यार से कही फुफकार से ओर कही बेश्रम बनकर चुपचाप सहन करने से काम चलाना होता है।
इसी प्रकार जीवन में कभी मान का समय आए ओर व्यक्ति का अंह जगज ाए तो वह उसमें उलझ जाएगा। अपने आपको बड़ा श्रेष्ठ दिखाने के चक्कर में दिमागी घोड़े दौडएगा, कैसे उसको अधिक प्रतिष्ठा मिले लोग उसकी प्रंशसा करें। मन की कमजोरी है प्रंशसा आदमी को प्रिय होती है। यदि विनम्रतापूर्वक उसको ग्रहण किया परमात्मा की कृपा व सहारे को याद किया तो वही प्रंशसा प्रोत्साहन बन जाती है। यदि ऐसा न हुआ तो अंह का क्रीड़ा घुसा ओर उसके साथ र्इष्र्या, द्वेष, छल, कपट भी भीतर घुसने को तैयार रहते है। यह पता ही नहीं चलता कि कितनी तेजी से साधक का पतन हो गया। वर्षों की गर्इ मेहनत खाक में मिलती हमने बहुतों की देखी है। ऋषि सिद्धियों के स्वामी तक थोड़ी से ना समझी से शून्य (Zero) पर आ जाते है।
अलग-2
व्यक्ति का प्रारब्ध अलग-2 होता है जो साधना मार्ग में बाधा उत्पन्न करता है। कर्इ बार ऐसा होता है जैसे टयूब बेल का गडूढा खोद रहे है, काफल दूरी तक आराम से खुदता गया अचानक बड़ा कठोर पत्थर नीचे आ गया, न छोड़ते बन रहा न खोदते बन रहा। साधना में तेजी से प्रगति हो रही परन्तु अचानक कोर्इ जाति प्रारब्ध ऐसे अड़ जाता है। आगे बढ नहीं पाते, पीछे हटने को मन नहीं तैयार होता वही गाड़ी घुर्र-घुर्र करती रहती है।
बहुत से साधक प्रारब्घों का भुगतान करने के लिए मौत से भी खेल जाते है। र्इसा सूली पर चढ़े, मीरा विष पी गयी, कबीर दास जी को बादशाह सिकन्दर लोदी ने जजीरों में जकड़ गंगा में डलवा दिया, इतिहास मरा पड़ा है ऐसे किसको दें। एक घटना का वर्णन करना रूचिकर है।
हिमालय
में सिद्ध पुरुषों की एक मण्डली घूमती है जिसका नेतृत्व महावतार बाबा करते है। बाबा जी को अन्य अनेको नामों जैसे त्र्यम्बक बाबा, श्री सर्वेश्वरानन्द जी, महामुनि बाबा, शिव बाबा आदि के नाम से जाना जाता है। अलग-2 नाम रूपों में ये बाबा अलग-2 साधको को दर्शन देते है। यहाँ तक कि जिसको जो प्रेरणा होती है वो इनका वही नाम रख देते है। एक साधक उनके दर्शन की इच्छा से वर्षों हिमालय में खोज बीन कर रहा था। कठिन प्रयासों के उपरान्त एक जगह बाबा जी की मण्डली दिखायी दी। वह दौड़कर उनके चरणों में लौट गया व उनसे दीक्षा लेकर उनकी मण्डली में शामिल होने की जिद करने लगा। बाबा जी ने स्पष्ट मना कर दिया कि आध्यमिक विकास की इस अवस्था में वो उसको शिष्य नहीं बना सकते। साधक बहुत निराशा हुआ व कहने लगा कि यदि ऐसा नही हुआ तो वह पर्वत से नीचे कूदकर अपनी जान दे देगा। बाबा जी ने कहा, ‘यदि ऐसा ही करना है तो करो’। वह व्यक्ति पर्वत से नीचे कूद गया व मृत्यु को प्राप्त हुआ। बाबा जी ने तुरन्त अपने शिष्यों के उसका शव लाने का आदेश दिया। उसको जीवित किया गया व मण्डली में शामिल किया गया।
व्यक्ति
ने बाबा जी से प्रश्न किया कि आपने पहले क्यों नहीं उसको स्वीकार किया। बाबा जी बोले पुराने जन्मों के बुरे कर्मो का भारी बोझ तुम्हारे ऊपर लदा था इस कारण तुम साधना के लायक नहीं थे परन्तु उस जीवन का अन्त होने से वह बोझ उसके साथ कट गया। अब यह एक प्रकार का नया जन्म है जिसमें वह बोझ रहित है व मण्डली में सम्मिलित हो सकता है। यह बड़ी ही विस्मय में डालने वाली बात है कि यदि भगवान तुल्य महावतार बाबा जी के दर्शन हो गए फिर भी कर्म नहीं कटे। कहते हे भगवान के दर्शन व्यक्ति को निष्पाप बना देता है दिव्य लोक प्रदान करता है कहते हे यदि व्यक्ति का कुछ क्षण भी ध्यान लग जाए तो अधिक शक्ति प्राप्त होती है।
जहाँ तक लेखक का अनुभव है इन कथाओं में अतिश्योक्ति है अर्थात् बढ़ा चढ़ा कर बाते लिखी गयी है। इसमें कोर्इ दो राय नहीं है कि देव दर्शन व ध्यान से प्रारब्ध की मार झेल रहे व्यक्ति को काफी शक्ति प्राप्त होती है। जिससे वो कठोर प्रारब्घ को झेलने में सक्षम बन पाता है। परन्तु प्रारब्ध की मार सबके झेलनी पड़ती है यह इस दृष्टि का नियम है।
महात्मा
