भारत व भारतीयों की
विडम्बना
हम अक्सर यह लिखते सुनते व पढने है कि भारत की
संस्कृति सर्वप्राचीन व सर्वश्रेष्ठ है। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा कि सम्पूर्ण
पश्चिम एक ज्वालामुखी पर बैठा है। विदेश में बहुुत तनाव व भोगवादी संस्कृति का
बोलवाला है। यह सब सुनकर मुझे लगाता है कि भारत में लोग अधिक खुशहाल होंगे क्योंकि
यहाँ कि संस्कृति सर्वोत्तम है। लेकिन जब हमारे विद्यार्थी या मित्रवर्ग विदेश
जाते है तो लौटकर भारत नहीं आना चाहते। निश्चित वहाँ का वातावरण भारत से अच्छा
लगता होगा। वहाँ की स्पअपदह ब्वदकपजपवदे भारत से अच्छी होगी। एक और बात है जब
विदेशी व उनके बच्चे हम भारत में देखते है तो वो बड़े लम्बे चोडे लगडे व सुन्दर
नजर आते है। जबकि भारत के दुबले पतले व किसी न किसी समस्या से ग्रस्त होते है।
किसी भी सच्चाई से मुँह
छिपाना सरासर (निरी) मूर्खता है। हमें बड़े स्पष्ट बुद्धि से सभी बातों का
विश्लेषण करना है। ऐसी कोन की हमारी कभी है जिस कारण हम भारतवासी पतन के गर्त में
गिरते जा रहे है। क्यों भारत हदय एंव मधुमेह जैसे घातक रोगों का हब ;भ्नइद्ध बनता जा रहा है। क्यों भारत के महिलाओं के लिए असुरक्षित
ज्वच 5 देशों की सूची में शामिल किया गया है? क्यों भारत की आधी जनसंख्या
गरीबी की रेखा से नीचे है?
मैने इस प्रश्न का एक ही
उत्तर ढँूढा है। हम भारतवासी अब अनुशासनप्रिय नहीं रहे। हमारे रक्त में स्थान-2 पर
नैतिक नियमों की अवेहलना करना घुस गया है। एक बार हम किसी धार्मिक कार्यक्रम में
लाइन में लगे थे। लाइन लम्बी थी व चल नहीं पा रही थी। मेरे आगे दो बूढी ओरते खड़ी
थी व खडे़-2 परेशानी महसूस कर रही थी। मैने उनसे आग्रह किया कि माता जी आप यही बैठ
जाइए जब लाइन बढेगी उठ जाना। उन्हें राहत
मिली व वो आराम से जमीन पर बैठ गई। मैने पीले वस्त्र पहन रखे थे व मेरे
पीछे वाले भाई ने भी पीले वस्त्र पहन रखे थे क्योंकि वह गायत्री परिवार का कार्यक्रम
था। मेरी पीछे वाले से थोडी दोस्ती भी हो गई थी। लगभग पन्द्रह मिनट पश्चात् लाइन
दो चार कदम आगे बढी। मुझसे पीछे वाला भाई तुरन्त बूढी औरतो पर चिल्लाया, ‘एक तो लाइन पहले ही नही चल रही ऊपर से तुम लोग बैठ गए’। इतना कहकर वह फट से उन बूढी ओरतो के आगे जा खड़ा हुआ। मुझसे सहन
नही हुआ मैने टोक, ‘भाई साहब वृद्व लोग अगर बैठ
गए तो हम इन्हें सहारा देकर उठा देते है। हम यहाँ कौन-सा खडे़-2 कदू में तीर मार
रहे हैं?’ इस पर वो भाई बिगडकर बोले, ‘अगर यही सब कूते रहेंगे तो
आगे नही बढ़ पाँएगे।’ मुझे क्रोध आ गया व मैने
उससे कहा, ‘‘तो आप ऐसा करे, कम से कम पीले वस्त्र न
धारण करें। कम से कम इन वस्त्रों में तो करूणा, सवोदंना श्रेष्ठ नियम धारण
करने का प्रयास करे।’’ इतना कहकर मैने उसका हाथ
पकड़कर पीछे खीचा। वह व्यक्ति अधिक बेश्राम नही था व मेरे खींचने पर पीछे आ गया।
