साधना मार्ग का चयन
1. नकारात्मकता का परित्याग
2. अन्त समय तक सावधानी
3. मर्यादापूर्ण आचरण
महत्वपूर्ण निर्देश
नकारात्मकता का
परित्यागः- शायद ही कोई ऐसा साधक आया हो जिसके जीवन में समस्याएँ न आयी हो, जिसने मुसीबतों का सम्मना न किया हो, जिसका उपहास न उड़ाया जाता हो परन्तु इसके
बावजूद भी साधक से यह आशा की जाती है कि वह अपनी सद्भावना न छोड़े। साधक धैर्यवरा, गम्भीर, व समत्व के भावों से स्ंवय के व्यक्तित्व का
निर्माण करें। छोटी-2 बातों में यदि वह आवेश में आएगा अथवा अपनी साधना की ऊर्जा के
खर्च कसे लगेगा तो उसकी साधना को छमहंजपअम कपतमबजपवद में जीन में देर न लगेगी।
स्थिति क्या हो सकती है इसका आंकलन इस छोटी घान्त से किया जा सकता है।
एक बार एक दुष्ट
व्यक्ति एक उच्च स्तरीय साधक को तंग करता था। साधक स्वंय पर सयंम रखने का प्रयास
करता रहता था। परन्तु एक बार जब साधक तीन घंटे जप करने के उपरान्त घूमने निकला तो
वह दृष्ट व्यक्ति सामने आकर कुछ-2 उल्टा सीधा बोलने लगा। साधक का मूड किसी कारण से
घर में ही खराब था। आज उसकी सहन सीमा पार हो गयी उसने दृष्ट के श्राप ये दिया ‘जा तुझे राक्षस योनि मिलें’। वह दृष्ट तुरन्त ही राक्षस बन गया। राक्षस
बनते ही सर्वप्रथम उसने साधक पर आक्रमण किया व साधक को मार डाला।
यह कहानी एक
अंलकारिक चित्रण भी हो सकती है। परन्तु यह एक गहरा गर्म व्यक्ति के दे जाती है।
यदि साधक ने अपनी ऊर्जा का छमहंजपअम प्रयोग किया तो कुछ समय पश्चात् वह उसके लिए विनाशकारी
सिद्ध होगा।
‘सद्भावना हम
सबमें जगा दो, पावन
बना दो हे देव सविता’ साधक यह प्रार्थना व मनोभूमि बना रखें कि उसका अन्तःकरण सद्भावों से सदा
पूरित रहें।
परम पिता परमात्मा की इस जगत में सभी सन्तानें
हे कुछ लायक हे कुछ नालायक हे यह हमारा प्रारब्ध हे कि वो हमें किस प्रकार की संगत
प्रदान करता है। लेकिन हें सभी हमारे भाई बहिन हो। जैसे-2 हमारे प्रारब्धों का बोझ
हल्का होगा हमें बहुत प्रेम करने वाले परिजन मिलने मिलेंगे न हमारा जीवन धन्य हो
जाएगा।
परन्तु एक कठिन
पडाव हमें ऐसा मिल सकता है जिसमें हम अपने को सहज न महसूस कर पाँए। आस पास ऐसे
व्यक्तियों का संग हो जो हमारे लिए दुःखदायी हो व हमें परेशन करता रहता हो। परन्तु
इस पडाव को पार करने के उपरान्त एक सुखद आनन्ददायक पडाव भी पड़ता है जिसे पाकर
साधक निहाल हो जाता है। सावधानी दोनों जगह रखनी है। कष्टदायक परिस्थितियों में हम
घृणा निराशा में न जा फँसे व आानन्ददायक स्थिति में हम भोग विलास में न डूब जाएँ।
अपना विवेक वैराग्य व परमात्मा की कृपा दोनों मिलकर हमें सही मार्ग पर चला सकते है।
अन्त समय तक
सावधानीः- साधक कई बार कुछ विषयों में पांरगत हो जाता है व अनेक बातों में लापरवाह
हो सकता है। परन्तु कई बार नियमों का उल्लंघन उसके लिए घातक भी सिद्ध हो सकता है।
जैसे-2 व्यक्ति ऊपर उठता है उसके पत्तन के अवसर भी उतने ही बढ़ जाते है।
शास्त्र व
महापुरुष इस विषय में प्रस्तुत करते है- (युग गीता डा. प्रणव से ली)
मनु
कहते है-
मात्रा
स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्।
बलवानिन्द्रियग्रामो
विद्वांसमपि कर्षति।।
अर्थात्-
‘‘मनुष्य
को चाहिए कि वह माता, बहिन और अपनी लड़की के विषय में भी सावधान रहे, क्योंकि
इंद्रियाँ बलवान् होती हैं और मौका पड़ने पर विद्वान् को भी खींच ले जाती है।’’
भगवान्
श्रीकृष्ण कहते हैं-
