आम तौर पर समाज में यह मान्यता प्रचलित है कि सिद्ध पुरुषो की कृपा पाने के लिए उनकी पूजा, अर्चना, चरण वन्दना करनी होती है अथवा उनसे दीक्षित होना पड़ता हैं। जब मैं छात्र जीवन में था तब मेरे मन में एक प्रश्न उठता था कि देवशक्तियाँ क्या चापलूसी पसन्द करती है मेरी अन्तरात्मा से उत्तर मिलता था नहीं। फिर ऐसा क्यों है कि व्यक्ति अपने कर्मो व आचरण को शुद्ध करने का प्रयास नहीं करता, अपितु मन्दिरो, गुरुद्धारों, पीर पैगम्बरो से मनौतियां (help), मांगता घुमता है। 1990 में जब मैं R.E.C. Kurukshetra में Computer Department में Lecturer लगा तब मेरे मन में बड़े पैमाने पर धार्मिक आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन की इच्छा का उदय हुआ। इसी क्रम में श्री राम आचार्य जी का साहित्य भी मिला। उससे पता चला कि साधना, पूजा पाठ कर्म काण्ड का उद्देश्य मानव के अंत:करण को निर्मल बनाना ही है।जैसे-2 मानव मन शुद्ध व पवित्र होता जाता है वैसे-2 व्यक्ति की पात्रता दैव कृपा धारण के लिए बढ़ती जाती है। कहते है
‘‘मन चंगा तो कटौती में गंगा‘‘
मन की पवित्रता के लिए माध्यम कुछ भी हो सकता है- कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग, ध्यान योग, जप योग आदि-2। इनमें से कर्म योग को सबके लिए आवश्यक व सरल कहा गया हैं। क्योंकि व्यक्ति को जीवन निर्वाह के लिए कोर्इ न कोर्इ कर्म अवश्य करना होता है। यदि हम कर्म योग साध लें तो अन्य योग स्वत: आत्मा में प्रकाशित हो जाते हैं। यदि कर्म गलत करते रहें और उनको सुधारने का प्रयत्न न करें तो अन्य ज्ञान, ध्यान कुछ भी फलीभूत नहीं हो पाएगा। इसलिए भगवदगीता को निष्काम कर्म योग का शास्त्र माना जाता हैं।
हम यहां एक ऐसे व्यक्ति का उदाहरण देने जा रहे हैं जिन्होने रोगियों की सेवा भाव से चिकित्सा करते-2 महान शक्तियों व सिद्धियों के धनी नीम करौली के बाबा का हृदय जीत लिया। जबकि वो उनको जानते तक न थे। नीम करौली के बाबा का अदभुत व्यक्तित्व था। बड़े-2 राजनेताओं से लेकर गरीब जनता उनके दर्शन व आशीर्वाद के लिए ललायित रहती थी। आगन्तुको में अहं व कुटिलता की गंध आते ही बाबा उनसे नहीं मिलते थे। एक बार गुलजारी लाल नन्दा जी उनसे मिलने गए। बाबा ने उनसे मिलने को मना कर दिया। यदपि नंदा जी बड़े धार्मिक भी थे व राजनीति में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त थे, परन्तु न मालूम बाबा को क्या बात बुरी लगी। बहुत
चाहने पर भी नंदा जी को मायूस होकर वापिस लौटना पड़ा। किसी-2 से बड़े प्रेम से लम्बे समय तक बात करते थे और किसी-2 को देखकर कम्बल में मुहं छिपा लेते थे। बाबा अक्सर एक कम्बल ओढ़ कर रखते थे।
नीम करौली के बाबा एक बार इलाहबाद आए। भक्तों व रोगीयों की भीड़ उनके पास बड़ी संख्या में जुट गयी। इलाहबाद में एक होम्योपैथिक चिकित्सक ड़ा ब्रहमास्वरुप सक्सेना उच्च् न्यायालय के समीप अपने घर पर ही रोगीयों को सस्ती व अच्छी चिकित्सा करते थें उनकी पत्नी अक्सर उनको अधिक धन कमाने के लिए प्रेरित करती, गरीबी का रोना रोती थी। परन्तु ड़ा साहब शान्त भाव से पत्नी के तानो को सह लेते व रोगीयों की बड़ी सहृदयता से सेवा करते थे। एक बार उनके क्लीनिक में विचित्र तरह के रोगियों का आना हुआ। एक दिन तो एक ऐसा रोगी आया, जिसकी दोनों आँखें चेहरे से बाहर निकल आर्इ थीं। सक्सेना जी ही उसे देखकर घबरा गए, क्योंकि यह तो सर्जरी का केस था। वे रोगी से बोले आप किसी सर्जन के पास चले जाइए। मेरे पास इसका