यद्यपि उसकी समझ में आ गया था कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। पंक्ति तोड़कर आगे
नहीं बढ़ना चाहिए था फिर भी वह अपनी गलती न स्वीकार कर मुझ पर खीझने लगा। मुझसे
कहने लगा ‘तुम बहुत बोलते हो थोडा चुप रहा करो, यदि तुम्हारी तरह सब लोग
बोलेंगे तो झगड़ा खड़ा हो जाएगा, बडी कठिनाई व सबको सामना
करना पडेगा।’ कोई बात नही मैने समय की गम्भीरता के देखते हुए स्वयं को शान्त किया
उससे कहा ‘आप मरे बड़े भाई हे मुझे समझाना आपका फर्ज है, कृप्या लाइन में अपने स्थाान पर खड़े रहकर मुझे अच्छी बातें समझाएँ, में मोन रहकर सुनूगाँ।’
इस पूरी स्थिति का गम्भीरता
से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। वह व्यक्ति अच्छे स्वभाव का था अन्यथा वापिस
अपने स्थान पर व आता व मुझसे लडाई झगड़ा साथ में करता। परन्तु उसका सूक्ष्म अंहकार
उसको अपनी गलती स्वीकार करने से रोक रहा था। इसीलिए वह पीछे तो आ गया परन्तु मुझ
पर बिगड़ने लगा। यह साधको की एक बड़ी कमी होती है कि वो अपने सूक्ष्म अंहकार के ओग
घुटने टेक देते है। उनकी कमी व उजागर हो इसलिए गोल मोल बात के घुमाने लगते है।
साधना करते हुए भी उनको गोल मोल निर्देश ही प्राप्त होते है स्पष्ट नहीं। साधक
बेचारा युग की स्थिति में उलझा रहता है कि यह नहीं समझ आ रहा कि क्या सही हे क्या गलत? किस मार्ग पर चलूँ? कौन सी मन की आवाज है कौन
सी आत्म की? सब कुछ गोल मोल नजर आता है।
जिस दिन हम अपने दैनिक जीवन
में बातों के गोल मोल करना छोड़ देंगे उस दिन हमारी चेतना के पर्दे से थाले बदल हर
जाएँगे व हमें सब कुछ दिखाई देने लगेगा। किसी वे सत्य ही कहा हे- ‘सब कुछ दिखाई दे माँ इतना प्रकाश हो’ हम भारत के लोगो में
अनुशासनहीनता की एक आदत हो गई है। हम बड़ी आसानी से नैतिक नियमों के ताक पर रख
देते है। जब भी हम किसी नैतिक नियम का उल्लघंन करते है हमारी आत्मा पर एक प्रकार
का बोझ आ जाता है। कई बार व चाहते हुए नैतिक नियमों का उल्लघंन मजबूरी वश यहा-कहा
किया जाए तो आत्मा पर बोझ नहीं बनता। परन्तु जब नैतिक नियमों का उल्लघंन हमारे
स्वभाव में आ जाए हम सब कुछ गोल मोल करने लगें तब हमारी आत्मा धीरे-धीरे कुण्डित व
बोसिल होती चली जाती है।
यदि हम स्वाभिमान के साथ
नैतिक नियमों का पालन करें तो हमारी तेजस्विता बढ़ जाती है। अतः हमेशा सही मार्ग
का चयन करें। छोटे मोटे स्वार्थी अथवा इच्छाओं के झाँसे में आकर नियमों का उल्लघंन
न करे। अन्यथा हमारी पीढ़ी हमारा वंश धीरे-2 कमजोर और छोटा चला जाएगा। विदेशों में
लोगो ैवबपंस त्मसंजपवदे के भले हो अच्छे न हो उनमें धार्मिकता व आध्यात्मिकता का
अभाव हो पर उनकी एक विशेषता भी हे कि वो हमसे अधिक अनुशासन प्रिय है। पाँच दिन
ईमानदारी से अपनी डयूटी देंगे व दो दिन मौज करेंगे। इस कारण वो हमेशा अधिक समर्थ व
खुशहाल है।
हमारी दुर्गाति के सबसे बडे