इन्द्रियाणां
हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य
हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।। (2/)
अर्थात्
‘‘जैसे जल
में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है,
वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में
से मन जिस इंद्रिय के साथ रहता है,
वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को
हर लेती है।’’
यह
श्रोक कई मायनों में विशिष्ट है। संत ज्ञानेश्रर कहते हैं- यह श्रोक खतरे की घंटी
का सूचक है। बताया गया है कि मनुष्य भले ही लगभग स्थितप्रज्ञ हो गया हो, तो भी
उसे असावधान नहीं रहना चाहिए। वे लिखते हैः-
प्राप्ते
हि पुरुषे। इंद्रियें लालिलीं जरी कवतिकें।
तरी
आक्रमिला जाण दुखें। सांसारिकें।
मराठी में वर्णित इस कथन का
भावार्थ है कि ‘‘पहँुचा हुआ पुरुष (आप्त पुरुष) भी यदि कुतूहल
से इंद्रियों को दुलराए तो उस पर प्रापंचिक दुःखों का आक्रमण हुआ ही समझों।’’
मर्यादापूर्ण
आचरणः- साधक सदा अंहकार रहित होकर मर्यादापूर्ण आचरण करे। अधिकतर यह देखा जाता हे
कि व्यक्ति के पास कोई प्रतिभा अथवा सिद्धि साधना से आयी तो उसका अंहकार जगना शुरू
हो जाता है। जैसे ही अंहकार का द्वार खुलता हे छमहंजपअम मदमतहल का आगमन होने लगता
है। एक कठिनाई ओर आती है साधक कई बार स्वाभिमान की आड में अंहकार की फसल बोने लगता
है। परन्तु यदि साधक सावधान है व परमात्मा के द्वारा उसकी बुद्धि पे्रेरित है
(धियो यो नः प्रचोदयात्) तो उसको इन बारिकियों से अन्तर नजर आ जाता है।
अंहकार बड़ा सूक्ष्म होता है व अपने साधक के
उलझाने के लिए तरह-2 के जाल बुनता है। कुछ उदाहरण यहाँ दिया जा रहे है- एक साधक को
बच्चे कई बार बीमार होते थे वो बड़े गर्व से अपने बच्चों के रोगो के ठीक होने में
ईश्वर कृपा का जिक्र करते। कभी-2 उनके मन में यह अभिमान जगता हे कि हम तो साधक है
हमें तो ईश्वर कृपा मिल जाती है। दूसरे सामान्य व्यक्तियों को कृपा क्यों मिले।
देव सत्ताओं को उसका यह अभिमान पसन्द नहीं आया व उसके बच्चे बार-2 बीमार पड़ते। इस
बात से साधक दुखी होने लगा। गहराई से विचार करने पर उसे कारण का पता लग गया। अब
उसने ईश्वर कृपा के दर्प के दूर किया। इस जन्म से ग साधक है क्या पता ल पुराने
पाँच जन्मों में साधक रहा हों ल को ईश्वर कृपा क्यों न मिले। साधक अब सबके लिए
ईश्वर की दुआ सच्चे मन से माँगने लगा व सुखी हो गया।
एक साधक का बच्चा
पड़ा प्रतिभाशाली व सदगुणी था। साधक अक्सर लोगो से कहता कि उसके पुण्य व तप के
परिणाम स्वरूप उसके ऐसी दिण्य सन्तान मिली है परन्तु परमात्मा के यह मंजूर नहीं
था। वह बच्चा धीरे-2 अपनी प्रतिभा खोने लगा। साधक ने जब दुःखी होकर इस पर गहराई से
विचार किया तो कारण का पता चला। अ बवह परमात्मा से यह प्रार्थना करता ‘हे परमात्मा में किसी लायक नहीं हँू फिर भी
कृपा करके आपने जो दिया हे उसको आप ही सम्भलिए उसकी रक्षा करिए। जो लायक सन्तान
आपने हमें दी हे वैसी आप सबको देना।’ धीरे-2 करके सब कुछ ठीक होता चला गया।
कठिनाई यह है कि
जब इस प्रकार के भाव के उदय हो कि मुझे तो मिल जााए दूसरे को न मिलें ताकि मेरा
मान सम्मान बढ़ें। यही से व्यक्ति के पतन का मार्ग आरम्भ होता है।
यही से हम
गायत्री मन्त्र की चसनसवेवचील के विपरीत होने लगते है। गायत्री कहती हे कि भगवान
सबको दें, सबको