बुद्ध बहुत तेजी से साधना मार्ग पर बढ़े उसमें पुराने प्रारब्ध अड गए। उनका शरीर अस्थियों का ढाँचा रा गया। उनको संकेत मिला इतनी तेजी ठीक नहीं अन्यथा मारे जाओंगे।
प्रारब्धों
का भुगतान धीरे-धीरे ही करना ठीक रहेगा। जाति प्रारब्धों को काटने में कर्इ बार दो तीन साल भी लग जाते है। इस समय व्यक्ति को ऐसा लगता है जैसे वो बचेगा नही अथवा अपंग हो जाएगा (अर्थात् कोर्इ अंग खराब हो जाएगा) व्यक्ति को ऐसे बुरे समय में हिम्मत नहीं हारनी होती व यह आत्म विश्वास बना कर रखना होता है कि यह बुरा समय निश्चित रूप से पुराने पाप कर्मो के लेकर कट जाएगा। आने वाला समय उज्जवल होगा। साथ-साथ विवेक एवं मानसिक शक्ति से कठिन परिस्थितियों अथवा रोगों का तोड़ ढूढंता रहे। परमात्मा से प्रार्थना करता रहे उसको संकेत मिलते रहेंगे। यदि व्यक्ति संकेतो के समझाया उस पर चलता रहा तो र्इश्वरीय सहायता से शीघ्र भुगतान में सफल होगा। एक छोटी कहानी यहाँ प्रस्तुत की जा रही है कि कैसे एक व्यक्ति अपनी सूझबूझ से अपने ऊपर आयी घोर विपत्ति को टाल ले गया।
एक बार एक राजा को किसी ने आकर सूचना दी-’राजन्, आपके राज्य में एक बहुत ही अपशकुनी व्यक्ति है। अगर उसकी कोर्इ शक्ल देख ले, तो उसे पूरा दिन भोजन नसीब नहीं होता।’ राजा को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा- ‘हम इस बात की पुष्टि करना चाहेंगे। कल सुबह-सुबह उसे हमारे राजदरबार में पेश किया जाए। हम भी तो देखें कि उस महानुभाव के दर्शन करने के बाद हमें कौन भोजन करने से रोकता है!’ अलगे ही दिन उस व्यक्ति को राजदरबार में पेश किया गया। राजा ने उसका चेहरा बहुत ही गौर से देखा और फिर उसे वापिस भेज दिया। उसके बाद संयोगवश, कोर्इ ऐसा राजकार्य आ फंसा कि राजा का पूरा दिन उसे ही सुलझाने में लग गया। सुबह से कब संध्या की लालिमा आकाश पर छा गर्इ, पता ही नहीं चला।
शाम को जब राजा अपने कक्ष में लौटा, तो उसे अहसास हुआ कि आज पूरा दिन वह भोजन नहीं कर सका। तुरन्त राजा के मस्तिष्क में उस व्यक्ति का चेहरा कौंध गया। उसने उसी समय सेवकों को आदेश दिया- ‘कल उस व्यक्ति को फिर से राजदरबार में पेश किया जाए।’
अगले दिन... वह व्यक्ति हाथ बाँधे राजा के सामने खड़ा था। राजा ने कड़कती हुर्इ आवाज में कहा- ‘नि:सन्देह, तुम अत्यंत अपशकुनी हो। कल तुम्हारी शक्ल देखकर मुझे पूरा दिन भोजन नसीब नहीं हुआ। इसलिए मैं तुम्हें मृत्युदंड देता हँू। मृत्युदंड!’ परन्तु वह व्यक्ति अपने आप को हीन, अभागा, अपशकुनी मानने को बिल्कुल तैयार नहीं था। उसने नम्रतापूर्वक राजा से कहा- ‘हे राजन्! मैं मानता हँू कि कल मेरी शक्ल देखने से आपका एक दिन का भोजन छिन गया। परन्तु यह भी तो सच है कि कल आपकी शक्ल देखने से मेरा तो जीवन ही छिन गया। तो बताइए, हम दोनों में से कौन ज्यादा अपशकुनी है?’ राजा से कुछ बोलते न बना और उसकी सज़ा माफ कर दी गर्इ।
ज़रा गौर करें, अगर उस व्यक्ति में आत्म-विश्वास न होता, तो क्या वह कभी अपनी जिन्दगी को राजा से छीन कर वापिस ले पाता? तभी तो स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था- ‘मनुष्य की दुर्बलता से अधिक भयंकर और कोर्इ पाप नहीं है।’ यहाँ संकेत शारीरिक दुर्बलता की ओर नहीं, बल्कि मन की दुर्बलता की ओर है। सरल सा नियम है, जो स्वयं को ठोकर मारता है, दुनिया उसे कुचल कर आगे बढ़ती है। परन्तु जो आत्म-विश्वास का आलिंगन करता है, सफलता उसकी बाट जोहती है। चक्रव्यूह के सात द्वारों में प्रारब्ध भुगतान का द्वार प्रमुख भूमिका निभाता है। यह द्वार कुछ साधको के लिए दुर्भल होता है व कुछ के लिए थोड़ा सरल। वैसे तो जिनके प्रारब्ध अच्छे होते है वो साधना मार्ग पर कम ही चलते है। अधिकतर परेशान, दुखी व्यक्ति ही इस मार्ग का अवलम्बन करते है परन्तु उनको प्रारब्धों की दीवार आगे बढ़ने से रोक देती है। हथौड़े पर हथोड़ा दीवार पर मारते है व धीरे-धीरे वह दीवार गिर जाती है एवं यह द्वार जीत लिया जाता है।
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