दो कारण नजर आते है। पहला कारण हमारी संवेदनशील चेतना विदेशियों के प्रभाव में आ
गयी। हमने उनकी संस्कृति, उनकी सभ्यता का बुरी तरह
अन्धानुकरण करना प्रारम्भ कर दिया। हम उनके भौतिकवाद व भोगवाद से प्रभावित हो गए व
हमने अपनी मर्यादा अपना सब कुछ भूलकर उनको श्रेष्ठ मानकर वैसा दिखना व वैसा बनना
प्रारम्भ कर दिया। फूलझडी दिखती तो सुन्दर है उसकी चमक बच्चों के आकर्षित भी करती
हे परन्तु उसकी रोशनी किसी काम की नहीं होती। कुछ देर चढर मटर कर बुरी तरह वातावरण
प्रदूषित कर देती है। यही हाल पश्चिमी सम्भता का है। वह तडक मडक थोडे समय हमें लुभा
सकती है परन्तु वास्तविकता यह है वह हमें लगातार कमजोर बना रही है। सच कहा जाए तो
हमारी कमर तोड़ रही है। लेकिन देखादेखी हम फूलझड़ी जलाने को मजबूर है। जब चारों ओर
फूलझड़ी जलती दिखें तो चाहे अनचाहे हर कोई वही करने को मजबूर है। इसी प्रकार हम
ऐसी दयनीय दशा में आ पहँुचे हे कि हम उस पश्चिम की आँधी में स्वंय को रोक पाने में
अपने के असमर्थ पा रहे है।
हर जगह धन ओर चपालूसी दो का
ही राज नजर आ रहा हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहे अनचाहे इन दो का सहारा लेने के मजबूर
हो जा रहा है। क्योकि समाज में आदर्शो पर चलने वाले का मेहनत करने वालो का, गलत को गलत कहने वालो का उभर पाना दूभर हो जा रहा है। अच्छे ओर सच्चे
व्यक्तियों के पास न तो ज्यादा साधन ;त्मेवनतबमेद्ध हें न ही कोई
संगठन हैं। वो बेचारे हर स्थान पर मारे मारे फिरते है और घुटन भरा जीवन जीने के
मजबूर है। एक कठिनाई ओर हे-बुरे बुरे व्यक्ति एकदम एक दूसरे के पहचान जाते हें व
एकजुट हो जाते है। परन्तु अच्छे व्यक्तियों को यह पता करना कठिन हो जाता हे कि कौन
सही है
कौन गलत है भारत में हर
व्यक्ति ब्रहम ज्ञान व वैराग्य की बात करता है परन्तु छोटे-2 स्वार्थो के आगे ही
अपने घुटने टेक देता है। अतः सही व्यक्तियों के संगठन में अधिकतर गुड गोबर मिल
जाता है। जहाँ व्यक्ति के पद, प्रतिष्ठा, सुख वैभव का प्रलोमन दिखा उसने अपना पाला बदला। इस विडम्बना से उभर
कर एक उच्चस्तरीय संगठन खड़ा कर पाना अत्यन्त दुष्ट कार्य है। प्रचण्ड आत्मबल
सम्पन्न महामानव ही ऐसा करने में समर्थ हो सकंेंगे।
हमारे पतन का दूसरा कारण है
हमारे धर्म को गलत रूप से जनता के सामने परोसा गया। माँ के दर्शन कर लो मनौति पूरी
हो जाएगी। लाइन तोड़ो, धक्का मुक्की करो। पता नहीं
मनौति पूरी होगी या नहीं हाँ आपका मूड व दिन जरूर बिगड़ जाएगा। कई बार व्यक्ति एक
अजीब सा तनाव लेकर तीर्थ में जाता हे कि पता नही भीड़ में कितनी दुर्गति होने वाली
है। लेकिन वह एक लक्ष्य बनाकर चलता है कि हर वर्ष उसे वैष्णों देवी जाना ही है
क्योकि उसने बोल रखा है। केदारनाथ की घटना तो सिखाती है कि यदि आप दुरगामी तीर्था
पर अवावश्यक जाओंगे बार-2 जाओंगे तो भगवान प्रसन्न होने की बजाय रूष्ट हो जाएगा।
क्यों सब लोग वैष्णों देवी ही भागते है?