लायक बना सबकी बुद्धि परमात्मा प्रेरित करें। जिसकी बुद्धि, जिसका जीवन परमात्मा से प्रेरित हो जाएगा क्या
वो सामान्य रह पाएगा। परमात्मा की प्रेरणा व्यक्ति की प्रतिभा का विकास करेगी।
व्यक्ति तेजी से उन्नति करेगा। अभी अंह की सूक्ष्मता को उदाहरणों द्वारा समझाने का
प्रयास किया गया। परन्तु वास्तव में असली मार्गदर्शन तो व्यक्ति की अन्तरात्मा
स्वंय करती है। गुरु सत्ता कारण में प्रेवश कर गयी हे अर्थात् वह शिष्य के
अन्तःकरण (कारण) में जाकर बढ़ने में समर्थ हैं। जैसे ही गलत भाव आएँगे, व्यक्ति के एक अजीब सी बेचेनी होना प्रारम्भ हो
जाएगी। व्यक्ति शीद्य्र ही उसकी काट ढूंढेगा अर्थात् उन गलत भावों की जगह उचित
भावों के धारण करेगा तभी उसे शान्ति मिलेगी। परन्तु यह सब एक सच्चे शिष्य के साथ
ही हो सकता हे एक साधक के साथ ही होता है। इसलिए सच्चा शिष्य गलत आचरण नहीं करेगा
क्योंकि उसकी अन्तरात्मा गुरु सत्ता के सम्पर्क के कारण इतनी सशक्त है कि साथ के
साथ, हाथ
के हाथ उसके गाल पर चाँटा मिलता है। लोग कहते हैं कि दुनिया मजे कर रही है। हम
धर्म कर्म साधना करते-2 मर गए फिर भी दुःखी है। जिसका अवचेतन अथवा अन्तःकरण जाग्रत
हे वो गलत नहीं सह पाता। सामन्य व्यक्ति लोभ अंह में डूबा पड़़ा है पर रामकृष्ण
परमंहस जी के भीतर लोभ या संग्रह का विचार आते ही हाथ पैर मुडने (ढेढे होने)
प्रारम्भ हो जाते थे। अतः जो साधना मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हे वो जीवन में कुछ
गलत करने का बिल्कुल भी न सोचें। उनका अन्तरात्मा हंस हो जाती हे दूध का दूध, पानी का पानी करके उसके समाने रख देती है।
अर्थात् केन से भव गड़बड हे केन से सही इसका आभास तुरन्त हो जाता हे। यदि
कुःसंस्कारो वंश अथवा वातावरण के कारण वो गलत भावों के ग्रहण करने का प्रयास करते
है तो शीद्य्र ही अन्तरात्मा कठोर दण्ड़ देने लगती है। सुपर चेतन कोई भी कार्मिक
ब्लबसम बनाने के लिए तैयार नहीं हे, बेगपूर्वक मोक्ष की ओर आत्म ज्ञान की ओर, ब्रह्ममानन्द की ओर साधक के धकेल रहा है।
सामान्य व्यक्ति
के साथ ऐसा नहीं हे उसके ऊपर कर्मो का मर चढ़ता रहता है। बहुत वर्षो या अगले जन्म
में उसका परिणाम फल मिलेगा। परन्तु यदि कभी भी उसकी आत्म जाग गयी तो यह भुगतान
कार्य आरम्भ हो जाता है। कुछ चर्चा स्वाभिमान को लेकर भी आवश्यक हे एक बार एक
अच्छा अंग्रेज व्यक्ति रेल से यात्रा कर रहा था। तभी एक प्लेट फार्म पर छोटी बच्ची
छोटी टोकरियाँ लेकर उसके पास बेचने आयी। अंग्रेज ने पूछा ऐसा क्यों कर रही हो इतनी
छोटी उम्र में उसने बड़े सरल भाव से बताया कि घर में छोटे बहन है माँ बाप टोकरी
बनते है वह बेचती हे नहीं बिकेगी तो शाम के समय सब भूखे रहेंगे। अंग्रेजी व्यक्ति मासूम
बच्चे को पैसे देता है कि गरीब परिवार की मदद हो जाएगी। बच्चा पैसे लेने से मना कर
देता है कि उसे भीख नहीं चाहिए। अंगेज दंग रह जाता है वह न चाहते हुए कुछ टोकरियाँ
ले लेता है व बच्चा तभी पैसे लेता है। यह था भारत का स्वाभिमान जो आज नष्ट होता जा
रहा है। इस छोटी-2 चीजों के लिए अपने बाँस की चापलूसी करते है अपने स्वार्थो की
पूर्ति के लिए तरह-2 के हथन्डें अपनाते है फिर सोचते है कि हमें ब्रहमवर्चरू की
प्राप्ति हो? यह कैसे सम्भव हैं? साधक के लिए आवश्यक है कि स्वाभिमान जगाए अंहकार के पनपने से रोके तथा दोनो
में अन्तर करना सीखें।
No comments:
Post a Comment