कोर्इ समाधान नहीं है। मेरी दवा से भला आपका कैसे भला हो सकता है। रोगी ने कहा- डॉक्टर साहब! आप ही मेरी चिकित्सा करेंगे और मैं आप से ही दवा लूँगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि दवा खाने के बाद मैं स्वस्थ हो जाउँगा। सक्सेना जी ने कहा - मेरी दवा में कोर्इ जादू नहीं है और न ही मैं कोर्इ जादू टोना जानता हुँ, जो तुम्हें ठिक कर दूँगा। रोगी ने कहा- आप निश्चिन्त होकर देवा दें, क्योंकि हमारे इष्ट एवं आराध्य बाबा नीम करौली ने कहा है कि आपकी दवा से हम स्वस्थ एवं प्रसन्न हो जाएँगे।
सक्सेना जी बड़े असंमजस में पड गए। जैसे-तैसे उन्होंने उसे दर्दनिवारक अर्निका की गोलियाँ दे दी। रोगी ने जैसे ही उसे खाया, उसकी आँखे अंदर धँस गर्इ और उसका भयावह चेहरा शान्त एवं सौम्य हो गया। उसे देख वहाँ सभी लोग हैरान एवे हतप्रभ थे इस घटना के पश्चात उनके यहाँ असाध्य रोगियों का आवागमन बढ़ गया। सभी असाध्य रोगी कहते कि उन्हें बाबा नीम करौली ने भेजा है। सक्सेना जी की मिठी गोलियों से वे न केवल स्वस्थ होते थे। बल्कि उनका स्वास्थ्य सामान्य रोगियों की तुलना में शीघ्रता से सुधरता था। सामान्य रोगी देरी से ठीक होते थे और असाध्य रोगी जल्दी स्वस्थ होत थे। यह जानकर सब असमंजस में पड़ जाते। सबसे हैरानी की बात तो यह थी कि डॉ सक्सेना बाबा से सर्वथा अपरिचित थे। वे उन्हें कहीं से भी नहीं जानते थे, पंरतु इस घटना से उनके अंदर श्रद्धा एवं विश्वास का अंकुरण होने लगा।
एक दिन अचानक सक्सेना जी की क्लीनिक में एक व्यक्ति प्रविष्ट हुए। वह व्यक्ति नंगे पैर थे “वेत धोती एवं कम्बल ओढ़े थे। उन्नत ललाट, जाज्वल्यमान आँखे तथा चेहरा दिव्य कांति से सराबोर थे। उनकी बोली ऐसी थी कि बस, सुनते ही रहने का मन करता था। उन्होंने डॉक्टर सक्सेना जी से कहा- मैं अपनी हथेली में कुछ गरमी सी महसूस कर रहा हूँ। कोर्इ दवा तो दे दो। सक्सेना जी ने इस व्यक्ति से उसके संदर्भ में कुछ पूछना चाहा। उस व्यक्ति ने कहा- सक्सेना जी! ये सब पूछने वाली बाते हमें पसन्द नहीं। आप तो हमें जो समझ में आए वो दवा दे दो और हाँ! ध्यान रखना, फिर हम आपके पास दोबारा कभी नहीं आएँगे, इसलिए अधिक मात्रा में दवा दो। बाबा जी ने सक्सेना साहब सें कुछ बातें की और दवा उठाकर चल दिये। बाहर जाते ही उन्हें दो मरीजों ने पहचान लिया। यह बात आग की तरह आस-पास फैल गयी और उनके दर्शनों के लिए भीड़ जुटने लगी। मरीजो ने डॉ साहब को बताया ये ही नीम करौली के बाबा है जिनकी आलौकिक शक्तियाँ पूरे देश में यहाँ तक कि विश्व में इतनी अधिक प्रकाशित हुयी कि उनका नाम किसी से अनजान नहीं रहा।
बाबा जी हनुमान भक्ति, करते-2 हनुमानमय हो गए थे। वह कहा करते थे कि हनुमान जी इस युग के जीवन्त देव हैं। उन्हें भाव भरे हृदय से पुकारें, तो प्रत्यक्ष खड़े हो जाते हैं। इंसान हृदय से पुकारे तो कुछ भी असम्भव नहीं रह जाता है, परन्तु पुकार ही तो नहीं पाता है। व्यर्थ की उलझनों में उलझा अपना जीवन नष्ट करता रहता है।
सक्सेना जी का हृदय इस बात से ग्लनि से भर गया कि स्वयं भगवान उनके द्वार पर आया और एक घंटे से अपनी बारी की प्रतीक्षा में बाहर बैठा रहा वे उन्हें पहचान न सकें। इसके पश्चात उनका जीवन ही बदल गया उनकी सारी चिन्ताएँ दुख दर्द सदा के लिए शान्त हो गए। उनके हृदय में भक्ति की अनावरत धारा बह उठी। वे अब बड़े भावपूर्ण से मरीजों की सेवा में जुट गए।
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