क्या पड़ोस में कोई देवी
देवता का अच्छा मन्दिर नही है? नहीं साहब वहाँ की बड़ी
मान्यता है परमपज्यू गुरुदेव सर्वप्रथम ऐसे राष्ट्र सन्त हुए जिन्होंने घोषणा की ‘परमेश्वर का प्यार कवेल सदाचारी ओर कत्र्तव्य परायण के लिए ही
सुरक्षित रहता है।’ सर्वप्रथम आप सदाचारी ओर
कत्र्तव्य परायण बनिए, भगवान आपकी सुनेगा। अन्यथा
घूमते रहिए तीर्थो में, डालते रहिए सजल श्रद्धा, प्रखर प्रज्ञा, अखण्ड दीपक पर अपनी
पर्चियाँ उससे कुछ निकलने वाला नही है। तीर्थ सेवन एक आवश्यक परम्परा है परन्तु
उनके लिए जो अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए वास्तव में प्रयत्नशील है।
किसी भी जाग्रत तीर्थ में
सोच समझकर जाँए, सोच समझकर रहें, सावधानी पूर्वक रहें। यदि
तीर्थ में आपके गलतियाँ हुयी तो 13 गुना अधिक पाप का भागी बनाना पडेगा। जितना बड़ा
ऋषि, जितना बड़ा सिद्ध पुरुष वह नैतिक नियमों से उतना अधिक प्रेम करता है।
वह बड़ा कठोर शिक्षक होता है। श्री अरविन्द इस विषय में अत्यतः गम्भीर थे। बड़ी
कठिनाई से अपने आश्रम में लोगों को आने देते थे। क्योंकि उन्हे पता था कि श्रद्धाहीन
व्यक्ति उनसे कोई लाभ नही ले पाएगा उल्टा आश्रम का वातावरण गन्दा अवश्य करेगा।
केवल वही व्यक्ति प्रवेश पाते थे जो साधना के लिए समर्पित होते थे वह साधना में एक
ज्ीतमेीवसक पार कर चुके होते थे। परन्तु आज सभी गुरुओं का जोर भीड़ इकðी करने में है। मंचो पर बढि़या-2 बोला जाता हे कि हमसे पाँच करोड़
लोग जुडे़ है। यदि हम भीड़-2 इकðी करते रहे व उसके अनुशासित
संगठित करने की ओर ध्यान हीं दे पाए तो अनुशासनहीनता होगी व भगडड़ मचेगी। क्यों
सभी के पीछे फनंनसपजल पड़े है फनंनसपजल
क्यों नहीं ला पाए?
जिस दिन भारत के लोग यह समझ
जाँएगे कि देव शक्तियाँ नियम, संयम, पवित्रता, निःस्वार्थता पसन्द करती है
व मात्र ऐसे ही लोगों की सहायता करती है उस दिन लोग गलत कार्यो से डरेंगे। आज
लोगों के अन्दर बुराईयों के प्रति भय समाप्त हो गया। अभी तो भारत की जनता यह समझती
है कि कपाल भाँति सारे रोग दूर हो जाँएगे। परन्तु उन्हें यह नहीं पता कि यदि
ब्रहमचार्य पालन में उनकी भावना नही हे तो यही कपाल भाँति उनके लिए जानलेवा भी
सिद्ध हो सकता है। इसलिए ऋषियों ने योगाभ्यास के ैलेजमदजपब बनाया था। परन्तु अपने
हिसाब से बहुत कुछ तोड़ मेराड़ दिया।
योगाभ्याम के लिए सर्वप्रथम
पाँच यम बताए थे अर्थात् ये अनिवार्य अनुशासन है जिनका कोई बचाव म्गबनेम नहीं है।
यदि ये नहीं अपनाए तो योगाभ्यास के अलगे चरणों में लाभ नही मिलने वाला वरण घातक भी
सिद्ध हो सकते है। अनेक व्यक्ति जो भैतिकवादी मनोभूमि के थे, प्रापाध्य ध्यान करते हुए कुण्डलिनी जगा बेठे व मानसिक रूप से विकृत
हो गए। अतः जीवन में पाँच बातों से अमत में अवश्य लाखे व प्रयास करें - ब्रहमचार्य, सत्य, अंहिसा, अपरिग्रह ......
