संतोष
साधना का दूसरा चरण आरंभ होता है, जिसमें साधक के लिए सकारात्मक निर्देश होते हैं और उनमें सर्वप्रथम है संतोष। जिन परिस्थितियों में भी हमें रखा गया है जो कुछ हमें दिया गया है उससे हमें संतुष्ट रहना सीखना चाहिए। इसका यह मतलब भी नहीं है कि हमें अपनी दशा सुधारने का प्रयास नहीं करना चाहिए और इसका यह अर्थ नहीं है भाग्यवादी बनकर हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि जो कुछ है उसका होना अनिवार्य है। नहीं योग का समूचा दृष्टिकोण ही इसके विपरीत है। संतोष का अभिप्राय है- दूसरों की बराबरी करने के लिए उद्विग्नता, उत्तेजना और विक्षोभ से अभिभूत न होना। लोग दूसरों से होड़ लगाने के जोश में फंस जाते है। स्पर्धा के द्वारा सफलता की ओर आगे बढने की कोशिश करते है। तो एक आध्यात्मिक जिज्ञासु से कहा गया है कि वह अपनी शक्तियों को व्यर्थ नष्ट न करें। उत्तेजना में स्वयं को खो न दे, ना कुछ उसे मिला है। उसे भगवान के द्वारा निर्दिष्ट मान कर स्वीकार करें। श्री मां कहती है कि जो साधक इस बात में सच्चे विश्वास के साथ अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करता है कि वे भगवान के संकल्प के द्वारा निर्दिष्ट है। उसके आध्यात्मिक विकास के लिए वे अवश्य ही सबसे अधिक अनुकूल सिद्ध होती है। अत: जब पतंजलि संतोष की बात कहते है तो उनका आशय यही है कि अभाव कि आत्म हिनता कि और कुढा कि भावना को जो सभी चीजे आत्मा को धूमिल कर देती हैं- अपने भीतर नहीं आने देना चाहिए। हमें एक प्रफुल्ल स्वभाव का निर्माण करना चहिये न तो सफलताओं पर हर्षोन्मित होना चाहिए और न असफलताओं पर व्यर्थ ही खिन्न होना चाहिए। सबसे पहले शांत- अचंचल बने रहकर जीवन बिताना हमारे लिए जरूरी है। कोर्इ भी व्यक्ति शुरू से ही संतोष की वृत्ति धारण नहीं कर सकता यह बहुत ही कठिन है पहले हमें किसी हद तक उदासीनता के भाव का विकास करना चाहिए जिसे युनानी लोगों ने तितिक्षा कहा था चाहे कुछ भी आये चला जाये, हमें धीर - स्थिर बने रहकर उसकी उपेक्षा करनी होगी। आगे चलकर यह मनोवृत्ति समता या धृत्ति में विकसित हो जाती है। जो कुछ भी होता है, उसे हम अनुद्विग्न रहकर उससे अप्रभावित रहते हुए स्वीकार करते है। यह समता स्थापित होने के बाद अगला चरण है। संतोष।
जैसा कि हम कह चुके हैं कि प्रकृति के द्वारा, प्रारब्ध के द्वारा परिस्थितियों के द्वारा जो कुछ हमें दिया गया है उसे उदासीन भाव से चुपचाप स्वीकार करना ही नहीं अपितु प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करना ही संतोष है। यह संतोष उस चीज का बीज है, जो आगे चलकर एक अविच्छिन्न आहलाद में अस्तित्व के आनंद में विकसित हो जाता है। जीवन के सभी सुख- दुखों के पीछे एक हर्ष, एक परमानंद एक आहलाद विद्यमान है। संपूर्ण सृष्टि के मूल में यही आनंद मौजूद है। हम अपनी आध्यात्मिक उपलब्धि के मुकुट मणि के रूप में इस आनंद का अनुभव कर सकते है। किन्तु उसका बीज यह संतोष ही है। यह एक वास्तविक मन:स्थिति है। जिसे स्वयं में स्वाभाविक बनाना हमें सीखना ही चाहिए।