योगाभ्यास अथवा अध्यात्म के
मूलभूूत सिद्धान्तों को छोड़कर हम क्रियाकलापों अथवा कर्मकाण्ड में उलझ गाए। यदि
हम दुर्भावना द्वेष, झूठ फरेब को पाले रहे तो
हमारा ह्नदय व नर्वस सिस्टम कमजोर पड़ता चला जाएगा। यदि हम भोगवाद व भौतिकवाद में
उलझे तो डिप्रेशन डायबिटीज जैसे रोग पनपते चले जाँएगे।
भारत में इतने बाबा धर्म
कर्म मन्दिर आश्रम जगह-2 दिखायी पड रहे है। परन्तु स्थिति बिगड़ती जा रही है। उसका
एक मात्र कारण यही है कि अध्यात्म मूलभूत सिद्धान्तो के प्रति श्रद्धा का अभाव।
बहुत से बाबा अपने को आध्यात्मिक दिखाने के कपट में माहिर है। साधुओं जैसा वेश, श्रृंगार, मुख में बढि़या राम नाम, जनता को मूर्ख बनाने के लिए सुन्दर टोटके। परन्तु भीतर एक ही ललक है
कि कैसे आश्रम बढे़, भीड़ बढ़े, आश्रम में सम्पत्ति बढ़ें। इन बाबाओं की भी आदर्शो व सिद्धान्तों में
श्रद्धा नहीं है वैसे ही आम जनता में भी नही है। सभी अपनी अपनी दुकानें चलाने के
चक्कर में भाग दौड़ कर रहे है।
बड़ी विकट स्थिति उत्पन्न
हो गयी है। किसी भी क्षेत्र में कोई मजबूत आदर्श नजर नहीं आ पा रहा है। न राजनीति
में, न धर्म तंन्त्र में, न समाज में। अधिकाँश लोगो
ने बड़े सुन्दर-2 पर्दे लगा रखे है। उनको देख जनता उनकी ओर दौड़ती है कि शायद उनकी
समस्याओं कहीं निकले। परन्तु चारों ओर स्वार्थ नजर आता है। ओर यदि सुनहली दुकानों
के पर्दे के पीछे मीडिया वाले या अन्य झाँकने का साहस करें तो उन्हें खरीद लिया
जाता है। कभी-2 बिन बिकाउ भी पल्ले पड जाते है। उन्हें मरवाने की धमकी दी जाती है
अथवा मरवा दिया जाता है।
बड़ी दयनीय स्थिति है मेरे
भारत की। कैसे त्यागी तपस्वी लोग एक ओर एकत्र हो पाँए। यद्यपि राहु केतु जैसे असुर
वेश बदल उसके भी घुस पड़ते है। कैसे यह संगठन उभर कर एक विराट आन्दोलन का रूप लें।
कैसे राजनीति ओर धर्म तन्त्र में काले नागों के ऊपर से सफेद पोश उतरे यह बड़ा कठिन
कार्य है। कभी-2 असुर आपस में लड़ मरते है तभी लोगों की पोल वटिृयाँ खुलती है व
पर्दे के भीतर क्या खिचड़ी पक रही थी यह जनता के समाने आ पाता है।
भारत की स्थिति तभी ठीक हो
सकती है जब यहाँ की जनता जितना प्रेम बाबाओं, धर्म गुरूओं, देवी देवताओं से करती हे उतना ही प्रेम अध्यात्म के मूल सिद्धान्तों
से करें। लोग सदाचारी व कत्र्तव्यनिष्ठ बनें। त्याग, तप, तितिक्षा से जुड़े। अच्छे लोग जहाँ भी हो संघबद्ध हो। भले ही छोअे हो
लेकिन मजबूत समूह उभरें व समाज के अनीति, अन्याय व अनाचार से लोहा
लेने के लिए हुट मुट प्रयास अवश्य करें।
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