मार्ग के रोड़े
आंतरिक सत्य की अभिव्यक्ति को जिन्होंने जीवन-लक्ष्य के रूप में चुना है, इसी शरीर में रहते हुए जिनहें नया जन्म चाहिए, जो आत्मा का साक्षात् और उसमें निवास चाहते हैं, उसी से प्रेरित होकर जीवन-मार्गो पर चलना चाहते हैं ऐसी चेतना में उठना चाहते हैं जिसमें आत्म-ज्योति झलकती हो, आत्म-सत्य प्रवाहित होता हो; उन्हें चाहिए कि वे अपनी सता के सर्वोच्च स्तर पर निवास करें । किसी भी स्थिति में जीवन के निम्न स्तरों पर न आयें। मनोरथों के जाल न बुनें। इंद्रिय-सुख की कामनाओं से, भोगों के स्पृहा से दूर रहें। अहंकार की चालों को पहचानें, उसके प्रभाव में न आयें।
अज्ञानजनित पुराना स्वभाव, उसकी अभ्यासगत वृत्तियां, अध्यात्म-मार्ग में, हमारी आत्म-उपलब्धि में बाधक होते हैं, मार्ग में राड़े हैं।
उच्चस्तरीय साधनाओं की सावधानी
इस अवतरण और इसके कार्य के क्रम में यह बात अत्यावश्यक है कि कोर्इ सर्वथा अपने ही भरोसे न रहे, बल्कि गुरू के आदेश-निर्देश का भरोसा करे और जो कुछ हो उसे विचार-विवेचन करने और निर्णय करने के लिए गुरू के आगे रखे। कारण, प्राय: ऐसा होता है कि अवतरण से निम्न प्रकृति की शक्तियां उतेजजित हो जाती है और अवतरण के साथ मिलकर उससे अपना काम निकालना चाहती हैं। ऐसा भी प्राय: होता है कि कोर्इ एक अथवा अनेक शक्तियां जो स्वरूपत: अदिव्य हैं, श्रीभगवान् या श्रीभगवती का रूप धारण करके सामने आती और जीव से सेवा और समर्पण चाहती हैं। यदि ऐसी-ऐसी बातें हो और उन्हें अपना लिया जाये तो इसका बड़ा ही भीष्ण नाशकारी परिणाम हो सकता है। हां, यदि वास्तव में साधक की अनुमति केवल भागवत शक्ति के कार्य के लिए ही हो और उसी शक्ति के आदेश-निर्देश के आगे प्रणति और शरणागति हो तो सब बातें ठीक-ठीक बन सकती हैं। यही अनुमति और इसके साथ समस्त अहंकारगत शक्तियों तथा अहंकार को प्रिय लगनेवाली सब शक्तियों का त्याग, ये ही दो बातें सारी साधना में साधक की रक्षा करती हैं। परन्तु प्रकृति के सब रास्तों पर सब तरह के जाल बिछे हुए हैं, अहंकार के भी असंख्य छदवेश हैं, अंधकार की शक्तियों की माया, राक्षसी माया अत्यंत धूर्ततापूर्ण है; बुद्धि पथप्रदर्शन का काम पूरा-पूरा नहीं कर सकती और प्राय: दगा करती है; प्राणगत वासना बराबर ही हमारे साथ रहती है और किसी भी आक”रक चीज के पीछे दौड़ पड़ने के लिए हमारे अंदर लोभ जगाती रहती है। यही कारण है कि इस योग में हम ‘समर्पण’ पर इतना जोर देते हैं। यदि हृच्चक्र पूर्णतया खुल जाये और हृत्पुरुष चाहे जब निम्न प्रकृति की वासना के क्षोभ से छिप सकता है। बहुत ही थोड़े, लोग ऐसे होते हैं जो इन संकटों से बचे रहते हैं और यथार्थ में इन्हीं लोगों के लिए समर्पण करना सहज होता है। किसी ऐसे पुरुष का अनुशासन, जो स्वयं श्रीभगवान् से तदात्मभूत हो या जो भगवान् का ही प्रतिरूप हो, इस कठिन साधना में अत्यावश्यक और अनिवार्य है।
मोक्ष रूपी परम सुख के अनुभव के लिए अचल श्रद्धा तो अवश्य चाहिए। अपने लिए कोर्इ चिन्ता न करना, सब परमेश्वर को सौंप देना, ऐसा आदेश हो सब धर्मो मे दिया गया हो।
वे बहुत सौभाग्यशाली है, जिन्हें समर्थ गुरू का संरक्षण व मार्गदर्शन प्राप्त हैं। ऐसा गुरू जो वशिष्ठ और विश्वामित्र की विशेषताओं से सम्पन्न हो, जिसने अपने प्रचण्ड तप द्वारा र्इश्वरीय सत्ता का साक्षात्कार किया हो, जो बुद्व की भाँति आत्मबल का धनी हो, रामकृष्ण की तरह जिसके अन्त:करण में भक्तिरस की धारा प्रक्पुटित होती हो, जो कृष्ण की भाँति योग विभूतियों से सुसम्पन्न हों, सचमुच जिन्हें ऐसे समर्थ गुरू का मार्गदर्शन मिल गया, समझना चाहिए कि जीवनलक्ष्य प्राप्ति के लिए की जाने वाली साधना की आधी मानित पुरी हो गयी तथा उत्तरोतर गति से आगे बढने का एक सशक आधार-अवलम्बत मिल गया।
साधना से सनातन धर्म की पुर्नस्थापना
जब तक साधना क्षेत्र में, अध्यात्म जगत में क्रान्ति नही होगी, जनमानक नही बदलेगा। हमारे स्वार्थ परस्पर टकराते रहेंगे और हम भगवदसत्ता व अपने उद्वेश्य से मीलों दूर ही होगे।
व्यक्ति चाहे स्वंय की मनोकामना पूर्ति के लिए, चाहे आध्यात्मिक सम्पदा को बढ़ाने के लिए साधक बनें। कोर्इ भी कार्य तभी सफल होता हैं जब उसके मूल में जीवन साधना हो, अध्यात्मिक पुरूषार्थ हों। जब भाव संवेदनाओं को परिष्कृत कर जीवन साधना की गति देने वाली सर्वभौमिक राष्टीय साधना-पद्वति विकसित होगी, तब सम्प्रदाय-मत-धर्म के नाम पर विभाजित इस राष्ट की सारी ताकत पुननिर्माण के पावन प्रयोजन में नियोजित हो सकेगी। वास्तविक कार्य सारे राष्ट को साधना की धुरी से जोड़ता हैं।
“यदि तुम अपने धन का, अपने खर्चो का, अपनी महत्वाकॉक्षाओं का त्याग नहीं कर सकतें वो अपनी विषय वासनाओं से ऊपर उठ पायेगें। त्याग का भाव विकसित करो। त्याग का अभ्यास करो तभी वैराग्य उत्पन्न होगा”
“अहं का विसर्जन ही भक्ति है। भक्ति में कोइ प्रतियोगिता नही होती, प्रदर्शन नही होता। हमें आहुति देनी हो तो ह्रदयकुंड में अहं की देनी चाहिए।“
पुस्तकें न केवल मनुष्य शक्तियों को विकसित करती हैं अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र दु:ख-सुख में मित्र, साथी व मार्गदर्शक बनती हैं।
“इतना मत खाओ कि तुम्हारा शरीर आलसी हो जाए।
आज का व्यक्ति चतुर ज्यादा हैं समझदार कम।।”
“हम सहिष्णु बने, उदार बने लेकिन सहिष्णुता और उदारता के नाम पर कायरता को पोषण देने वाले न हो।”
बडप्पन सूटबूट और ठाटबाट में नही हैं, जिसकी आत्मा पवित्र हैं वही बड़ा हैं।
No comments:
Post a Comment